इन दिनों पहाड़ों पर जम के बर्फ़बारी हो रही है और परिणाम स्वरूप मैदानी इलाक़े भी सर्दी से काँप रहे हैं , लेकिन पहाड़ों पर पर्यटन के शौक़ीनों का जमावड़ा बढ़ता ही जा रहा है । दिलचस्प बात यह है कि हम पति-पत्नी के बीच पर्यटन के मामले में मतविभिन्नता का कारण हमेशा पहाड़ रहता है ।
जब भी कभी घूमने फिरने की बात हो , उर्मिला पहाड़ों के नाम से ही घबराने लगती है । ऊँचाई से उसे कोई मनोवैज्ञानिक डर जैसा लगता है , ख़ास कर सड़क यात्रा के दौरान यदि उसकी सीट उस तरफ़ है , जहाँ खाई है , तब तो यात्रा मुश्किल से ही पूरी होती है । मज़े की बात देखिए कि पहाड़ों से इतना घबराने के बाद भी हमारी बड़ी बेटी की शादी पहाड़ों में ही हुई । श्रेया की ससुराल है धर्मशाला जो अपने खूबसूरत क्रिकेट स्टेडियम के कारण हमेशा क्रिकेट प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र रहता है ।
कांगड़ा घाटी में बसा धर्मशाला , तिब्बतियों के 14वें धर्मगुरु दलाई लामा का घर है । 1950 के बाद जब तिब्बत चीन के अधीन एक स्वायत्त निकाय के शासनाधीन हुआ , तब दलाई लामा के सम्बन्ध चीन की सरकार से मधुर नहीं रह गए और 1959 में वे चीन छोड़ कर भारत आ गए | लाखों लाख तिब्बती भारत में इस आशा से रह रहे हैं , कि एक दिन उनके देश को स्वतन्त्र देश की मान्यता मिल जाएगी और तब वे अपने वतन वापस लौट जाएँगे |
धर्मशाला के ऊपरी भाग में स्थित मेक्लोडगंज खाने के शौक़ीन लोगों के लिए मुफ़ीद जगह है । यहीं पर पिज्जेरिया है , जिसका पिज़्ज़ा खाने के लिए आपको थोड़ा चल कर जाना पड़ेगा , पर जब पिज्जेरिया में बैठ सामने हिमालय की बर्फ़ से आच्छादित धवल चोटियाँ देखते हुए आप गरमागरम पिज़्ज़ा खाओगे तो वहाँ तक जाने का श्रम भूल जाओगे । हिमालय पर पर्वतारोहण के लिए मार्ग यहीं से जाता है और कहते हैं कि पाण्डव अपने कुत्ते के साथ यहीं से हिमालय के लिए चढ़े थे । मेक्लोडगंज में ही 1974 में दलाई लामा ने अविलोकितेश्वर का मंदिर बनवाया है जो वस्तुतः बुद्ध के ही रूप हैं ।
इस मंदिर में दर्शन के दौरान मैंने देखा कि मंदिर प्रांगण में एक कक्ष में बहुत सारे दीपक जल रहे थे , मैंने कारण पूछा तो वहां खड़े एक लामा ने बताया कि ये लोगों ने अपनी आकांक्षाओं के पूरा होने के वास्ते जला रखे हैं | मुझे याद आया लगभग हर धर्म में पूजा स्थलों पर इस निमित्त लोग अपनी आशाओं की पूर्ति के लिए दीप जलाया करते हैं | मन में एक सवाल आया ; धर्म में तो कहा गया है जब कुछ इच्छा न रह जाये , तभी मोक्ष मिलता है , तो ईश्वर के दरबार में बजाये ईप्सा के त्याग के आदमी इच्छाओं की पूर्ति के लिए आशा के दीप क्यों जलाता है ?
हिमाचल में रिश्तेदारी का फ़ायदा मुझे ये मिला कि इन इटैलियन व्यंजनों के अलावा देशी खाने का स्वाद भी मैं ले पाया , हालाँकि उसका क़िस्सा भी बड़ा मज़ेदार है । हिमाचल में लोग परिवार में आए बड़े ख़ुशी के अवसर अपने परिचितों को भोजन कराने “धाम” का आयोजन करते हैं । यह एक विशिष्ट प्रकार की रसोई है , जिसका धार्मिक महत्व भी है । इसमें चावल को कई प्रकार की सब्ज़ियों के साथ परोसा जाता है ।
अपनी पत्नी के साथ मैं जब पहली बार धाम खाने बैठा तो पत्तों से बनी थाली में चावल और सब्ज़ी परोसी गयी । रोटी खाने वाले हम जैसे मैदानी सैलानियों के लिए चावल का शुरुआत में ही परोसा जाना कुछ निराशा पूर्ण था फिर भी मैंने चावल की मात्रा देख परोसने वाले सज्जन से कुछ और चावल माँग लिए । पहला दौर ख़त्म होते ही दूसरी सब्ज़ी आ गयी और फिर उसके साथ चावल परोसा गया , मैंने कुछ अचरज में भर कर पड़ोस में बैठे सज्जन की ओर देखा तो वे हँस कर बोले अभी तो दस क़िस्म के और व्यंजन ऐसे ही एक एक कर आएँगे , हमारे यहाँ धाम में कम से कम सात तरह की सब्ज़ियों को परोसने का रिवाज है । फिर सच में उन सब्ज़ियों को क्रमशः थोड़े थोड़े चावल के साथ परोसने की परम्परा का लुत्फ़ मैं बड़ी मशक़्क़त से ही ले पाया और जब केसरिया चावल पत्तल में आया और बताया कि ये आख़िरी डिश है तो लगा जैसे मोक्ष प्राप्त हो गया हो ।