उत्तर प्रदेश से उठे सवालों के जवाब ढूंढने होंगे

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उत्तर प्रदेश से उठे सवालों के जवाब ढूंढने होंगे

उत्तर प्रदेश से उठे सवालों के जवाब ढूंढने होंगे

एक कुख्यात,दुर्दांत अपराधी की पुलिस हिरासत में हत्या और उसके घनघोर आपराधिक प्रवृत्ति के बेटे को पुलिस द्वारा मुठभेड़ में मार गिराये जाने के बाद जहां देश भर में आम तौर पर सकारात्मक रूख है, वहीं उत्तरप्रदेश व केंद्र में सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी के विरोधी दल के नेता झार-झार आंसू बहा रहे हैं, मानवाधिकारों की दुहाई दे रहे हैं। विसंगति देखिये कि इन तमाम मानवाधिकारवादियों ने कश्मीर में पंडितों के नरसंहार,पलायन और निष्कासन पर उफ्फ तक नही किया। जिन्होंने गोधरा में रेल की बोगी में सोये कार सेवकों को जिंद जला दिये जाने के खिलाफ एक शब्द सहानुभूति का नहीं बोला। वे आक्रांता,अत्याचारी,फसादी,माफिया सरगनाओं के इस अंजाम पर ऐसे छाती-कूटा कर रहे हैं, मानो धरती पर से न्याय ,कानून ,मानवता का साया ही उठ गया। हां, पर अब हैरत नहीं होती।

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     उप्र में अतीत में आपराधिक प्रवृत्तियों के पनपने और जुल्मो सितम की लाखों दास्तानें सामने आने के बाद उनके कर्ता-धर्ताओं की करतूतों के खात्मे के लिये चल रहे अभियान के मद्देनजर जनता द्वारा राजनीतिक रूप से  खारिज कर दिये गये राजनीतिक समूह के प्रलाप का अब जनता पर कोई विशेष असर नहीं होता। अलबत्ता, उनका चरित्र बार-बार सामने आ जाता है कि किन मापदंडों पर वे घृणित राजनीति का ताना-बाना बुनकर चल रहे थे।दरअसल, वे राजनीतिक माफिया हैं, जिनके मुखौटे बलात हटा दिये गये हैं। उनके वास्तविक चेहरे सामने आ जाने की छटपटाहट तो लाजिमी ही है ना।

     राजनीति में माफियाओं के दखल से कोई राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है। फिर भी यह तो देखना ही होगा कि यह सिलसिला कमोबेश 70 साल पुराना है। कहां से शुरू हुआ, किसने बढ़ाया, कैसे वह व्यवस्था पर हावी होता गया, कैसे अपरिहार्य बन गया और कौन-कौन इसके लिये कितने-कितने जिम्मेदार हैं? कोई अछूता नहीं है। किसी ने कम, किसी ने ज्यादा तो किसी ने जहर से जहर के खात्मे के लिये ऐसा किया हो, लेकिन दोषी तो वे भी हैं ही। तब भी ध्यान देने लायक बात तो यही है कि कौन इस माफिया गठबंधन को जड़ से खत्म कर देना चाहता है ? तो सच तो यही है कि माफिया राज के लिये सर्वाधिक कुख्यात उप्र में यह काम इस समय योगी आदित्यनाथ सरकार कर रही है और दमखम से लगी है। वोट बैंक की चिंता से बेफिक्र होकर कर रही है, जिसका आम संदेश तो यही जा रहा है कि वे सुशासन की दिशा में बढ़ रहे हैं। वे माफिया-राजनेता-पुलिस-प्रशासन के कुछ हिस्से में बन चुके मकड़जाल को तोड़ रहे हैं। इसके लिये ताने-उलाहने भी सुन रहे हैं,जान पर आफत भी महसूस कर रहे हैं और एक वर्ग विशेष की स्थायी नाराजी का खतरा भी मोल ले रहे हैं। लेकिन इसमें एक ऐसी संभावना मौजूद है, यदि इन माफियाओं की बच गई नस्ल और आने वाली पीढ़ी को यह समझ आ गया कि वह सख्ती जनमानस के बैखओफ जीने के बंदोबस्त की थी। वह कवायद प्रदेश को अपराध,आतंक,अनिश्चय,अनैतिकता, विकासहीनता के भंवर से निकालने के लिये थी तो यकीनन वह योगी के मनोयोग की सराहना ही करेगी।

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     जब हम राजनीति में अच्छे लोगों के,युवाओं के, बौद्धिक चेतना वाले लोगों के दखल बढ़ाने की बात करते हैं तो वह जबानी जमा खर्च और किताबी ही रहे तो किस काम की? उसके लिये जरूरी है कि पहले उनके आगमन वाले रास्ते से कंटीली बागड़ तो हटाई जाये। बड़े-बड़े पत्थर तो परे धकेले जायें। उसे सरपट दौड़ने लायक न सही तो सलीके से चलने लायक तो तैयार करें। यह काम उप्र में तेजी से हो रहा है। यही वजह है कि देश ही नहीं दुनिया भर में योगी सरकार की छवि बुलडोजर बाबा की सरकार के तौर पर सकारात्कम रूप में  बन रही है, वरना बुलडोजर तो 1975-76 में दिल्ली में युवराज ने भी चलवाये थे।

       उप्र में आतंकियों के अंत की जो शुरुआत हुई है, उस सिलसिले को प्रदेश की सीमा से बाहर निकलकर देशव्यापी बनाये जाने की जरूरत है। दीगर प्रदेश सरकारें सबक लेकर, मिसाल देकर अपने राज्यों में भी अभियान छेड़ सकती है। इससे उन प्रदेशों की आम जनता सरकारों को दुआ ही देंगी। आज कमोबेश सभी राज्यों में विभिन्न् तरीके से माफियाओं का वर्चस्व है। उनके आतंक तले जनता दिन-रात पिस रही है। कहीं जीवन भर की कमाई लूटी जा रही तो कहीं इज्जत से हाथ धोये जा रहे हैं। कहीं पल-पल दहशत और अनिश्चय की काली परछाई है तो कहीं जीवन फुटबाल की तरह इधर-उधर उछाला जा रहा है। उन राज्यों की सरकारों के सामने यह एक बेहतर अवसर है, जब वे उप्र मॉडल को अपनाकर राज्य से माफिया राज का खात्मा कर सकते हैं। समाज की जीवन प्रणाली पर फैला कचरा हटा सकते हैं।

      लगता नहीं कि किसी गैर भाजपा सरकार के मुखियाओं में इतनी नैतिकता और हौसला बचा होगा कि वे माफिया से मुक्ति का अभियान चलायें।वोट बैंक की दलदली राजनीति में माफियाओं का संरक्षण तो उनके लिये जैसे संजीवनी बन चुकी है। भाजपा शासित कुछ राज्यों में भी अभी उतनी मुस्तैदी तो नहीं दिखाई देती। ऐसा तभी होता है, जब राजनीति और माफिया के बीच कोई गठजोड़ बरकरार हो। जनता अब समझ रही है और चुनाव-दर-चुनाव अपने इरादों को अंजाम तक पहुंचाती जा रही है। समझ सको तो समझ जाओ।