अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर दो कविताएं-
अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस या मई दिन मनाने की शुरुआत १ मई १८८६ से मानी जाती है जब अमेरिका की मज़दूर यूनियनों ने काम का समय 8 घंटे से अधिक न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी।
मजदूर
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मेहनत से जो..
दूर नहीं,
मजदूर है वो….
शारीरिक श्रम….
करने को तैय्यार,
परिश्रमी है वो….
रूखी सूखी ….
खाकर भी खुश,
पेट पालते हैं वो…
ईमानदारी….
वफादारी जिनमें,
ईनाम पाते हैं वो….
वे भी खुशी दे…. इंसान दुनिया में,
परिवार तरक्की चाहे वो…
सरकारों तुम….
सुख सुविधा दे कर,
दिल से
सम्मानित करो।
मेहनत का फल…
पारिश्रमिक अच्छा देना है,
इंसान बने रहो तुम।
🙏
प्रभा जैन इंदौर
श्रमिक
श्रम देखकर तुम्हारे परेशान हो जाती हूं।
कहां से लाते हो इतना बल सोच कर हैरान हो जाती हूं।
खाते हो हरदम सुखी दो ज्वार की रोटी।
नहीं उसके साथ खीर पुरी या सब्जी होती।
ना होता घी ,ना दूध ,ना कोई फल ,पर तेरे को उसकी आस भी ना होती।
पीकर सदा सादा मटके का पानी प्यास बुझाता अपनी।
देखती हूं तेरे तन पर बहती पसीने की धाराओं को।
जो तेरे मेहनत को, श्रम की कहानी को खुद ब खुद बयां करती है।
घूंघट की आड़ में देखती हूं उन माताओं को सिर पर ईंटो भार लिए मौसम की परवाह किए बगैर ढोंती कच्चा माल अपने सर पर ,
सिर्फ इसलिए कि अपना और अपने बच्चों का पेट पाल जाए।
दो जून की रोटी मिल जाए जिंदगी जीने के लिए।
गुदड़ी के लाल वही खेल रहे होते आधे मिट्टी में सने आधे तन ढके।
मौसम फिर गर्मी हो ,बारिश हो, सर्दी हो?पर मजबूरी हावी रहती है
तन ढकने की सुध किसे?
मां जब उनके पास आती। दौड़ के मां के पास आते मां के आंचल में छुप जाते हैं मां का दूध पीने के लिए।
खाकर दो रूखी, सूखी रोटी किसी पेड़ की छांव में दो घड़ी आराम करके फिर तत्पर होती वह मां नव निर्माण के लिए।
मजदूर अपने गमछे से और मजदूर मां अपने आंचल से मुख पर आये स्वेद को पोंछ़ कर चल देते दिहाड़ी के लिए। किसी का नया भवन या नई कोई इमारत बनाने के लिए।
एक नई आस एक नई उम्मीद को साथ लिए।