अपनी भाषा अपना विज्ञान: भाषा बहता नीर – भाग 2

अपनी भाषा अपना विज्ञान: भाषा बहता नीर – भाग 2

भाषा का समाज विज्ञान

1.0 “संस्कृत कूप जल, भाषा बहता नीर

ऐसा कहा कबीर दास जी ने । इसी उक्ति पर वर्ष 1981 में समालोचनात्मक निबन्ध लिखा वरिष्ठ साहित्यकार श्री कुबेरनाथ राय ने । उन्होंने कहा “कबीर की कही हुई बात है, सही होनी ही चाहिये । कबीर थे बड़े दबंग और साफ़ दिल । लेकिन कबीर के पास इतिहास बोध नहीं था । उनका यह वाक्यांश तत्कालीन पुरोहित तंत्र के खिलाफ़ ढेलेबाजी भर है ।”

संस्कृत की भूमिका कूपजल या कुँए का पानी से कहीं अधिक विस्तृत है जिसकी चर्चा मैं आगे करूँगा । “भाषा बहता नीर” से भला कौन असहमत होगा । यह एक सतही नहीं, वरन गंभीर कथन है । इसके अनेक संर्वाग अर्थ है जो तमाम युगों और समस्त देशों, भूखण्डो पर लागू होते हैं ।

2.0 संस्कृत के पक्ष में

संस्कृत की भूमिका भारतीय भाषाओं और साहित्य के संदर्भ में ‘कूपजल’ से कहीं ज्यादा विस्तृत है। वह भाषा नदी को जल से सनाथ करने वाला पावन मेघ है, वह हिमालय के हृदय का ‘ग्लेशियर’ अर्थात् हिमवाह है। जब हिमवाह गलता है तभी बहते नीर वाली नदी में जीवन-संचार होता है। हिमवाह के अतिरिक्त नदी के बहते नीर का दूसरा स्रोत हैं परम व्योम में विचरण करने वाले मेघ ।

संस्कृत एक प्राणवान स्रोत के रूप में भाषा-संस्कृति आचार-विचार पर दृष्टि से अस्तित्वमान है। इसी से ‘यूनान, मिस्र, रोम’ के मिट जाने पर भी हम नहीं मिटे हैं। हमारा अस्तित्वमान है। हमारा अस्तित्व कायम है ।

संस्कृत भाषा के समृद्ध तथा अभिव्यक्ति-क्षम होने का रहस्य है यही भूमावृति अर्थात शब्द-संपदा को चारों दिशाओं से आहरण करने की वृत्ति। यही कारण है कि संस्कृत में एक शब्द के अनेक पर्याय हैं। ये पर्याय मूल रूप से विभिन्न भारतीय अंचलों से प्राप्त उस शब्द के लिए क्षेत्रीय प्रतिशब्द मात्र हैं । संस्कृत में जो शब्द पयार्यवाची रूप में आए हैं, वे सब कहीं न कहीं की जनभाषा के सामान्य शब्द ही हैं ।

संस्कृत मम प्रिय भाषा अस्ति ।

प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक श्री निकोलस ओस्तलर ने अपनी कालजयी पुस्तक “Empires of The word” में संस्कृत वाले अध्याय का आरम्भ निम्न सूक्त से किया ।

भाषा प्रशस्ता सुमनो लतेव

केषाम्न चेतांस्यावर्जयति।

Language, auspicious, charming, like a creeper,

Whose minds does it not win over?*

sgh

संस्कृत का साम्राज्य विशाल था । वह आज भी अपनी बेटियों और नातिनों के माध्यम से विश्व के बड़े भूभाग पर प्रभावशील है तथा हिन्दू और बौद्ध धर्म की परम्पराओं की वाहक है । चीन के एक विद्वान ने कहा था कि भारत ने एक सैनिक भेजे बगेर चीनी मानस पर संस्कृत के माध्यम से एक हजार साल तक राज किया है । संस्कृत नई पारिभाषिक शब्दावलियों के निर्माण हेतु अकूत स्रोत है । राष्ट्रीय एकता में सहायक है ।

उड़ीसा का किस्सा

संस्कृत की पूरे भारत में पहुंच के अनेक साक्ष्य, देशाटन के दौरान मिलते है । उड़ीसा में एक युवती रेलवे प्लेटफार्म पर कुछ बेच रही थे — “कड़ली” “कड़ली” चिल्ला रही थी । पूछने पर मालुम पड़ा “कदली फल” है — केले की एक प्रजाति । वहीं के ढाबे में भोजन परोसने में देर हो रही थी । बैरे से गुस्से में शिकायत करी तो विनम्रता पूर्वक टूटी फूटी हिन्दी में बोला “हम पूर्ण चेष्टा करते पर वर्षा होने से कठिन हो गया है”

इजराइल ने मृत भाषा हिब्रू को पुनजीर्वित किया । हमारी राजनैतिक परिस्थितियां भिन्न रही । बहुत बड़ा और विविध देश है हमारा । वरना हम भी कर सकते थे ।

पिछड़ी जातियों और दलितों के मध्य अंग्रेजों और मार्क्सवादियों द्वारा विचार भरे गये कि संस्कृत ब्राह्मणों द्वारा शोषण की भाषा है । कुछ गिने चुने उद्धरणों को प्रसंग व पृष्ठ भूमि से हटा कर बार-बार प्रचारित किया गया ।

मैं अनुशंसित करता हूँ श्री राजीव मल्होत्रा की पुस्तकें — Breaking India और Battle for Sanskrit । जिसमें वे एक श्वेत विद्वान श्री शेल्डन पोलॉक का विरोध करते हैं। पोलॉक के अनुसार संस्कृत का चरित्र ही कुछ ऐसा है कि वह Oppression या दमन के लिये बनी है । इस नरेटिव  का अकादमिक और राजनैतिक दोनों स्तरों पर प्रतिकार जरुरी है।

कुछ अति उत्सा‌ही राष्ट्रवाबी लोग मिथ्या विज्ञान के चक्कर में पड़ कर झूठी बातों पर भरोसा करने लगते हैं कि संस्कृत कम्प्यूटर की भाषा है ऐसा NASA वालों ने कहा । यह गलत है — संस्कृत की महानता दर्शाने के लिये ऐसे अपुष्ठ दावों पर विश्वाश नहीं करना चाहिये ।

3.0 भाषा एक पहचान है ।

भाषा केवल भाषा नहीं होती । उसकी अपनी खास पहचान, रंग और गन्ध होते हैं

बाईबिल में “टावर आफ बेबल” की कहानी आती है । लोगों ने एक ऊंची मीनार या टॉवर बनाना शुरू किया । आकाश छूने लगा । ईर्ष्यालु और डरपोक God ने सोचा मेरी सत्ता खतरे में पड़ सकती है । उस समय तक सारे  लोग एक ही भाषा बोलते थे । भगवान के जादू से वे ढेर सारी अलग अलग भाषाएं बोलने लगे । आपस में संवाद व  सहयोग टूट गया । झगड़े होते लगे । टॉवर टूट‌ गया । हमारे सनातन धर्म के देवता शायद ऐसे इर्ष्यालु और गुस्सैल नहीं होते ।

सच देखा जाये तो भाषाई विविधता कोई अभिशाप नहीं वरन वरदान है ।

4.0 What is in a name? नाम में क्या होता है?

“That which we call a rose

By any other name. would smell as sweet.”

ऐसा कहा शेक्सपियर ने । लेकिन सच्चाई तो यह है कि There is great deal in a name. वरना वस्तुओं की ब्रांड वेल्यु क्यों होती?

“बद अच्छा, बदनाम बुरा” क्यों कहलाता?

5.0 भाषा और बोली: कोई ऊंच नीच नहीं

कोई भाषा या बोली कमतर नहीं होती । अपनी भाषा पर गर्व जरूर करो लेकिन घमण्ड व्यर्थ है । सब में सम्प्रेषणीय क्षमता गजब की होती है ।

शब्दकोश की संख्या और समृद्धि कम ज्यादा हो सकती है। शब्दकोश की विविधता का फलक भिन्न हो सकता है।

लेकिन अंडमान का आदिवासी, निराला से कम नहीं होता । प्रागैतिहासिक समाज [Stone Age Society] होते हैं। पाषाण युग समाज होते थी। पाषाण युग भाषाएं नहीं होती। Stone Age Language नहीं होती । साउथ अफ्रीका की बांटू कबीले की भाषा में एक क्रिया शब्द के आगे-पीछे सात प्रकार के प्रत्यय होते है तथा चौदह काल [Tense] होते हैं । क्रिया निर्भर करती है कर्ता (Subject) पर, एक से अधिक कर्म (Object) पर, क्रिया के 16 Gender होते हैं [मानवीय, प्राणी, वस्तु, वस्तु समूह, शरीर अंग आदि] अशिक्षित गरीब लोगों की भाषा ‘गरीब’ नहीं होती । बोलियां या Dialect किसी भाषा से कम नहीं होती । Language is a dialect with an army and navy.

5.1 मालवी बोली

हूँ थोड़ी घणी मालवी जानु । म्हारी मालवी कच्ची है । घेंचपेच है । घालमेल है । घणी गलतियां वे । जितनी भी मालवी म्हणे आवे, हे खुब काम की । मरीज लोगाँ से बात करवा के टेम, उनकी तकलीफां जानणा के वास्ते, यो जरुरी है कि वी डाक्टर लोग गामड़ा के लोग की जुबान में बोलां, न उने समझा भी, म्हारी गलत सलत मालवी सुणी ने अख्खो परिवार खुस होई जावे, मन से जुड़ी जावे, भरोसो बैठी जावे, बीमार मनक की दुख भरी कहाने महारे झट अच्छे से समझ अई जावे । मरीज न उनका घरवाला जो जो केनो चावे, बतानो चावे, सई-साट तरीका से के पावे, एक अच्छा डॉक्टर ने और कई चावे, दुखियारा मरीजों से, दिल से जुड़नो, न उनकी कथा समझनो, न आपणो इलाज के बारे में अच्छे से समझाई देणो । सच बात तो या हे के घणा सारा टेम पे, कई बीमारी हे यो ज्ञान मरीज के मुण्डा से उको किस्सो सुणी ने ई अई जावे, मेंगी मेंगी जांचां करवाने की जरवत ही नी पाड़े । मूं जो मालवी सीखी, म्हारों बड़ो धन है। म्हारा हाथ नीचे काम करवा वाला, भंड᳝वा वाला छोटा डाक्टर, वे म्हारी मालवी सुणी ते चकित रई जावे, म्हारा मुण्डा आडी देखे, डाक्टर साब ने या बोली कैसे आवे । सब लोगों ने गामरा की बोली जरूर सीखणी चईये ।

6.0 मेरी खाला — जबान ए उर्दू ए मौला

उर्दू और हिन्दी बहनें हैं । उर्दू का ननिहाल हिन्दुस्तान है । वह यही पैदा हुई, और पली-बढ़ी । संस्कृत उसकी मां है । बाप का खानदान फारस (ईरान), तुर्कशा और अरब से आया । गर लिपि देवनागरी हो तो बहुत सारी समझ आ जाती है ।

पांच वर्ष की उम्र में मैंने पहला कायदा “अलिफ बे तें” का सीखा था, बुरहानपुर के मदरसे में, जहां मेरी मां हिन्दी की टीचर थी । जो कि बाद में भूल गया । मुझे उर्दू अदब पढ़ने का शौक हैं । दिल करता हूँ कि उर्दू में तकरीर करूं ।

मेरी आज भी तमन्ना है उर्दू लिखना सीख जाऊ । उर्दू जुबां वाले अफेजिया मरीजों पर रिसर्च के लिये ।

खालिस अदबी उर्दू में अरबी, फारसी, तुर्कशा लफ्जों की भरमार है लेकिन बाकी कलेवर, क्रियाओं के रूप, विशेषण, संज्ञाएं आदि संस्कृत से आते हैं ।

हिन्दुस्तानी बर्रे-सबीर में उर्दू और इस्लाम मजहब का रिश्ता एक हकीकत है । पाकिस्तान के हुक्मरानों ने जमीन से जुड़ी जबानों को दरकिनार किया — पंजाबी, सिन्धी, पश्तो । ऊपर से उर्दू थोपी । बंगलादेश इसी वजह अलग हुआ । एक जमाना था जब उर्दू हिन्दुओं, सिखों, मराठों के शिक्षित लोगों द्वारा काम में लायी जाती थी । रघुपति सहाय फिराक गोरखपूरी, गोपीचन्द करेंगे जैसे तमान नामचीन शायर हुए । श्रीनगर के शंकराचार्य मन्दिर में मैंने एक पण्डित को पोथी खोलकर पूजा करते देखा । पूछने पर मालूम पड़ा कि आज गणेश चतुर्थी है । ध्यान से गौर किया तो पाया कि उसकी पोथी में संस्कृत के श्लोक उर्दू लिपि में लिखे हुए थे ।

चुनांचे मुसलमानों ने उर्दू के साथ अपनी पहचान बनाई इस बिना पर दूसरे Religion वालोँ को उर्दू से ताल्लुक तोड़ लेना चाहिये यह गलत बात होगी । हमारी दिलो दिमाग की दुनिया को गरीब मत बनाइये । उर्दू एक खजाना है । एक नायब जरिया है । शौक से उसमे गोते लगाइये ।

उर्दू की खूबसूरती का कायल होने के वावजूद मैं गाँधी नेहरु की हिन्दूस्तानी,  जिसमें संस्कृत के कम और उर्दू के लफ्ज, इस गरज से ज्यादा हों कि आम लोगों को आसान जुबान चाहिये — मैं इस बात से ताकीद नहीं रखता  । मुझे खालिस हिंदी की दरकार है ।

7.0 भाषा और विचार

ज्यार्ज आर्वेल की दो महान रचनाएं है । एनिमल फार्म और 1984. एनिमल फार्म एक व्यंग है। It is a scathing satire. स्टालिन के जमाने के तानाशाही सर्वसत्रात्मक सोवियत संघ के बारे में । 1984 is a dystopaian vision. । एक दुःस्वप्न हैं। 1949 में लिखा गया था। चिन्ता प्रकट करी गई थी । तानाशाही ताकते भाषा को तोड़ मरोड़ कर लोगों की सोच को परिवर्तित कर देंगी । एक Newspeak बनेगी । शब्दों के अर्थ जकड़ दिये जायेंगे । ‘स्वतंत्र’ शब्द का कोई राजनैतिक व बौद्धिक सन्दर्भ नहीं रहेगा । ज्यादा से ज्यादा इतना कहेंगे “मैं जूं से स्वतंत्रा हूँ । पार्टी ज़ो तय करेगी वही अर्थ रहेंगे। पार्टी की विचारधारा से असहमति वाले शब्दार्थ Unthinkable अ-विचारणीय हो जाएंगे

समय समय पर लेख छपते रहते हैं कि कैसे विभिन्न भाषाओं में शब्द व अर्थ उक्त समाज की परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं और कैसे लोगों के सोच को प्रभावित करते हैं ।

नारीवादी चिन्तन ने पुरुष सत्तात्मक भाषा को संशोधित किया है ।

वामपंथी, और मार्क्सवादी, उत्तर आधुनिकता वादी, वोक विचारधाराए भाषा और ideology के अन्तसर्बधों के प्रति खासी सजग रहती हैं । एक अध्ययन में दावा किया गया था एस्क्रिमों लोगों में Snow या बर्फ के लिये 40 शब्द हैं।  हालांकि बाद में उसका खण्डन हुआ । विज्ञापन वाले भी हमारी भाषा से खेला करते हैं  I Such type of arguments are called Linguistic Determinism भाषा गत नियति वाद तथा Linguistic Relativity भाषागत सापेक्षता ! शेतडन पोलाक द्वारा संस्कृत पर आरोप की चर्चा मैं कर चुका हूँ । यह एक जटिल व विस्तृत विषय हैं । फिलहाल इसके विस्तार में जाना संभव नहीं ।

8.0 भाषा की सरलता और समृद्धि

प्रायः उपदेश दिये जाते हैं, सलाह दी जाती है — भाषा सरल रखना । लोग मुझे कहते हैं ‘सर आपकी हिन्दी मेरे सिर के ऊपर से जाती है।’ विज्ञान के विभिन्न पहलूओं पर मेरे लेखों और भाषणों को लेकर अनेक लोग असहज हो उठते हैं ।

हमारा आदर्श सहजता और बोधगम्यता ही होना चाहिए। बिना जरूरत भाषा को दुरूह करना कबीर के इस महावाक्य की प्रकृति के प्रतिकूल होगा। पर जहाँ जरूरत हो, वहाँ भाषा के समग्र प्रवाह से, सर्वकालव्यापी प्रवाह से शब्द लेने का हमारा अधिकार होना चाहिए। जो हमें इस अधिकार से वंचित करने के लिए कबीर की इस बात का सीमित बौना अर्थ लगाते हैं, वे किसी कूट मतलब से ऐसा कर रहे हैं। सर्वदा वर्तमान के बाज़ार में चालू शब्दों से ही हमारा काम नहीं चल सकता। लेखक, शिक्षक भी है। उसका कर्तव्य जनमानस को ज्यादा से ज्यादा समृद्ध करना है। और इस दृष्टि से वह नए शब्द अपने पाठकों को सिखाएगा ही।

कहने का तात्पर्य यह कि भाषा को अकारण दुरूह या कठिन नहीं बनाना चाहिए। परंतु सकारण ऐसा करने में कोई दोष नहीं । कबीर को खुद जरूरत पड़ती है तो योगशास्त्र और वेदांत की शब्दावली ग्रहण करते हैं। हर जगह लुकाठी हाथ में लिए सरे बाजार खड़े ही नहीं मिलते। मानसरोवर में डूबकर मोती ढूँढ़ते समय की भाषा बाजार वाली भाषा नहीं।

निबंधकार का काम होता है। पाठक के मानसिक-बौद्धिक क्षितिज का विस्तार। वह फिल्म प्रोड्यूसर नहीं कि पाठक की बुद्धि-क्षमता की पूँछ को पकड़े-पकडे चले। साहित्यकार पाठक की उँगली पकड़कर नहीं चलता, बल्कि पाठक साहित्यकार की उँगली पकड़कर चलता है। सनातन से यही संबंध रहा है । आज जनवादीयुग का सस्ता नारा उठाकर इस संबंध को परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

हिंदी की भूमिका आज बहुत बड़ी हो गई है । उसे आज वही काम करना है जो कभी संस्कृत करती थी और आज जिसे एक खंडित रूप में ही सही अंग्रेजी कर रही हैं उच्च शिक्षित वर्ग के मध्य । उसे संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान का वाहन बनना है, उसके अंदर वैसी आंतरिक ऋद्धि सिद्धि लानी है जो भारत जैसे विशाल देश की राष्ट्रभाषा के लिए अपेक्षित है । अतः ‘बहता नीर’ का चालू सतही अर्थ न लेकर उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा ।

हिन्दी और भारतीय भाषाओं में विज्ञान व उच्च कोटि के लेखन की वर्तमान स्थिति दुःखद व निराशाजनक रूप से खराब है। मात्रा और गुणवत्ता दोनों का अभाव है। प्रदाता लेखक व पत्रकार और गृहिता, पाठक, दर्शक दोनों का अभाव है । कलेवर /(Content ) की कमी है। भाषा अधोसंरचना /(Linguistic infrastructure ) का विकास अवरूद्ध है। भारत में अंग्रेजी का अत्याधिक प्रभाव और महत्व इसका प्रमुख कारण है। अंग्रेजी भाषा से मेरा विरोध नहीं है। चाहे जो ऐतिहासिक कारण रहे हों, भारतीयों का अंग्रेजी ज्ञान एक लाभकारी गुण हो सकता है। मेरा विरोध अंग्रेजी माध्यम में स्कूली व महाविद्यालयीन शिक्षा से है, जिसकी वजह से नई पीढ़ियां हिन्दी और भारतीय भाषाओं के वृहद शब्द संसार को खोती जा रही हैं। नई शब्द सम्पदा गढ़ने के अवसर खत्म हो रहे हैं। वैज्ञानिक विषयों की शब्दावली भी इस हानि का शिकार हो रही है। प्रश्न ‘कूप जल’ और ‘बहता नीर का नहीं है। हिंग्लिश की पिडगिन और क्रियोल रूपी खिचाड़ी किसी का भला नहीं करती। न हिन्दी या अंग्रेजी भाषा का और न ही उन्हें उपयोग में लाने वाले व्यक्तियों का, उनकी अपनी कोई पहचान नहीं रह जाती ।

हिन्दी लेखकों को सदैव इस समस्या का सामना करना पड़ा है कि या तो वे भाषा व ज्ञान को अति सरलीकृत रखें और विषयवस्तु की गुणवत्ता व मात्रा दोनों की बलि चढ़ा दें या फिर सचमुच में कुछ गम्भीर व विस्तृत व आधुनिक लिखें, फिर चाहे ये आरोप क्यों न लग जाए कि भाषा दुरूह है। बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है। हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च स्तर की भाषा पढ़ने समझने वालों का प्रतिशत घटता जा रहा है। हिन्दी शब्दावली इसलिये दुरूह महसूस होती है कि हमने उस स्तर की संस्कृतनिष्ठ भाषा सीखी ही नहीं और न उसका आम चलन में उपयोग किया । अंग्रेजी शब्द आसान प्रतीत होते हैं क्योंकि वे पहले ही जुबान पर चढ़ चुके होते हैं। समाज का वह बुद्धिमान व सामर्थ्यवान तबका जो उच्च स्तर की हिन्दी समझ सकता है, अपना अधिकांश पठन-मनन अंग्रेजी में करता है । हिन्दी पर उसकी पकड़ छूटती जाती है। वह निहायत ही भद्दी मिश्रित भाषा का उपयोग करने लगता है। बचे रह जाते हैं अल्पशिक्षित विपन्न वर्ग के लोग । हिन्दी जब तक श्रेष्ट्रिवर्ग या उच्च स्तर के बुद्धिजीवी वर्ग में प्रतिष्ठित नहीं होती तब तक हिन्दी लेखकों को अपनी भाषा को सरलीकृत करने को मजबूर होना पड़ेगा और वैज्ञानिक तथ्यों को कुछ हद तक छोड़ना पड़ेगा ।

अंग्रेजी में सोचने वाले लोग प्रायः आम लोगों की हिन्दी को कम करके आंकते हैं। चूंकि वे खुद हिन्दी का उपयोग छोड़ चुके हैं और अपनी शब्द सम्पदा गवां चुके हैं, दूसरों को भी वैसा ही समझते हैं। थोड़ी सी अच्छी और शुद्ध हिन्दी से अंग्रेजी परस्त विद्वत्जनों की जीभ ऐंठने लगती है । ‘परिस्थितियाँ’ जैसा शब्द उनके लिये टंग-ट्विस्टर है परन्तु “Circumtances” नहीं। हिन्दी में लिखने वालों को अपने बुद्धिमान व पढ़े लिखे पाठकों की क्षमता पर सन्देह नहीं होना चाहिये। यदि आपकी भाषा शैली प्रांजल व प्रवाहमय हो तो लोग सुनते हैं, पढ़ते हैं, गुनते हैं, समझते हैं, सराहते हैं, आनन्दित होते हैं ।

जब भारत शासन ने नयी शिक्षा नीति में मातृभाषा माध्यम पर जोर दिया तो मुझे खुशी हुई । होलांकि धुकधुकी है इसका विरोध होगा और अमलीकरण में रोड़े अटकाये जायेंगे । मनेसर स्थित Nakonal Brain Research Centre में मेरी मित्र नंदिनी चैटर्जी की शोध और न्यूरोविज्ञान की मेरी समझ यह इसी बात की पुष्टि करती है कि न केवल प्राथमिक वरन उच्च स्तर तक शिक्षा भारतीय मातृभाषाके माध्यम से दी जानी चाहिये ।

म.प्र. शासन द्वारा हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा अभियान की टीम में मैं एक सलाहकार व समर्थक के रूप में हूँ हालांकि क्रियान्कूल में मेरी कुछ सहमतियां हैं ।

8.1 शब्दावली के संदर्भ में । एक तिहाई का नियम । The rule of one Third

लगभग 33% तकनीकी शब्द ऐसे होगे जिन्हें हुबहु अंग्रेजी रूप में ले लेना चाहिये — उन्हें दोनों लिपियों में लिखो — रोमन और देवनागरी । अन्य 33% ऐसे हैं जिनके लिये हिन्दी मे अच्छे शब्द है । या बन सकते है लेकिन चलन में कम होने से अंग्रेजी व हिन्दी दोनों पर्याय, दोनों लिपियों देवे । एक तहाई ऐसे हैं जो हिन्दी में चलन में है और उनके लिये Hinglish मत घुसाओ ।

क्या जिन्दगी और जिन्दगी के ज्ञान विज्ञान नितान्त सरल है ? फिर भाषा सरल कैसे हो सकती है । भाषा की सरलता का दुराग्रह हमारे मानस को गरीब बनाता है और सत्य से दूर ले जाता है ।

तालिका

समूह 1

सीधे अंग्रेजी में

समूह 2.

अंग्रेजी + कठिन हिन्दी

समूह 2

केवल हिन्दी

Achondroplasia [अ. कान्ड्रोप्लाजिया]

Neuroglia [न्यूरोग्लिया]

Nephron

Mammilary Body

Glomerulus

Mitochondria

Meniscus

Dura mater

Arachnoid

Mitral valve

Reticulo Endothelial

Interleukein

शिरा Vein (वेन)

धमनी Arteay (आर्टरी)

Hysterectomy गर्भाशय, उच्छेदन

Thalamus चेतक

Stomach आमाशय

Liver यकृत

Kidney गुर्दा, वृक्क

Tissue ऊतक

Gall Bladder पित्ताशय

Ligament तन्तु

Ataxia असन्तुलन

Hemiplegia पक्षाघात

Aphasia वाचाधात

Stirnulation उद्दीपन

Inhibition शमन

Spinal cord मेक रज्जु

रक्त

हड्डी या अस्थि

जोड़ या सन्धि

मस्तिष्क Brain ब्रेन

कोशिका (Cell)

नाभिक (Nucleus)

झिल्ली (Membrane)

अण्डाशय (Ovary)

मूत्रा राय (Urinary Bladder)

खिचा त्वचा (Skin)

उर्जा (Energy)

शक्ति (Power)

मांसपेशी (Muscle)

हृदय (Heart)

9.0 भाषा की प्रामाणिकता और परिवर्तन

1960 के दशक में जब मैं हाई स्कूल मैं पढ़ता था तब हमारे घर में एक किताब आई थी – श्री रामचंद्र वर्मा की “अच्छी हिंदी” । उसे पढ़ कर मैं और माँ अभिशप्त हो गए थे । जगह-जगह हमें भाषा में गलतियां और अशुद्धियां दिखने लगी । धीरे-धीरे समझ आया कि भाषा बहता नीर है । हालांकि उसका मतलब यह नहीं कि पानी में गंदगी आने दो । मतभेद इस बात को लेकर हो सकते हैं की ‘गंदगी’ की क्या परिभाषा ।

आम जनता और पापुलर कल्चर में भाषाओं के गिरते स्तर को लेकर पंडित-ज्ञानी-ध्यानी हमेशा दुखी रहते है। उन्हें लगता है कि मोबाइल पर सोशल मीडिया की भाषा और बोलचाल में slang हमारी भाषा और सोच को भ्रृष्ट कर रहे हैं ।

Not to worry. We are so lucky. फ्रेंच वालों की एक Academic Francaise है जो आए दिन Prescriptic Rules (मानो फतवा हो) जारी करती रहती है कि क्या सही है और क्या गलत । अधिकांश भाषाओं के लिए ऐसी कोई संस्था नहीं है । अच्छा ही है कि नहीं है ।

कल्पना कीजिए आप वन्य जीवन पर National Geographic या Discovery Channel की कोई डॉक्यूमेंट्री देख रहे हैं । एक नरेटर कमेंट्री कर रहा है

“इस चीते ने ठीक से छलांग नहीं लगाई, यह बाज अपने पंख गलत ढंग से फड़फड़ा रहा है, इस कोयल का गायन बेसुरा है ।”

लोग बात कर रहे हैं, Texting हो रहा है, संवाद है, आदान-प्रदान है, संदेश सही-सही पहुंच रहे हैं और ऐसे में भाषा पंडित बिना बुलाए अपनी टिप्पणियां करने लगते हैं। मैं भाषा की प्रामाणिकता, स्थायित्व और सटीकता की हंसी नहीं उड़ाना चाहता । उसका अपना महत्व है ।  लेकिन इसका निर्णय लोगों पर छोड़ दो ।

भाषा बिगड़ जाएगी, नष्ट हो जाएगी ऐसे डर शायद अतिरंजित है । तथाकथित नियमों के जाने अनजाने में टूटने से भाषा बदलती है, बेहतर होती है । शेक्सपियर और चार्ल्स डॉकिंस और प्रेमचंद – सभी के लेखन में ऐसी गलतियां मिल जाएगी, जो तर्कसंगत थी और बाद में चलन में आ गई । भाषा पंडित आम जनता को कम IQ वाला समझते हैं । औपचारिक लेखन या भाषण में निःसंदेह खूब गलतियां निकाली जा सकती है लेकिन दैनंदिन के अनौपचारिक संवाद में लोग सटीक व सही तरीके से भाषा का उपयोग करते हैं । तभी तो दुनिया चलती रहती है, बढ़ती रहती है ।

अंग्रेजी में अच्छे औपचारिक लेखन के लिए प्रसिद्ध पुस्तक हैं – The Elements of style by Strunk and White Style : Towards clarity and Grace by Williams. ऐसी पुस्तकों के निर्देश देखते ही देखते बेमानी होते जाते हैं ।

हिंदी के लिए भी मिल जाएगी । तो फिर निष्कर्ष क्या रहा ? आप कहेंगे – मैं हमेशा की तरह मध्य मार्ग की अनुशंसा करता हूं।

किसी भी लेखन को बेहतर बनाने के लिए एक सामान्य सलाह है । उसे लिखकर रख दो । कुछ दिनों या घंटों बाद पुनः पढ़ो । संपादित करो । इस प्रक्रिया को दोहराते जाओ । इस आलेख के साथ मैंने तीन बार ऐसा किया है । चार बार करूंगा तो और अच्छा बन पड़ेगा ।

सबसे अच्छा भाषा-पंडित कौन है । आप स्वयं या कोई आपका नजदीकी –  spouse या मित्र ।

10.0 हिंगलिश को अवॉइड करो

मेरे फ्रेंड्स सरप्राइज हो जाते हैं जब वह देखते हैं की भाषा बहता नीर की बात करते-करते मैं सडनली इंग्लिश को अपोज़ करने लगता हूं । उन्हें बहुत पेरडाक्सिकल लगता है । ये भी कोई बात हुई ? पब्लिक को जो इजी लगता है करने दो । आज का यूथ तो ऐसी ही लैंग्वेज लाइक करता है ।

मैं एग्री नहीं करता । मेरा थिंकिंग है कि हम लोग अपनी लैंग्वेज लूज कर रहे हैं । प्युर हिंदी ऐवरी बडी अंडरस्टैंड कर सकता है ?

जनरली मैं कान्सपिरेसी थ्योरीज में बिलीव नहीं करता हूं लेकिन समटाइम लगता है कि मेरे लेट फ्रेंड प्रभु जोशी करेक्ट थे, कि केपिटलिज्म और मार्केट फोर्सज हम लोगों की इंडियन आइडेंटिटी धीरे-धीरे खत्म करना चाहते है, लार्ड मैकाले ने 1830 में जो प्लान कंसीव किया था उसी को कंप्लीट करने में लगे है । किसी भी सोसाइटी से उसकी लैंग्वेज छीन लो, उसकी आइडेंटी को करप्ट कर दो, उसके मन और थॉट पर कब्जा कर लो, उन्हें मेंटली स्लेव बना दो।

प्रभु जोशी और मैं जब-जब इस विषय पर चर्चा करते थे तो बेहद दुख क्षोभ व निराशा में डूब जाते थे । आज हम में अनेक की न तो हिंदी अच्छी है और न अंग्रेजी । ऐसे लोग न घर के हैं न घाट के । हिंदी और अंग्रेजी दोनों में अच्छे बनिए । तीसरी चौथी भाषा सीखिए । लेकिन हिंगलिश से परहेज कीजिए । थोड़ा बहुत मिश्रण चलेगा । मेरे आलेख में भी है । आटे में नमक चाहिए, अच्छा तड़का भी मंजूर है । लेकिन हर दिन, हर समय मिक्स सलाद या खिचड़ी नहीं चलेगी । हम दोनों ने हमारे अखबारों को खूब बोला, खूब लिखा । दुर्भाग्य कि वे नहीं माने । आप सबसे अनुरोध है कि आप लोग भी बोलिए और अखबार के संपादकों को बार-बार लिखिए । मय उदाहरण और कतरनों के।

11.0 भाषाओं के साम्राज्य

भाषाओं के साम्राज्य, अनेक साम्राज्यों के साथ बनते और मिटते रहे हैं । राजनैतिक और सैनिक प्रभुत्व तथा भाषाई प्रभुत्व कभी साथ-साथ चलते हैं और कभी बेमेल हो जाते हैं ।

किस भाषा का साम्राज्य क्यों बड़ा बनता है ? क्यों कम या ज्यादा समय तक टिका रहता है । अनेक कारक है । कोई आसान फार्मूला नहीं है ।

शायद किसी देशकाल, सभ्यता, संस्कृति में वहां के बाशिंदों में कुछ खास बातें होती हों, कोई चित्ती या चरित्र होता हो ? उक्त भाषा का खुद का linguistic स्वरूप असर डाल सकता है । कुछ भाषाएँ और लिपियां सीखने सिखाने में आसान हो सकती है ।

भाषाओं के भौगोलिक विस्तार और संकुचन का इतिहास हमें बताता है कि भाषा सिर्फ एक इंसान के मन को नहीं साधती वरन पूरे समाज के मानस को साधती है।

यदि भाषा है जो हमें मानव बनाती है तो भाषाएं हैं जो हमें अति मानव बनती है । भाषा किसी समाज को सांस्कृतिक निरंतरता प्रदान करती है – भूत-वर्तमान-भविष्य को एक लड़ी में पिरोती है । भाषा किसी समाज का बैनर होती है । उसकी स्मृतियां की संरक्षक होती है ।

एक अरबी कहावत है – इंसान की कुब्बत उसकी अक्ल और जुबान से नापो ।

भाषाओं के फैलाव में सैनिक सफलताओं का योगदान निश्चय ही है लेकिन एक सीमा तक । अपवाद ज्यादा है । सुमेरियन सभ्यता की भाषाएँ शिक्षा, संस्कृति और कूटनीति द्वारा फैली । चीनी भाषा ने अपने आप को विदेशी प्रभावों से बचाकर रखा, लेकिन खोल में बंद रही । बाहर नहीं आई । संस्कृत ने अपने मधुर charms से पूरे एशिया को मंत्रमुग्ध व मोहबद्ध किया ।

यूनानी भाषा या ग्रीक का आत्म सम्मान यूरोप की आधुनिक भाषाओं का आधार बना । यूरोप के रोमन साम्राज्य की लैटिन को उत्तर की जेर्मेनिक जातियों की भाषाओं ने प्रतिस्थापित किया जिनमें प्रमुख रही अंग्रेजी ।

उत्तरी अफ्रीका में मिस्र देश की भाषा 3000 साल तक हावी रही लेकिन इस्लाम के आते ही अरबी भाषा द्वारा हटा दी गई । नीदरलैंड या हॉलैंड ने इंडोनेशिया 200 साल तक उपनिवेश बनाकर रखा, जितना कि इंग्लैंड ने भारत को । लेकिन इंडोनेशिया में डच भाषा नहीं स्थापित हुई जबकि भारत में अंग्रेजी हो गई ।

पूर्वी रोमन साम्राज्य के यूनान, तुर्की, (कन्स्तिनापोल) व सटे हुए भूमध्य सागरीय देश में लैटिन ने कोई प्रभाव नहीं छोड़ा लेकिन फ्रेंच, स्पेनिश और पोर्तुगीज इटालियन जैसी बेटियों दक्षिण-पश्चिमी यूरोप में टिक गई ।

अंग्रेजी का वर्चस्व आज से 100 साल, 500 साल या 1000 साल बाद कितना रहेगा, यह भविष्यवाणी कठिन है । जैसे बिजनेस कंपनियों में Merger and Acquisition होता है वैसे ही भाषाओं के साथ भी होता है । Migration या प्रवजन एक महत्वपूर्ण कारक है । उत्तरी भारत के भोजपुरी-भाषी गिरमिटियां मजदूरों ने मॉरीशस, साउथ अफ्रीका, फिजी, सूरीनाम में हिंदी को जीवित रखा । उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में अंग्रेजी माइग्रेशन द्वारा पहुंची । जबकि भारत में उसके असर को Diffusion कहेंगे या जहां मूल निवासियों ने विदेशी भाषा को सीखा, कारण चाहे जो रहे हो । एक वजह धर्मांतरण हो सकता है जैसा कि दक्षिण पूर्वी एशिया में संस्कृत (हिंदू) और पाली (बौद्ध) द्वारा हुआ था । व्यापार या Trade की भी भूमिका होती है । किसी भाषा के साथ कितनी इज्जत जुड़ी हुई है । उसका साहित्य व अन्य कलेवर कैसा है । उसके द्वारा उन्नति की संभावना कितनी है तथा वह भाषा नई टेक्नोलॉजी से कितने करीब से जुड़ी हुई है । ये भी गौर करने योग्य बातें हैं । प्रजनन दर और जनसंख्या का रोल बहुत बड़ा है।

11.1 विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाएँ

भाषा प्राथमिक भाषी कुल भाषी कितने देश
अंग्रेजी 37.3 करोड़ 145 करोड़ 10
चीनी (मेंडरिन) 92.9 करोड़ 112 करोड़ 2
हिंदी 35 करोड़ 60.2 करोड़ 5
स्पेनिश 47.5 करोड़ 55 करोड़ 21
फ्रेंच 8 करोड़ 27.5 करोड़ 29
आधुनिक अरबी शुन्य 27 करोड़ 15
बंगाली 24 करोड़ 27 करोड़ 2
रशियन 15.5 करोड़ 26 करोड़ 4
पुर्तगाली 23 करोड़ 25 करोड़ 2
उर्दू 7 करोड़ 23 करोड़ 2
भाषा इंडोनेशिया 4.5 करोड़ 20 करोड़ 2
जर्मन 7.5 करोड़ 13.5 करोड़ 4
जापानी 12 करोड़ 12 करोड़ 1
नाइजीरियन पिडगिन 50 लाख 12 करोड़ 1
मराठी 8 करोड़ 10 करोड़ 1
तेलुगु 8 करोड़ 9.5 करोड़ 1
तुर्किश 8 करोड़ 8.9 करोड़ 1
तमिल 8 करोड़ 8.6 करोड़ 2
केंतलिज चीन 8 करोड़ 8.5 करोड़ 1
वियतनामी 8 करोड़ 8.5 करोड़ 1

12.0 भाषाओं की विलुप्ति

भाषाओं का वंश चलता है जब तक कि नई संताने उसे बोलती रहे । किसी भाषा को यदि केवल वयस्क बोल रहे हैं और युवा, बच्चे या शिशु नहीं, समझ लो कि उस भाषा के दिन लद गए ।

दुनिया में लगभग 6000 भाषाएं हैं । इनमें लगभग 90% ऐसी है जो विलुप्ति के कगार पर है ।

जैसे स्पीशीज विलुप्त होती है वैसे ही भाषा में भी । केवल 500 भाषाएं ऐसी होंगी जिनके बोलने वालों की संख्या 1 लाख से अधिक हो । इन्ही के बचे रहने की उम्मीद है लेकिन गारंटी नहीं ।

भाषा कैसे मिटती है ? नरसंहार /Genocide द्वारा जैसा कि उत्तरी अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया में गोरे यूरोपियन उपनिवेशिकों ने किया था । जबरदस्ती अपनी सभ्यता, संस्कृति और भाषा थोप कर । जैसा कि चीन तिब्बत और सिंक्यांग में कर रहा है । जनसंख्या परिवर्तन द्वारा – पुनः चीन द्वारा हान जाति के लोगों की जनसंख्या तिब्बत व सिंक्यांग में बढ़ाये जाना । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बमबारी एक प्रकार की सांस्कृतिक नर्व गैस है जो भाषा को मारती है । जन्म दर कम होते जाना । प्रजनन द्वारा विलुप्ति को टालने के लिए अनेकों उपाय किए जाते हैं । राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना महत्वपूर्ण है । जैसा कि इसराइल ने हिबू के साथ किया । नई टेक्नोलॉजी यदि घातक है तो बचाने का काम भी कर सकती है । शिक्षण सामग्री, pedagogy, साहित्य, लोक व्यवहार, गीत, कठोपकथन की परंपराएं आदि को डिजिटल रूप में सहेज कर रख सकते हैं, कॉपी करके वितरित कर सकते हैं ।

जैसे प्रत्येक बायोलॉजिकल स्पीशीज को बचा पाना संभव नहीं वैसे ही भाषा को भी ।

जैसे एक स्पीशीज के विलुप्त होने से हमारी दुनिया गरीब होती है, इकोलॉजी बिगड़ती है वैसे ही भाषा के जाने के साथ एक संसार, एक संस्कृति चले जाते हैं । भाषाई विविधता हमें भाषाई अन्त:प्रज्ञा का बोध कराती है । एक भाषा का विलुप्त होना मानो नालंदा के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के एक खंड का जल जाना ।

कोई भी भाषा मानव की समेकित मेधा और सर्वोच्च उपलब्धि होती है । उतनी ही अनंत और दैवीय जितना कि कोई प्राणी । भाषा ही वह माध्यम है जिससे किसी भी सभ्यता का साहित्य, सोच-चिंतन, मान्यताएं, आस्था विश्वास, गीत संगीत अंतरित होते हैं ।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में भाषा विज्ञान की पूर्व प्राध्यापक मेरी मित्र सुश्री अन्विता अब्बी ने अंडमान निकोबार के वनवासियों की बोली का अध्ययन किया, उसे सहेजा । मैंने उनके Adventorous अनुभवों को सुना और किसी भाषा के अंतिम सोपानो की गाथा के दर्द को महसूस किया।

एक लघु टिप्पणी Endangered भाषाओं की राजनीति पर । इस क्षेत्र में जो लोग काम कर रहे हैं, भले लोग हैं, अच्छा काम कर रहे हैं । लेकिन एक चीज खटकती है । अनेक शोधकर्ता, NGOs, एक्टिविस्ट, हिंदी व अन्य भारतीय प्रांतीय भाषाओं को शोषक /oppressor के रूप में देखते हैं जो खतरे में पड़ी इन बोलियां का दमन कर रही है । मैं इस सोच से सहमत नहीं । इन लोगों को अंग्रेजी से कोई मुश्किल नहीं है, लेकिन हिंदी से है । इनके अनुसार भारत की मुख्य भाषा (जो संविधान की अनुसूची में वर्णित है) के बजाय 500 dialects को माना जाना चाहिए । यह टुकड़े-टुकड़े गैंग वालों की सोच है जब वे भारत की भाषाई विविधता को खूब जोर-शोर से बढ़ा चढ़ा कर पेश करते हैं । नियत साफ झलकती है । एकता के बजाय अनेकता पर ज्यादा जोर दो ।

13.0 भाषा — कम्प्यूटर — A.I. का भविष्य

पिछले 20 सालों में हमने अनेक विकास देखे है । Text to Speech — लिखित लेख को वाणी में बदलना Speech to Text — बोले गये शब्दों को लिखित में बदलना । एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना । एक लिपि को दूसरी लिपि में बदलना ।

शुरु शुरू में हम मशीन की हंसी उड़ते थे । पिछले दो-वर्षों में A.I. ने हमें चमत्कृत किया है । अब इस सम्भावना (या आशंका, आप जैसा सोचें, उस आधार पर) से इन्कार नहीं किया जा सकता कि शायद मशीन इन्सानी भाषा व सोच की बराबरी कर पाये । अभी भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जो मशीन की सीमाएं दर्शाते है । गूगल जेमिनी द्वारा नरेन्द्र मोदी के बारे पूछे गये एक प्रश्न का एकांगी उत्तर इसका सबूत है ।

13.1 Chat GPT

AI चमत्कारिक संभावनाओं पर हम खुश हो सकते हैं। अंततः बुद्धि या मेधा द्वारा ही हम आविष्कार करते हैं और समस्याओं को हल करते हैं। इसके विपरीत अनेक विचारक ए.आई. के खतरों के अंदेशे से दुबले हुए जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि “मशीन लर्निंग” हमारे विज्ञान, मारेलिटी और नैतिकता को विकृत कर देगी। ऐसा इसलिए कि “यांत्रिक सीख” मूलभूत रूप से भाषा और ज्ञान की गलत अवधारणा पर आधारित है।

चैट-जी.पी.टी. और उसके भाई बंधु कैसे काम करते हैं?

अरबो खरबो डाटा लीलते रहते हैं। सुपर-सुपर कंप्यूटरो की श्रंखलाओं द्वारा सागर मंथन जारी रहता है। उफन कर ऊपर आने वाले मक्खन में क्या होता है? नितांत मानवीय प्रतीत होने वाले वाक्य, पैराग्राफ, निबंध, उत्तर, समस्याओं के हल, विवादास्पद विषयों पर दो या अधिक मतों का तुलनात्मक प्रतिपादन, किसी कंप्यूटर एप्लीकेशन का नया कोड, कविता, संगीत रचना और भी न जाने क्या क्या?

इसके पीछे “सोच” नहीं है, “चिंतन” नहीं है। केवल गणित है। संभावनाओं का गणित। ऐसे-ऐसे शब्द इस इस क्रम में जुड़ते हैं, व्याकरण के नियमों का पालन करते हुए वाक्य और पैराग्राफ बनाते जाते हैं ।

क्या मानव जाति इस दहलीज पर आ खड़ी हुई है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि ए.आई. न केवल संख्यात्मक दृष्टि से बल्कि गुणात्मक दृष्टि से भी इंसान के दिमाग से आगे निकल जाएगा ।

स्मृति का भंडार विशाल होना बड़ी बात नहीं है। उत्तर ढूंढने की गति तेज होना बड़ी बात नहीं है। शतरंज के खेल में बड़े-बड़े ग्रैंडमास्टर्स को हरा देना बड़ी बात नहीं है ।

अनेक बड़ी बाते चैट जी.पी.टी. या ए.आई. द्वारा संभव नहीं है ।

उनके बारे में 90 से अधिक उम्र के विख्यात भाषा वैज्ञानिक नोअम चोम्स्की ने 8 मार्च 2023 को न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में कहा है कि इस तरह के एप्लीकेशंस की उपयोगिताएं सीमित रहेंगी। मानव मस्तिष्क और कृत्रिम बुद्धि की तुलना का समय अभी नहीं आया है ।

चैट जीपीटी एक राक्षस के समान ढेर सारे डेटा को निगलते निगलते उसमें से सांख्यिकी संभावनाओं के पैटर्न ढूंढता रहता है। यह एक यांत्रिक काम है। उसमें “दिमाग” नहीं लगता है। उसके पास “सोच” और “रचनात्मकता” नहीं है। “कहीं की ईट, कही का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा” जैसा हाल है ।

इसके विपरीत 2-3 वर्ष के एक शिशु का दिमाग बड़ी कुशलता के साथ न्यूनतम इनपुट के आधार पर आसपास बोली जाने वाली भाषा के व्याकरण को गढ़ता है जो संभावनाओं के गणित पर नहीं वरन लघु लघु तथा गंभीर सत्य परक ‘व्याख्याओं’ पर आधारित होता है ।

बौद्धिक विकास को यांत्रिक योग्यता से मत आंकिये ।

ए.आई. यह बता सकता है कि क्या है, क्या था, और क्या होगा अर्थात वर्णन और कुछ हद तक भविष्यवाणी। लेकिन यह नहीं बता सकता कि क्या नहीं है, क्या हो सकता है, और क्या नहीं हो सकता है। मशीन नहीं सोच सकती कि क्या होना चाहिए या नहीं होना चाहिए, क्यों होना चाहिए और क्यों नहीं होना चाहिए? असली बुद्धि की पहचान है सही और गलत या नैतिक और अनैतिक की परख और उस परख की व्याख्या ।

कल्पना कीजिए आपके हाथ में एक सेब(फल) है। आप मुट्ठी खोलते हैं और वह जमीन पर गिर जाता है। मशीन के शब्दों में ‘यदि’ आप हाथ खोलोगे तो सेब नीचे गिरेगा। क्या वह कह पाएगी “कोई भी वस्तु गिरेगी”? या  क्यों गिरेगी?  इसे सोचना कहते हैं। ए.आई. नियम या सिद्धांत नहीं परिभाषित कर सकती जिन्हें प्रयोगों की कसौटी पर कसा जा सके। मशीन को स्वयं की आलोचना करना और अपने आप में सुधार करना नहीं आता ।

शर्लाक होल्म्स, डॉक्टर वाटसन से कहते हैं-“जब आप ने समस्त असंभव उत्तरों को खारिज कर दिया हो तो जो शेष रह गया है, वह चाहे कितना ही असम्भाव्य प्रतीत हो, वही सत्य होता है”। चैट जीपीटी द्वारा इस तरह का लॉजिक संभव नहीं क्योंकि उनकी डिजाइन ही कुछ ऐसी है कि भले ही उनकी स्मृति असीमित हो लेकिन वे संभव असंभव या उचित और अनुचित का भेद करने में सक्षम नहीं है। चैट जीपीटी के उत्तर अनेक अवसरों पर सतही और दुविधा पूर्ण प्रतीत होते हैं ।

चूँकि चैट जीपीटी के पास नैतिकता या आदर्श की समझ नहीं है, इसलिए उसका कोड लिखने वाले प्रोग्रामर्स ने उस पर अनेक वर्जनाएं थोप दी है ।

मैंने पूछा फला फला पैगंबर या भगवान के बारे में कुछ व्यंग्यात्मक लिखकर बताइए। बार-बार उत्तर आया – “मेरा प्रोग्रामिंग इस तरह करा गया है कि मैं किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत ना करूं।”  चार्ली हेब्डू के कार्टून कार जरूर इस बात पर कार्टून बनाएंगे। तमाम योग्यताओं के बावजूद चैट जीपीटी की अन-नैतिकता और मोरल के प्रति निस्पृहता और असंगतता उसकी अनबुद्धि का घोतक है। मशीन के द्वारा रचनात्मक स्वतंत्रता और नैतिक संयम का महीन संतुलन साधना असंभव है ।

14.0 हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लिये पैरवी

* हस्ताक्षर मातृभाषा में कीजिये ।

* हिंग्लिश से परहेज कीजिये । बेहतर हिन्दी बोलिये ।

* हिन्दी में खूब पढ़िये । न केवल समाचार या सोशल मीडिया । वरन साहित्य, विज्ञान, सबकुछ । किताबें खरीदिये । भेंट की जिये ।

* पुस्तकालयों को बढ़ावा देने की मुहिम चलाइ‌ये ।

* Create Readers and listener’s club. पढ़ने और चर्चा करने वालों की नियमित गोष्ठियों की परम्परा बढ़ाइये ।

* हिन्दी में लिखने की आदत डालिये । पत्र, डायरी, यात्रावर्णन, कुछ चिन्तन, कुछ किस्से व अनुभव । आपस में साझा कीजिये ।

* भारत की कोई भाषा एक या अधिक, अतिरिक्त भाषा सीखिये । अधिक न सही, थोड़ी थोड़ी ही सीखिये । कुछ कुछ संस्कृत भी सीखिये ।

* रोमन के बजाय देवनागरी में लिखने की आदत बनाये रखिये ।

* शिक्षा का माध्यम हिन्दी रखने की पैरवी कीजिये । इस हेतु कलेवर बढ़ाने में योगदान दीजिये ।

* भारतीय भाषाओं के मध्य आपसी अनुवाद को बढ़ावा देने के लिये शासन व अन्य संस्थाओं से अनुरोध कीजिये ।

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Author profile
डॉ अपूर्व पौराणिक

Qualifications : M.D., DM (Neurology)

 

Speciality : Senior Neurologist Aphasiology

 

Position :  Director, Pauranik Academy of Medical Education, Indore

Ex-Professor of Neurology, M.G.M. Medical College, Indore

 

Some Achievements :

  • Parke Davis Award for Epilepsy Services, 1994 (US $ 1000)
  • International League Against Epilepsy Grant for Epilepsy Education, 1994-1996 (US $ 6000)
  • Rotary International Grant for Epilepsy, 1995 (US $ 10,000)
  • Member Public Education Commission International Bureau of Epilepsy, 1994-1997
  • Visiting Teacher, Neurolinguistics, Osmania University, Hyderabad, 1997
  • Advisor, Palatucci Advocacy & Leadership Forum, American Academy of Neurology, 2006
  • Recognized as ‘Entrepreneur Neurologist’, World Federation of Neurology, Newsletter
  • Publications (50) & presentations (200) in national & international forums
  • Charak Award: Indian Medical Association

 

Main Passions and Missions

  • Teaching Neurology from Grass-root to post-doctoral levels : 48 years.
  • Public Health Education and Patient Education in Hindi about Neurology and other medical conditions
  • Advocacy for patients, caregivers and the subject of neurology
  • Rehabilitation of persons disabled due to neurological diseases.
  • Initiation and Nurturing of Self Help Groups (Patient Support Group) dedicated to different neurological diseases.
  • Promotion of inclusion of Humanities in Medical Education.
  • Avid reader and popular public speaker on wide range of subjects.
  • Hindi Author – Clinical Tales, Travelogues, Essays.
  • Fitness Enthusiast – Regular Runner 10 km in Marathon
  • Medical Research – Aphasia (Disorders of Speech and Language due to brain stroke).