अपनी भाषा अपना विज्ञान: लिपि का भाषा विज्ञान

अपनी भाषा अपना विज्ञान: लिपि का भाषा विज्ञान

अपनी भाषा अपना विज्ञान: लिपि का भाषा विज्ञान

अपनी भाषा अपना विज्ञान: लिपि का भाषा विज्ञान
(चित्र – सुकरात)

प्राचीन यूनान देश(Greece) में महान विद्वान दार्शनिक सुकरात(Socrates) बहुत परेशान रहने लगे थे। अपने परम प्रिय बुद्धिमान शिष्य प्लेटो से कहते थे –  “यह क्या हो रहा है? लोग कौन सी नई विद्या सीख रहे हैं जिसे लिखना कहते हैं? अजीब से आड़े तिरछे चिन्हों को रटते हैं, उन्हें याद करते हैं और पढ़ते हैं। मुझे पसंद नहीं है। ज्ञान और विचार तो मन मस्तिष्क में सहेज कर रखने की चीज है और उपयुक्त अवसर पर सुपात्र के साथ बोलकर साझा करने के लिए है। लिखने और पढ़ने द्वारा मनुष्य अपने दिमाग की क्षमताओं को कुंद कर लेगा। लिखित शब्दों पर निर्भर हो जाएगा। उसकी व्यक्तिक स्वतंत्रता कम हो जाएगी। वह गुलाम हो जाएगा”।

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(चित्र – प्लेटो)

प्लेटो नई पीढ़ी के थे।  नए को आत्मसात की प्रवृत्ति उनमें अधिक थी। अपने गुरु का सम्मान करते थे। खुल कर विरोध नहीं करते थे।  अन्दर ही अन्दर भाषा के लिखित स्वरूप का विकास और उपयोगिता देखकर मुग्ध और उत्साहित थे। चुपके चुपके गुरु सुकरात के सुविचारों को लिखते रहते थे जो बाद की पीढ़ियों के लिए धरोहर बन गए।

वह युग वाचिक परंपरा का था। भारत में वेद और उपनिषद रचे जा रहे थे जिन्हें विशिष्ट उच्चारण शैली गत शुद्धता के साथ बोलकर पढ़ाया जाता था।

लिपि का आविर्भाव धीरे-धीरे हुआ। स्वतंत्र रूप से अनेक सभ्यताओं में कुछ शताब्दियों के अंतराल से लिखने की अनेक प्रणालियों का विकास हुआ। प्राचीन बेबीलोन (वर्तमान इराक), सुमेरियन, मिश्र, सिंधु घाटी, चीन आदि अनेक संस्कृतियों में लिखने पढ़ने की विधियां और प्रणालियां विकसित हुई। मानव जाति के इतिहास में यह एक महान क्रांति थी।

वाचिक भाषा सिखाना नहीं पड़ती। अपने आप आ जाती है। बच्चा अपने परिवार में, पास पड़ोस में, स्कूल में जो सुनता और देखता है उसी से भाषा सीखता जाता है।

शुरू में ध्वनियों की पहचान होती है। फिर दो या तीन इकाइयों के संकुल समझ में आने लगते हैं कि इन्हें प्रायः एक साथ बोला जाता है। इसे  Phonological Awareness (ध्वन्यात्मकता बोध) कहते है। धीरे-धीरे ये ध्वनि समूह अपने अर्थ ग्रहण करते लगते हैं। Lexicon (शब्द भंडार) और  Semantics(अर्थ विज्ञान) का खजाना तेजी से बढ़ता है।

ध्वनि समूहों या ध्वनि संकुलों ओं की लंबाई बढ़ने लगती है। फिर भी शिशु का मस्तिष्क लंबे-लंबे उद्गार को याद रखना सीखता है। इन्हें वाक्य कहते हैं।

वाक्यों में शब्दों को किस क्रम में पिरोया जावेगा तथा विभिन्न परिस्थितियों में शब्दों में क्या परिवर्तन होंगे यह सारे नियम जिन्हें व्याकरण कहते हैं 3 वर्ष की आयु का जीनियस बच्चा अपने आप सीख लेता है। उसे पढ़ाना नहीं पड़ता।

प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक नोअम चाम्सकी ने 1950-1960 के दशकों में  Generative Grammar (जननात्मक व्याकरण), Deep structure (गहरी संरचना), Surface Structure (सतह की संरचना) जैसी अवधारणाओं को प्रस्तुत करके एक विचार क्रांति ला दी थी।

मानव मस्तिष्क जन्म से हार्डवायर्ड होकर आता है भाषाएं सीखने के लिए। दिमाग की हार्ड डिस्क में सर्किट पहले से उकेरे हुए हैं(न्यूरॉन परिपथों के रूप में)उन पर “कोडिंग” करने की जरूरत है।

परिवेश में बोली गई भाषा को सुन सुनकर यह कोडिंग अपने आप हो जाता है। लेकिन “पढ़ना और लिखना” ऑटोमेटिक नहीं है (अपने आप नहीं आता)।

ध्वनि वैज्ञानिक ढांचा (प्रणाली) फोनोलाजीकल मॉडल

भाषा के स्वरूप को समझने के लिये शोधकर्ताओं ने अनेक स्तरों की परिकल्पना की है। इन्हें हम भाषा के खण्ड या अंग या सोपान या इकाईयाँ कह सकते हैं । ये सब आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए है । एक के बाद एक पायदानें हैं । श्रृंखला के ऊपरी स्तर पर हैं – अर्थ विज्ञान (सिमेन्टिक्स, शब्द कोश (Lexicon) व शब्द-अर्थ), व्याकरण (सिन्टेक्स – वाक्य विन्यास के नियम) और कथोपकथन या संवाद (डिस्कोर्स – एक से अधिक वाक्यों व संवाद का सुसंगत गठन) । भाषा – संगठन – प्रणाली के निचले स्तर पर है – ध्वनि संबंधि खण्ड (Phonology) ।

किसी भी भाषा के बोले सुने गये – ध्वन्यात्मक स्वरूप का गठन ध्वनिम नामक ईकाईयों की एक नियत संख्या से होता है । कुल जमा 44 फोनिम (ध्वनिम) ईकाईयाँ अंग्रेजी भाषा के लाखों शब्दों के लिये ईंट गारा बनाती हैं। हिन्दी में यह संख्या 48 है

उदाहरण के लिये अंग्रेजी शब्द CAT – “केट” बिल्ली तीन ध्वनिम से बना है – क.ए.ट । इसके पहले कि किसी शब्द को पहचाना जाये, समझा जाये, स्मृति में जमा किया जाये और मौका पड़ने पर पुनः स्मृति से निकाल कर फिर से उच्चारित किया जावे, दिमाग का फोनोलाजिकल माडल ध्वनिजन्य प्रणाली) उसे तोड़ता है, विच्छेदित करता है, ध्वनिम ईकाईयों में बांट कर जमाता है । बोलचाल के समय यह भाषागत प्रक्रिया स्वत: होती है। कुछ करना नहीं पड़ता । चेतन स्तर पर सोच कर प्रयत्न नहीं करना पड़ता । अवचेतन या पूर्व चेतन स्तर पर अपने आप होता है । स्टीवेन पिंकर जैसे विद्वानों के अनुसार भाषागत क्षमता अन्तः प्रज्ञा से आती है । जन्मजात आती है । सीखना नहीं पड़ती। केवल उस वातावरण में पलते बढ़ते रहो। संवाद करने की जरूरत है । फोनोलाजिकल मॉडल हमें अपने माता-पिता से जीन्स में मिलता है जो बोलने वाले के दिमाग में ध्वनिम ईकाईयो को जोड़ कर (संश्लेषित कर) शब्द या वाक्य का रूप देता है तथा सुनने वाले के दिमाग में उस शब्द या वाक्य की आवाज के टुकड़े-टुकड़े कर के पुनः ध्वनिम ईकाईयों के स्तर पर पहचान करने की कोशिश करता है । हमारी वाक्-प्रणाली कण्ठ (लेरिंग्स), तालू, जीभ व होठों की मांस पेशियों या उन्हे संचालित करनेवाली नाड़ियों (नर्व) व मस्तिष्क के कुछ भागों पर निर्भर है । शब्द का उच्चारण करते समय यह वाक्-प्रणाली अलग-अलग ध्वनि- ईकाईयों को आपस में चिपकाती हैं, दबाती हैं मिलाती हैं।

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(चित्र: पठन कौशल का पेरामिड)

एक से अधिक ध्वनिम (फोनिम) में निहित जानकारी गूंध कर शब्द रूपी नयी ईकाई में उभरकर सामने आती हैं । बोली गई भाषा के इस खण्ड-खण्ड रूपी गठन का हमें ऊपर से पता नहीं चलता । इसलिये भाषा निरन्तर धारा प्रवाह प्रतीत होती है । बोली गई आवाज को फोनोग्राफ नामक मशीन के पर्दे पर रिकार्ड करते समय ‘केट’ या ‘रोटी’ एकल विस्फोट जैसे दिखते हैं केवल हमारा मस्तिष्क उसमें डूबी ध्वनिम ईकाईयों को चीन्ह पाता है।

 इन्हीं ध्वनीम (फोनिम) को मस्तिष्क में संचालित करने की प्रणाली डिस्लेक्सिया में गड़बड़ा जाती है। पढने और लिखने की प्रक्रिया, सुनने और बोलने की परछाई है । उसे हासिल करने के लिये प्रयत्न करना पड़ता है । पढ़ना एक अविष्कार है : जन्मजात, स्वगत क्षमता नहीं है । पढ़ते समय हमारा दिमाग लिपि के विभिन्न अक्षरों / संकेतों को पहचान कर उनका ध्वनिम (फोनिम) से मिलान करता है । ये अक्षर या हिज्जे, लिपि की ईकाई हैं जो कान के बजाय आंखों के रास्ते दिमाग में प्रवेश करते हैं । इन इकाईयों को ‘ग्राफिम’ कहते हैं। हिन्दी शब्द ‘बिम्ब’ या ‘विम्बिम’ हो सकता है। पढ़ना सीखना शुरू करते समय, कोई नवसाक्षर किसी बोले गये शब्द के बारे में मस्तिष्क में पहले से संग्रहित ध्वनिजनित प्रणाली (फोनोलाजिकल सिस्टम) को सक्रीय करता है, उसे जगाता है, खोलता है। फिर इस बात को महसूस करता है कि आंखों द्वारा देखे जा रहे अक्षरों/हिज्जों/स्पेलिग की श्रृंखला का ध्वनिप्रणाली से गहरा रिश्ता है । बच्चा जब पढ़ना सीखता है तब ठीक यही सब होता है ।

लिपियाँ अनेक प्रकार की होती हैं । रोमन लिपि में अधिकांश यूरोपीय भाषाएं तथा कुछ अफ्रीकी व दक्षिणपूर्वी एशियाई भाषाएं लिखी जाती हैं । सिरिलिक लिपि रूसी भाषा के लिये है । अरबी लिपि अरेबिक, फारसी, पश्तो, उर्दू, सिन्धी, आदि भाषाओं के लिये प्रयुक्त होती है। इन सभी में अक्षर का नाम अलग होता है तथा उस पर आधारित ध्वनि या ध्वनियाँ अलग होती हैं । अनेक बार एक से अधिक अक्षरों के योग से (जो व्यंजन या स्वर, कुछ भी हो सकते हैं) कोई खास ध्वनि का उल्लेख होता है ।

लिपियों के प्रकार

 

 

Alphabetic
अल्फ़ाबेटिक
अंग्रेजी, जर्मन, उर्दू Grapheme
(लिखित चिन्ह) और  Phoneme (फोनिम) का सम्बन्ध
Syllabic जापानी Grapheme और उच्चारित
Syllable (व्यंजन + स्वर का संकुल) का सम्बन्ध
Logographic
लोगोग्राफिक
चीनी चित्र – लिपि – जटिल डिजाईन का सम्बन्ध एक सिलेबल या एक शब्द या शब्द संकुल से
Alpha-Syllabary देवनागरी अल्फाबेटिक तथा सिलेबिक लिपियों के मिले जुले गुण

जैसे अक्षर चिन्ह C का नाम है सी, उसके उपयोग से शब्दों में व्यक्त होने वाली ध्वनियाँ क, स या च से हो सकती हैं I CH का सम्बन्ध भी च से है जबकि ‘छ’ ध्वनि के लिये ‘CHH’ तीन अक्षर चिन्हों का उपयोग करना पड़ता है।

हिन्दी व अन्य भारोपीय भाषाओं तथा द्रविड़ मूल की भारतीय भाषाओं में अक्षर चिन्ह का जो नाम होता है वही उसकी ध्वनि भी होती है। किसी संवाद में वह अक्षर कहां आया है तथा उसके आगे पीछे कौन से अक्षर है इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। चिन्ह ‘फ’ का नाम ‘फ’ और ध्वनि भी ‘फ’। फोनिम व ग्राफीम (बिम्ब) के बीच इस सीधे रिश्ते वापी लिपियों को पारदर्शी लिपि कहते हैं । अंग्रेजी भाषा के लिये प्रयुक्त रोमन लिपि कतई पारदर्शी नहीं है। उसे अपारदर्शी (अंग्रेजी में OPAQUE) कहते हैं या यही स्थिति उर्दू की है।

भारतीय लिपियों के अक्षरों का क्रम अनगढ़ या बेतरतीब नहीं है । उस क्रम का वैज्ञानिक आधार है । पहले स्वर है, बाद में व्यंजन व अन्त में विशिष्ट संयुक्त ध्वनियाँ । स्वर व व्यंजनों का क्रम वाक्-प्रणाली में उनके उद्गम स्थल व उद्गम प्रक्रिया पर आधारित है यह काम भारत में संस्कृत भाषा से शुरु हुआ है और पाणिनी के आविर्भाव से पहले हो चुका था।

क्या ध्वनि जनित प्रणाली के बिना भी पढना सम्भव है?

फोनोलाजिकल प्रणाली को बगल में छोड़ कर (बायपास करके) सीधे “दृष्टि बिम्ब प्रणाली” द्वारा भी थोड़ा बहुत पढ़ा जा सकता है । अनेक शब्द एक चित्र के रूप में दिमाग को याद रहते हैं । आँखों द्वारा देखे जाने पर उनकी स्मृति जाग उठती है और सीधे मस्तिष्क के उस भाग से सम्बन्ध स्थापित करती है जहां शब्दों के अर्थ संग्रहित रहते हैं ।चीनी लिपि इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। शब्द की ध्वनि पर गौर नहीं किया जाता है । अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन तथा उर्दू जैसी अनियमित या अपारदर्शी लिपियों में बहुत सारे शब्दों की स्पेलिंग अजीब जोती है – जैसे though -(दो), Write राईट, knight नाईट, इन्हें अपवाद – शब्द या अनियमित शब्द कहते हैं । ग्राफीम तथा फोनिम के आपसी सम्बन्धों को दर्शाने वाले नियम इन शब्दों पर लागू नहीं होते । इन्हें अलग से रट कर याद करना पड़ता है । ये शब्द ध्वनि प्रणाली के बजाय दृष्टि प्रणाली द्वारा सीधे अर्थ -संग्रह तक पहुंचते हैं । हिन्दी के देवनागरी लिपि चूंकि पूरी तरह पारदर्शी है इसलिये उसमें अपवाद शब्द या अनियमित शब्द नहीं होते । पारदर्शी लिपियों में ध्वनिजनित तथा दृष्टिजनित प्रणालियों के तुलनात्मक योगदान पर शोध अभी होना है।

 देवनागरी लिपि में कौन-कौन सी भाषाएं लिखी जाती है। संस्कृत, हिंदी, नेपाली, मराठी, कोंकणी। अनेक बोलियां जिनकी अपनी कोई लिपि नहीं होती, देवनागरी में लिखी जाती है। उर्दू की अपनी लिपि है(अरबी फ़ारसी) लेकिन उसे समझने वाले करोड़ों भारतीय उसे देवनागरी में पढ़ते हैं। बड़े शहरों में रहने वाले अभिजात्य वर्ग के अनेक अंग्रेजीदां लोग हिंदी को रोमन लिपि में पढ़ते लिखते हैं। बॉलीवुड फिल्मों के अनेक अभिनेता, अभिनेत्री के हिंदी संवाद रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। संसद में राहुल गांधी के हाथों में रखे एक पर्चे के फोटो की चर्चा हुई थी, जिसे जूम करके देखने पर पता चलता था कि उन्होंने अपने नोट्स रोमानागरी (रोमनीकृत हिंदी) में लिखे हैं?

क्या यह गलत है? क्या ऐसा नहीं होना चाहिए? हम अपनी भाषा खोते जा रहे हैं। लिपि किसी भाषा की आत्मा और शरीर दोनों होती है। यह शर्मनाक है। हमें भारतीय लिपियों को बचाने की मुहिम चलाना चाहिए। वरना आने वाली पीढ़ियां इस सभ्यता संस्कृति से अधिक विमुख होती चली जाएंगी। कहते हैं कि भाषा और लिपि का लोगों के सोच व्यवहार पर असर पड़ता है।

ऐसा मैं सोचता हूं।

लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है।

जैसे भाषा कोई कूप जल, कुए का पानी नहीं वरन बहता नीर है। वैसे ही लिपियां और भाषाओं से उनका संबंध भी परिवर्तनशील है।

विभिन्न देशों और कालों में ऐसा हुआ है। मराठी भाषा पहले मोड़ी लिपि में लिखते थे। लोकमान्य तिलक की पहल पर उसने देवनागरी अपना ली। नई पीढ़ी के सिंधी लेखक फारसी के बजाय देवनागरी में लिखते हैं। पुरानी पीढ़ी वाले दुखी होते रहते हैं। तुर्की में खलीफा के शासन की समाप्ति पर जब कमाल अतातुर्क ने राज्य संभाला तो पुरानी अरबी लिपि की जगह रोमन को स्थापित किया। मलय और ‘भाषा इंडोनेशिया’ बड़ी सफलता पूर्वक रोमन लिपि में पढ़ी और लिखी जाती है।

रोमन लिपि और देवनागरी लिपि पढ़ते समय मस्तिष्क में क्या क्रियाएं होती है इस बारे में मानेसर, हरियाणा स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर(NBRC) की श्रीमती नंदनी चटर्जी सिंह ने महत्वपूर्ण शोध किया है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वैज्ञानिक दृष्टि से देवनागरी लिपि उत्तम है। जैसा लिखते हैं वैसा ही बोलते हैं। सभी स्वर और व्यंजनों का क्रम इस बात से निर्धारित होता है कि उनका उच्चारण कहां से होता है –  कंठ, नासिका, तालु, गाल, जबड़ा, दांत, जीभ और होट।

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(चित्र – नंदिनी चटर्जी सिंह)
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(चित्र: हिंदी शब्द पढ़ते समय फंक्शनल MRI द्वारा मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों की सक्रियता का आंकलन)

लेकिन देवनागरी के साथ समस्याएं भी है। टाइपिंग की दृष्टि से कठिन है। प्रति मिनट कम शब्द लिखे जाते हैं। अक्षर विन्यास जटिल है। हलन्त, अर्धव्यंजन, संयुक्त अक्षर आदि के लिए प्रथक चिन्ह है। चिन्ह  विन्यास एक रेखीय(Linear) नहीं है। मात्राएं कभी आगे, पीछे, नीचे या ऊपर लगती है।

नंदिनी ने अनेक हिंदी पाठकों को M.R.I. मशीन में लिटाया और उन्हें बहुत सारे हिंदी शब्द एक के बाद एक पढ़ने को कहा। फंक्शनल M.R.I. मशीन द्वारा मिनट मिनट के अंतराल पर यह पता लगाया गया कि फलां फलां शब्द पढ़ते समय मस्तिष्क के कौन कौन से इलाके अधिक या कम सक्रियता प्रदर्शित कर रहे थे।

चूँकि देवनागरी लिपि में अल्फाबेटिक तथा सिलेबिक दोनों प्रकार की लिपियों की खूबियों का समावेश है, इसलिए मस्तिष्क में वे समस्त क्षेत्र जगमगा उठे जो उक्त प्रकार की अन्य लिपियों को पढ़ते समय ऐसा करते पाए गए हैं। N.B.R.C. की शोध में यह भी पाया गया कि देवनागरी के वे शब्द जो दृश्य रूप से जटिल थे तथा जिनमें स्वरों मात्राएं आगे, पीछे, ऊपर, नीचे लगती है,  M.R.I. में मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों के वृहत्तर इलाकों को उत्तेजित कर रहे थे। इस शोध का उल्लेख मीडिया में इस शीर्षक के साथ हुआ था कि अंग्रेजी की तुलना में हिंदी पढ़ते समय दिमाग का अधिक सक्रिय उपयोग होता है, जो शायद अच्छी बात है। एनबीआरसी में इस बात पर शोध नहीं हुआ कि हिंदी को रोमन लिपि में पढ़ने से दिमाग में क्या-क्या क्रियाएं होती है। हालांकि भारतीय मूल की अमेरिकी वैज्ञानिक यासमीन ने एक शोध में बताया कि हिंदी शब्दों को रोमन लिपि में पढ़ने की आदत पड़ जाने पर अंग्रेजी शब्दों को पढ़ने पर क्या असर पड़ता है। मैंने यासमीन से पूछा है कि ऐसे लोगों में हिंदी पढ़ने की क्षमता पर क्या असर पड़ता है इसका भी अध्ययन करो। मुझे डर है कि रोमन लिपि में हिंदी पढ़ने वालों की देवनागरी का ह्रास जरूर होता होगा।

मेरे एक मित्र ने मुझे समझाया – “अपूर्व, दुःख मत मनाओ! जो होता है होगा। परिवर्तन जीवन का नियम है। “ मैंने कहा  – “मैं जानता हूँ, फिर अपनी भाषा, अपनी लिपि को बढ़ावा देने के संघर्ष में मै पीछे नहीं हट सकता। यही मेरी नियति है ।”

Source :
1. Singh NC, Rao C. Reading in Devanagari: Insights from functional neuroimaging.
Indian Journal of Radiology and Imaging. 2014 Feb;24(01):44-50.

2. Singh A, Wang M, Faroqi-Shah Y. The influence of romanizing a non-alphabetic L1 on L2 reading: the case of Hindi-English visual word recognition. Reading and Writing. 2022 Jun;35(6):1475-96.

Author profile
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डॉ अपूर्व पौराणिक

Qualifications : M.D., DM (Neurology)

 

Speciality : Senior Neurologist Aphasiology

 

Position :  Director, Pauranik Academy of Medical Education, Indore

Ex-Professor of Neurology, M.G.M. Medical College, Indore

 

Some Achievements :

  • Parke Davis Award for Epilepsy Services, 1994 (US $ 1000)
  • International League Against Epilepsy Grant for Epilepsy Education, 1994-1996 (US $ 6000)
  • Rotary International Grant for Epilepsy, 1995 (US $ 10,000)
  • Member Public Education Commission International Bureau of Epilepsy, 1994-1997
  • Visiting Teacher, Neurolinguistics, Osmania University, Hyderabad, 1997
  • Advisor, Palatucci Advocacy & Leadership Forum, American Academy of Neurology, 2006
  • Recognized as ‘Entrepreneur Neurologist’, World Federation of Neurology, Newsletter
  • Publications (50) & presentations (200) in national & international forums
  • Charak Award: Indian Medical Association

 

Main Passions and Missions

  • Teaching Neurology from Grass-root to post-doctoral levels : 48 years.
  • Public Health Education and Patient Education in Hindi about Neurology and other medical conditions
  • Advocacy for patients, caregivers and the subject of neurology
  • Rehabilitation of persons disabled due to neurological diseases.
  • Initiation and Nurturing of Self Help Groups (Patient Support Group) dedicated to different neurological diseases.
  • Promotion of inclusion of Humanities in Medical Education.
  • Avid reader and popular public speaker on wide range of subjects.
  • Hindi Author – Clinical Tales, Travelogues, Essays.
  • Fitness Enthusiast – Regular Runner 10 km in Marathon
  • Medical Research – Aphasia (Disorders of Speech and Language due to brain stroke).