अपनी भाषा अपना विज्ञान: इतिहास, धर्म व कला के आईने में मिर्गी
जब हम विज्ञान की विभिन्न शाखाओं और विषयों के विस्तार में जाते है तो एक अनूठा पहलू प्राय: उपेक्षित रह जाता है –
विज्ञान का इतिहास।
इतिहास अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण संकाय है। इतिहास के अपने खुद के बहुत सारे अध्याय होते हैं।
विज्ञान का इतिहास उनमे बहुत महत्वपूर्ण हैं।
किसी भी वैज्ञानिक विषय का अछानुतन ज्ञान होना जरूरी है। आज की वर्तमान स्थिति तक मानव जाति कैसे पहुची? शुरू शुरू में क्या मान्यताएं थी ? कैसे कैसे परिवर्तन, संशोधन और विकास हुए? इस तरह की कहानियां अत्यन्त रोचक व ज्ञान वर्धक होती हैं। वर्तमान सिद्धान्तों को बेहतर तरीके से समझने के लिये उस मार्ग सिंहावलोकन उपयोगी होती हैं जिस पर चल कर हम आज यहां तक पहुचे हैं।
‘अपनी भाषा अपना विज्ञान’ के कुछ अंको मे, मैं विज्ञान के ऐतिहासिक पहलुओं पर भी चर्चा करूंगा। निम्न आलेख में मैंने एक न्यूरोलॉजिकल रोग ‘मिर्गी’ को आधार बता कर मनुष्य की सोच की विकास यात्रा पर विहंगम दृष्टि डालने का प्रयास किया हैं।
अपने नाटकीय स्वरूप के कारण मिर्गी, मानव सभ्यता की ज्ञात सबसे पुरानी बीमारियों में से एक रही है। अनिश्चितता के कारण इसके चारों ओर सदैव रहस्य का आवरण चढ़ा रहता है। स्वयं पर नियंत्रण खो देना एक भयावह तथा न समझ आने वाली कल्पना है। अनेक अवसरों पर आत्मनियंत्रण का ह्रास आंशिक होता है, थोड़ी चेतनता व अहसास, बना रहता है। ऐसे में घटित होने वाली हरकतें व अनुभूतियां किसी अलौकिक सत्ता के होने का इशारा करती हैं। मिर्गी की वैज्ञानिक समझ विकसित हुए मुश्किल से एक शताब्दी हुई है। उसके पहले इन्सान की भोली बुद्धि ने न जाने क्या-क्या व्याख्याएं गढ़ ली थीं। लिखित भाषा में मिर्गी शब्द का उल्लेख शायद सबसे पहले प्राचीन मिस्र देश के भोज पत्रों पर मिलता है। इन्हें “पेपीरस” कहते हैं । शब्द का रोमन लिपि में रूपान्तरण है nsji दाहिनी ओर की मानवाकृति सम्भवतः इंगित करती है कि एक प्रेतात्मा मिर्गी से पीड़ित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाती है।
चित्र : पुरातन मिस्त्र देश के भोजपत्रो में “मिर्गी” शब्द का प्रथम लिखित उल्लेख
ऊपरी शक्तियों के अनेक नाम होते हैं – हवा, दैवीय प्रकोप, प्रेतात्मा, चुड़ैल, शैतान। ये शक्तियां भली भी हो सकती हैं, बुरी भी। उसी आधार पर मिर्गी के मरीज को पूजा जा सकता है। उसे देवता का प्रतिनिधि माना जा सकता है। या उससे घृणा की जा सकती है, दुत्कारा जा सकता है। भारत में आज भी अनेक स्त्रियों या पुरुषों को देवी आती है। उस दौरान व्यक्ति की कुछ हरकतें मिर्गी से मेल खाती हैं। परन्तु वास्तव में उसका मिर्गी से कोई सम्बन्ध नहीं। गहन धार्मिक आस्थाओं के कारण संवेदनशील मन विशिष्ट व्यवहार करने लगता है। शायद यह जान बूझकर नहीं किया जाता । अवचेतन मन (सबकान्शियस Subconsious) से अनजाने में होता है। लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं, पूजा करते हैं। व्यक्ति के मन की अतृप्त भावनाएं पोषित होती हैं। समाज में प्रतिष्ठा व मान्यता मिलती है । तनाव से पलायन का अस्थायी मार्ग सूझता है। यह एक प्रकार का सार्वजनिक हिस्टीरिया है जिसे सांस्कृतिक मान्यता मिली हुई है। विशेष त्योहार या मेले के अवसर पर अधिक होता है। अनेक व्यक्तियों को सामूहिक होता है। झुण्ड का झुण्ड झूमता है, डोलता है, झटके लेता है। इन सबका मिर्गी से केवल ऊपरी साम्य है। परन्तु उसी साम्य की पृष्ठभूमि में हम समझ सकते हैं कि क्यों दकियानूसी दिमागों में यह धारणा इतने गहरी बैठ गई कि मिर्गी भी दैवीय शक्ति का प्रभाव है। ऐसा सिर्फ एशिया या अफ्रीका में नहीं देखा जाता। यूरोप, अमेरिका सभी महाद्वीपों में, समस्त कालों में यही सोच हावी रहा है कि मिर्गी जैसी अवस्था शरीरके भीतर से अपने आप पैदा नहीं हो सकती। कोई है जो बाहर से कठपुतली के धागों को संचालित करता है।
उक्त विचारधारा की विपरीत दिशा से, तार्किक बुद्धि का इतिहास भी पुराना है। ईसा से अनेक शताब्दियों पूर्व महान भारतीय चिकित्सक चरक ने अपनी संहिता में अपस्मार (मिर्गी) का वस्तुपरक (Objective) ढंग से वर्णन किया। उसे शारीरिक बीमारियों के समान माना। अनेक कारणों की सूची बताई। औषधियों द्वारा उपचार सुझाया हालांकि साथ-साथ ही दैवीय शक्ति वाली धारणा का भी उल्लेख कर दिया । ईसा से कुछ शताब्दी पूर्व, यूनान के महान चिकित्सक हिप्पोक्रेटीज ने कहा कि “मिर्गी दैवीय बीमारी नहीं है। अन्य रोगों के समान उसके भी शारीरिक कारण हैं।” चूंकि तार्किक बुद्धि या विज्ञान किसी घटना की ठीक-ठीक व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं, महज इसलिये यह स्वीकार कर लेना कि “जरूर कोई शक्ति है जो सब करवाती है” एक प्रकार का बौद्धिक पलायन है। हम चरक और हिप्पोक्रेटीज को नमन करते हैं कि उन्होंने उस युग में वह साहस व वैचारिक दृढ़ता दिखाई जिस पर आज भी अनेक तथाकथितबुद्धिजीवी डिआग जाते हैं।
अलोकिक रहस्यवाद से विज्ञानपरक तर्कवाद की संघर्ष स्थली मानव का मस्तिष्क है। विचारों की इस विकास यात्रा ने अनेक रोचक मोड़ व उतार-चढ़ाव देखे हैं। मिर्गी के बहाने इस इतिहास का अध्ययन मजेदार व उपयोगी है। यूनानी पुराण कथाओं में डेल्फी का मन्दिर प्रसिद्ध था। वहां पुजारिनें आसन पर बैठ कर तंद्रा में चली जाती थी फिर कुछ-कुछ बकती थी। जिसके आधार पर भविष्यवाणी कल्पित करते थे। राजा दक्ष के यज्ञ को नष्ट करते समय अनेक बीमारियों ने मनुष्यों को प्रभावित किया था। अपस्मार (मिर्ची) उनमें से एक थी। मध्य एशिया तीन प्रमुख धर्मों की जन्म स्थली रहा। ओल्ड व न्यू टेस्टामेण्ट में अनेक अवसरों पर मिर्गी का उल्लेख आता है। उसे पवित्र बीमारी कहा गया क्योंकि वह ईश्वर प्रदत्त है। बाइबिल में उद्धरण आते हैं कि ईसामसीह ने मिर्गी रोगियों का उद्धार किया। “प्रभु मेरे बालक पर कृपा करो उसे मिग्री है। वह बहुत पीड़ा भोगता है। कभी वह आग में गिर जाता है तो कभी पानी मे ।” (मेणू १७:१५) विज्ञान व धर्मशास्त्र के अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि पैगम्बरों को प्राप्त होने वाला “ज्ञान” “दिव्य दृष्टि” “अलोकिक अनुभूति,” आदि मिर्गी के कारण होना सम्भावित है। ऐसे मरीज हर काल में यदा कदा देखे सुने जाते हैं जिन्हें मिलती-जुलती अनुभूति होती है। प्रसिद्धि मिलना सबकी किस्मत में नहीं होता मगर जिनकी किस्मत में होता है वे इतिहास की धारा बदल डालते हैं।
चित्र : ईसा का रूपान्तरण व उनके आशीर्वाद से मिर्गी ग्रस्त बालक का चंगा हो जाना
रेनसां युग के महान इतालवी चित्रकार राफेल की अमर कृति ‘ला ट्रांसफिगराजोन’
एक मसीहा ने लिखा मैंने ईश्वर के रहने की तमाम जगहों को इतनी सी देर में देख लिया जितनी देर में एक घड़ा पानी भी खाली नहीं किया जा सकता। धर्मान्तरण के अनेक उदाहरणों के मूल में मिर्गी जनित अनुभूतियां रही है। सेन्ट पाल का नाम प्रमुख है। उनका जन्म ईसा बाद की पहली शताब्दी में हुआ था। वे यहूदी थे व ईसाइयों के कट्टर विरोधी। बाइबिल में प्राप्त अनेक उद्धरणों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि उन्हें यदा-कदा मिर्गी के दौरे आते थे। एक पत्र में उन्होंने लिखा था कि उन्हें एक अजीब असामान्य से दौरे में आध्यात्मिक अनुभूतियां हुई थी “मैं नहीं जानता कि में शरीर के अन्दर था या बाहर। मुझे ईश्वर ने कुछ पवित्र रहस्य बताये जिन्हें होंठ अब दुहरा नहीं सकते। सेन्ट पाल के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी उनका धर्मान्तरण। लगभग ३० वर्ष की उम्र में वे येरुशलम से दमिश्क पैदल जा रहे थे। उद्देश्य था दमिश्क के ईसाइयों को सजा देना मार्ग में अजीव घटा। एक तीव्र प्रकाश हुआ। वे जमीन पर गिर पड़े। उन्हें कुछ आवाजें सुनाई दी जो ईसा के समान थी। वे उठे परन्तु अन्धे हो चुके थे। दमिश्क पहुँचने के तीन दिन बाद उनकी रोशनी फिर लौटी। उनका मन बदल चुका था। ईसाई धर्म अंगीकार कर लिया। अनेक न्यूरालाजिस्ट ने सेन्ट पाल के जीवन पर उपलब्ध ईसाई धर्म साहित्य का गहराई से अध्ययन किया है तथा वे इस मत के हैं कि सेन्ट पाल को एपिलेप्सी का दौरा आया होगा। उनके धर्मान्तरण में मिर्गी का कुछ प्रभाव जरूर था।
चित्र : संत पॉल का धर्म परिवर्तन
मध्ययुगीन फ्रान्स के इतिहास में जोन आफ आर्क को महान नायिका का दर्जा प्राप्त है। उसे बार- आवाजें सुनाई पड़ती थी व दृश्य दिखलाई पड़ते थे। वैज्ञानिक भाषा में इन्हें हैल्यूसीनेशन (Hallucination विभ्रम) कहते हैं। ये मस्तिष्क की बीमारियों के कारण पैदा होते हैं। जोन आफ आर्क ने एक बार लिखा “मुझे दायीं ओर से, गिरजाघर की तरफ से आवाज आयी। ईश्वर का आदेश था। आवाज के साथ सदैव प्रकाश भी आता है। प्रकाश की दिशा भी वही होती है जो ध्वनि की।” अनुमान लगा सकते हैं कि उसके मस्तिष्क के बायें गोलार्ध के टेम्पोरल व आस्सीपिटल खण्ड में विकृति रही होगी।
प्राचीन संस्कृत साहित्य में महाकवि माघ ने मिर्गी का वर्णन करते उसकी तुलना समुद्र से की है- दोनों भूमि पर पड़े हैं, गरजते हैं, भुजाएं हिलाते हैं व फेन पैदा करते हैं। (शिशुपालवधः ७वीं सदी ईसा पश्चात)। शेक्सपीयर साहित्य में अनेक स्थलों पर मिर्गी आता हैं। ‘अथेलो’ नमक रचना में नायक को मिर्गी का दौरा पड़ता है तथा दो अन्य पात्र केसियो व इयागो उसकी हंसी उड़ाते है।
चित्र : जॉन ऑफ आर्क – फ्रांस की निडर नायिका
“जूलियस सीजर” का एक अंश उद्धृत है :-
कैसियस : धीरे बोलो, फिर से कहो, क्या सच ही सीजर मूर्च्छित हो गये थे।
कास्का : हां । रोग के सम्राट ऐन ताजपोशी के समय चकरघिन्नी के समान घुमे और गिर पड़े। मुंह से झाग निकल रहा था। बोल बन्द था।
ब्रूटस : यह ठीक उसी बीमारी के समान लगता है जिसे मिर्गी कहते हैं। होश में आने के बाद जूलियस ने क्या कहा ?
कास्का : बोले “यदि मैंने कोई ऐसी वैसी बात कही हो तो उसे मेरी कमजोरी व बीमारी माना जाए।” और इसी बेहोशी के दौरे के कारण वह बाद में बड़ी देर तक उदास बना रहा।
चित्र : मिखाइलोविच दास्तोएवस्की
फेदोर मिखाइलोविच दास्तोएवस्की उन्नीसवीं शताब्दी के महानतम लेखकों में से एक थे। २७ वर्ष की उम्र में साइबेरिया में कारावास की सजा भुगतते समय उनके दौरे बढ़ गये थे। डायरी में उन्हें अजीब, भयावह, रोचक पूर्वाभास होता है, हर्षातिरेक का। “देखो हवा में कैसा शोर भर गया है। स्वर्ग मानो धरती पर गिरा आ रहा है और उसने मुझे समाहित कर लिया है। मैंने ईश्वर को छू लिया है। पैगम्बर साहब को होने वाले रूहानी इलहाम की भी ऐसी ही अवस्था थी।” महान कलाकारों या लेखकों की कमियां व बीमारियां भी महत्वपूर्ण हो उठती हैं। दास्तोएवस्की ने उपन्यास ‘द इंडियट’ में अपनी बीमारी को नायक प्रिंस मिखिन पर आरोपित कर दिया है। वह मास्को की सड़कों पर बेमतलब घूमता रहता है और बताता है “कभी-कभी सिर्फ पांच-छ: सेकण्ड के लिये मुझे शाश्वत संगीत की अनुभूति होती है। सब कुछ निरपेक्ष और निर्विवाद लगता है, भयावह रूप से पारदर्शी लगता है। कभी दिमाग में अचानक आग लग उठती है। बादलों की सी तेजी से जीवन की चैतन्यता का प्रभाव दस गुना बढ़ जाता है। फिर पता नहीं क्या होता है।” मिर्गी की इस बीमारी ने दास्तोएवस्की के जीवन दर्शन, सोच, चिंतन आदि पर गहरा असर डाला। अपने तीनों महान उपन्यास ‘दि ईडियट, द डेमॉन्स और करामाजोव बन्धु में लेखक का यह मत बार-बार प्रकट हुआ कि सत्य को जानने के लिये आस्था व अनुभूति जरूरी है। मिर्गी रोग के कारण प्राप्त अनुभवों ने लेखक को एक विशिष्ट दृष्टि प्रदान की जो तार्किक भी थी तथा रहस्यवादी भी।
मिर्गी के दौरों में तथा अनेक स्वस्थ व्यक्तियों को भी कभी-कभी एक खास प्रकार की क्षणिक अनुभूति होती है कि इस वक्त, इस जगह जो जिया जा रहा है वैसा ही शायद पहले भी कभी जिया जा चुका है। वैसे ही हालात, वे ही लोग वही संवाद। लगता है कि अब जो होगा या कहा जाएगा वह भी पहले से ज्ञात था। कुछ सेकण्ड्स के बाद यह अहसास गुजर जाता है। पिर पहले जैसा सामान्य। ऐसा बार-बार हो सकता है टेम्पोरलखण्ड से उठने वाले आंशिक जटिल (सायकोमोटर) दौरों में यह अधिकता से होता है। इसे फ्रेंच भाषा में Deja Vu (देजा वू) कहते हैं। प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि लाई टेनीसन व गद्यकार चार्ल्स डिकन्स लिखित निम्न अंश “देजा वू” की भावना को अभिव्यक्त करते हैं।
Moreover something is or seems
That touches me with mystic gleams Like glimpses of forgotten dreames Of something felt like some thing here Of something there I know not where Such as no languages may declare. Lord Tennyuson |
कुछ कुछ है या कि लगता है
रहस्यमयी रोशनी सा मुझे छूता है। जैसे कि भूले हुए सपनों की झलकें हों कुछ यहां की हों, कुछ वहां की हों कुछ किया था, न जाने कहां की हों, सीमा उनकी भाषा से परे की हो । लार्ड टेनीसन |
हालैण्ड के विश्वविख्यात चित्रकार विन्सेन्ट वान गाग को भी मिर्गी रोग था। उसके बावजूद वे श्रेष्ठ कोटि के कलाकार थे । जरूरी नहीं कि रोग से सदैव प्रतिभा का क्षय हो । प्रतिभा की दिशा बदल सकती है, उसमें वैशिष्ट्य आ सकता है। मिर्गी की आटोमेटिज्म (स्वचलन) अवस्था में वान गाग बार- बार एक जैसे चित्र, अनजाने में बनाते चले जाते थे । आधुनिक साहित्य तथा फिल्मों में अनेक उदाहरण हैं पात्रों को मिर्गी रोग होने के तथा उस कारण कथानक में खास मोड़ आने के। कुछ नाम हैं हेनरी जेम्स रचित “टर्न ऑफ द स्क्रू”, भारतीय लेखिका रुथ प्रावर झाबवाला की “हीट एण्ड डस्ट”, विलियम पीटर प्लाटी लिखित ‘द एक्जार्सिस्ट’, जिस पर प्रसिद्ध डरावनी फिल्म बनी थी। कुछ पाठकों को ‘द एक्जार्सिस्ट’ फिल्म का दृश्य याद होगा जिसमें बालिका डिनर पार्टी में कालीन पर पेशाब कर देती है व कांपने लगती है। न्यूरालाजी विशेषज्ञ द्वारा “टेम्पोरल खण्ड मिर्गी” का निदान बनाया जाता है। यह अलग बात है कि रहस्यवाद के प्रति लोगों की मानसिक कमजोरी का लाभ उठाते हुए बाक्स आफिस पर सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से लेखक व निर्देशक दोनों ने जानबूझ कर पहेली का निश्चित हल प्रस्तुत नहीं किया । महान भारतीय, डॉ कोटनीस ने चीन में अनेक वर्षों तक सेवा कार्यो द्वारा नाम कमाया था। उन्हें भी मिर्गी रोग था। उनके जीवन पर आधारित फिल्म “डॉ कोटनीस की अमर कहानी” के कुछ दृश्यों में पैरों में झटके आते हुए दिखाये गये हैं।
चित्र : धारावाहिक “मुंगेरीलाल के हसीन सपने”
कुछ वर्षो पूर्व दूरदर्शन पर एक हास्य धारावाहिक (सीरियल) लोकप्रिय हुआ था “मुंगेरीलाल के हसीन सपने”। रघुवीर यादव ने सटीक अभिनय द्वारा चेहरे के एक ओर फड़कन या झटके दर्शाये थे जो आंशिक जटिल मिर्गी में आते हैं तथा जिसमें दिवा स्वप्न की स्थिति बनती है। चिकित्साविज्ञान की दृष्टि से उक्त दिवास्वप्न या कल्पना कुछ ही सेकण्ड रहता है। हर बार विषय बदलता नहीं तथा उसमें कोई निश्चित विषय या तारतम्य नहीं रहता परन्तु फिल्म वालों को थोड़ी बहुत छूट दी जा सकती है।
कला, इतिहास और धर्म के आईने में मिर्गी के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करने का उद्देश्य इस रोग गौरवान्वित या महिमामण्डित करना नहीं है। रोग बुरा है। परन्तु कितना बुरा ? उतना नहीं जितना- कि लोग सोचते हैं। हर बुराई में भी कुछ अंश ऐसे होते हैं जो तुलनात्मक रूप से अच्छे होते हैं। दुःख जीवन का अनिवार्य अंग है। हजारों तरह के दुःख हैं। अधिकांश लोग दुःखों से उबरना सीखते हैं । दुःख का सामना करना उनकी आत्मिक शक्ति को पूर्णता प्रदान करता है। मिर्गी के दुःख का सामना लोग बेहतर तरीके से कर पायें, इसलिये उपयोगी सोचा गया कि उसके बारे में कुछ रोचक तथ्यों की चर्चा छेड़ी जाए। मिर्गी रोग आनन्द की अवस्था नहीं है। परन्तु स्वयं के दुःख पर हंस पाना उसकी पीड़ा को निश्चय ही कम करता है ।
ब्लेज पास्कल ने कभी कहा था “बीमारी के भले उपयोग की प्रार्थना” के बारे में। हम सोच सकते हैं कि कितनी ही हस्तियों ने अपनी मिर्गी का कुछ भला उपयोग पा लिया था। बीमारी का एक और भला उपयोग है। मिर्गी रोग का अध्ययन करते-करते अनेक न्यूरो-वैज्ञानिकों को यह बूझने का अवसर मिलता है कि मस्तिष्क के विभिन्न हिस्से क्या-क्या काम करते हैं, विद्युतीय व रासायनिक गतिविधियां कैसे संचालित होती हैं । जीव विज्ञान के अध्ययन में प्राणियों पर प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मनुष्यों पर प्रयोग करना अनैतिक है। (हिटलर के नाजी राज में अपवाद हुआ था)। परन्तु विभिन्न बीमारियों के अध्ययन से शरीर के कार्यकलाप के बारे में जो जानकारी मिलती है उसे क्या कहा जाए। ये प्रकृति के क्रूर प्रयोग हैं। उस पीड़ा को भोगने से बच नहीं सकते। तो क्यों न उसका भला उपयोग ढूंढा जाए।