प्रादेशिक भाषाओं के विकास के पक्षधर थे अटल जी

 प्रादेशिक भाषाएं प्रतिष्ठित हुईं तो राजभाषा के रूप में हिन्दी को लाना कठिन नहीं होगा 

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प्रादेशिक भाषाओं के विकास के पक्षधर थे अटल जी

अंग्रेजी भाषा के विरोध और अन्य भारतीय भाषाओं के समुचित विकास को लेकर अटल बिहारी वाजपेयी जी का प्रखर हिंदी सेवी होने के बावजूद स्पष्ट रुख था कि किसी पर भी हिंदी थोपी नहीं जा सकती है। उनका मानना था कि जनसंघ ने यह कभी नहीं कहा कि सभी भारतीय भाषाओंका स्थान हिन्दी लेगी। उनका विचार था कि एक बार प्रादेशिक भाषाएं पूर्ण प्रतिष्ठित हो गयीं, तो फिर अन्तरप्रादेशिक व्यवहारके लिए केन्द्रकी राजभाषाके रूपमें हिन्दीको लाना कठिन नहीं होगा ।
लोकप्रिय जननेता, प्रखर राष्ट्रभक्त कवि , ओजस्वी वक्ता, असंख्य कार्यकर्ताओं के प्रेरणा-पुंज, पूर्व प्रधानमंत्री, ‘भारत रत्न’ श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी की जयंती पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि! वाजपेयीजीका शुचितापूर्ण राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन लोकतंत्र हेतु सदैव आदर्श मानक रहेगा। वाजपेयीजी ने 4 अक्टूबर 1977 को भारत के विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा को हिंदी में संबोधित कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को जो मान प्रतिष्ठा दिलाई थी, वह हिंदी सेवा के क्षेत्र में ऐतिहासिक अवसर के रूप में दर्ज हो चुका है।

मृदु स्वभाव के कारण अपने राजनैतिक विरोधियों के भी चहेते वाजपेयी जी भारतीय राजनीति में आज भी पूरी तरह प्रासंगिक हैं। आज से 55 साल पहले उन्होंने जो सोचा था, जो कहा था, वह आज धरातल का सच है।
17 सितंबर 1967 के अंक में हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित जनसंघ के तत्कालीन प्रखर प्रवक्ता  अटल बिहारी वाजपेयी जी का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था।  इस साक्षात्कारमें उन्होंने अपने दल जनसंघ का अंग्रेजी विरोध का कारण स्पष्ट बताया था कि अंग्रेजीसे हमारे विरोधका कारण यही है कि वह भारतकी जनभाषा नहीं है । अब एक विदेशी भाषाको हटाकर हमें सभी भारतीय भाषाओंको उसका स्थान देना होगा। भाषाएं प्रचलन से पुष्ट होती हैं। यदि प्रादेशिक भाषाएं राजकाज और शिक्षा- का माध्यम नहीं बनेंगी, तो उनका विकास नहीं होगा और भारतकी सांस्कृतिक समृद्धि उतनी ही मात्रामें कुण्ठित रह जायेगी। अनेक भारतीय भाषाएं हिन्दीकी तुलनामें अधिक प्राचीन तथा पुष्ट हैं। उनके विकासका पूर्ण अवसर देकर ही हम स्वराज्य, स्वधर्म और स्वभाषाके त्रिगुणात्मक राष्ट्रवादका पुरस्कार कर सकते हैं।
उन्होंने कहा था कि यह सच है कि जनसंघ एकात्मक शासन का समर्थक है, किन्तु उस शासन व्यवस्थामें भी जनताकी भाषामें जनताका राज चलानेके सिद्धान्त का परित्याग नहीं किया जायेगा।  अतः एकात्मक शासन- की मांग और प्रादेशिक भाषाओंकी प्रतिष्ठा—इन दोनों कार्यक्रमोंमें कहीं कोई अन्तरविरोध नहीं है ।
उस वक्त उर्दूके बारेमें जनसंघकी नीतिको लेकर कई आरोप लगाये जाते थे। इस बारेमें उनकी राय थी कि
उर्दूके सम्बन्धमें जनसंघकी नीतिके विषयमें काफी भ्रम दिखायी देता है। कुछ लोग समझते हैं कि जनसंघ उर्दूको मिटानेपर तुला हुआ है। इसके विपरीत कुछ अन्य लोगोंकी धारणा है कि चुनावके चक्करमें पड़कर भारतीय जनसंघ भी मुस्लिम तुष्टिकरणके कांग्रेसके मार्गपर चल पड़ा है। सच्चाई यह है कि जनसंघ उर्दू को एक भारतीय भाषा मानता है और उसे फलता- फूलता देखना चाहता है।
जम्मू-कश्मीरके किसी क्षेत्री भाषा उर्दू नहीं है, किन्तु उसे वहां राजभाषाका स्थान दिया गया है। जनसंघने कभी इस बातका विरोध नहीं किया है। जनसंघ चाहता है कि जो लोग उर्दू पढ़ना चाहते हैं, उन्हें उर्दूके पठन-पाठनकी पूरी सुविधाएं दी जायें।  उर्दूमें प्रार्थनापत्र दन और उसका उत्तर उर्दूमें उत्तर पानेका अधिकार भी स्वीकृत होना चाहिए। जहां उर्दूभाषी पर्याप्त संख्या में हैं, वहां उर्दूमें सरकारी सूचनाएं प्रकाशित करनेकी व्यवस्था भी की जा सकती है। उर्दूमें इन दिनों काफी अच्छा साहित्य लिखा जा रहा है, उसको प्रोत्साहन देना, उर्दूके साहित्यकारोंका सम्मान करना और उर्दूके पत्रोंके लिए विज्ञापन आदिका प्रबन्ध करना शासनका काम है और जहां-जहां जनसंघ शासनमें भागीदार है, वह इस दिशामें अपने दायित्वको पूरा करेगा। जो लोग उर्दूको अपनी मातृभाषा मानते हैं, और हम यह माननेके लिए तैयार नहीं है कि भारत के सभी मुसलमानों की मातृभाषा उर्दू है, उनको संविधान प्रदत्त सभी संरक्षण मिलना चाहिए। भारतीय जनसंघ उर्दूको उसका योग्य स्थान देनेके विरुद्ध नहीं है, हम उर्दूको उत्तरप्रदेश तथा बिहारमें दूसरी राजभाषाका पद देनेके खिलाफ है । उर्दूको दूसरी राजभाषा बनानेका अर्थ यह होगा कि प्रत्येक विद्यार्थीको अनिवार्य रूपसे उर्दू पढ़ायी जाये और प्रत्येक सरकारी कर्मचारीके लिए उर्दूमें काम करनेकी क्षमता प्राप्त करना आवश्यक किया जाये। यह सुझाव न व्यावहारिक है और न ही लिए हितावह ! बिहारमें उर्दुभाषियोंकी संख्या केवल 8 प्रतिशत है।
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स्मृति: ग्वालियर के महाराजपुर एयरपोर्ट पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई जीके साथ लेखक सुदेश गौड़, साथ में है मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर
यदि वहां उर्दूको दूसरी राजभाषा बनाने की मांग मान ली गयी, तो फिर अन्य प्रदेशोंमें भी इसी प्रकारकी मांगें खड़ी होंगी। उस स्थितिमें भारतका शायद ही कोई प्रदेश एकभाषी रह पायेगा। तब तो सभी प्रदेशोंको द्विभाषी या त्रिभाषी घोषित करना पड़ेगा ।
वाजपेई जी ने कहा था कि अंग्रेजीके समर्थकोंकी यह चाल रही है कि वे हिन्दीका हौवा खड़ा करें और सभी भारतीय भाषाओं में हिन्दीके प्रति एक भयकी भावना जगायें। वे मानते थे कि अंग्रेजीका स्थान न केवल हिन्दीको, अपितु सभी भारतीय भाषाओं को लेना होगा । हिन्दी किसी प्रादेशिक भाषाका स्थान नहीं लेगी, न हिन्दी उन सभी स्थानोंमें चलेगी, जहां आज अंग्रेजी प्रचलित है। अंग्रेजीको हटानेकी व्यूह-रचनाका उद्देश्य है केन्द्रमें हिन्दीको लाने के लिए प्रदेशोंमें प्रादेशिक भाषाओंकी पूर्ण प्रतिष्ठा। यदि बम्बई, मद्रास या कलकत्तामें अंग्रेजीका प्रभुत्व नहीं रहेगा, तो नयी दिल्लीमें उसका वर्चस्व बनाये रखना सम्भव नहीं होगा। यही कारण है कि जनसंघ इस बातपर बल दे रहा है कि प्रदेशोंके राजकाज, शिक्षा तथा अदालतोंमें प्रादेशिक भाषाओंको स्थान दिया जाये। यदि एक बार प्रादेशिक भाषाएं पूर्ण प्रतिष्ठित हो गयीं, तो फिर अन्तरप्रादेशिक व्यवहारके लिए केन्द्रकी राजभाषाके रूपमें हिन्दीको लाना कठिन नहीं होगा ।
1967 में बिहार में पहली बार महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी गैर कांग्रेसी सरकार ने अंग्रेजी हटाओ अभियान के तहत सिर्फ अंग्रेजी विषय में अनुत्तीर्ण छात्रों को उत्तीर्ण घोषित कर दिया था जिसका वाजपेई जी ने पूरी तरह विरोध करते हुए कहा था कि  अंग्रेजी में विफल छात्रोंको उतीर्ण करनेका सुझाव हम वांछनीय नहीं समझते, क्योंकि इसका सम्बन्ध केवल भाषासे नहीं है-समूची शिक्षा सम्बन्धी नीति और विद्यार्थियोंके प्रति आचरणकी दिशासे है। यदि अंग्रेजीमें अनुत्तीर्ण विद्यार्थी उत्तीर्ण घोषित किये जायेंगे, तो यह एक अस्वस्थ प्रवृत्तिको बढ़ावा देना होगा। फिर बात केवल अंग्रेजी तक सीमित नहीं रहेगी। इससे अच्छा यह है कि अंग्रेजीको ऐच्छिक विषय बना दिया जाये, जो विद्यार्थी उसे पढ़ना चाहें वे पढ़ें, परन्तु किसी विषयको अनिवार्य बनाकर उसमें अनुत्तीर्णं रहनेवाले छात्रोंको उत्तीर्ण करना शिक्षाके क्षेत्रमें अराजकताको निमन्त्रण देना होगा। जिन प्रदेशोंकी सरकारोंमें जनसंघके मन्त्री भागीदार हैं, वे इसी नीतिको कार्यान्वित करनेका यत्न कर रहे हैं । मध्यप्रदेशमें अंग्रेजीमें अनुत्तीर्ण रहनेवाले छात्रोंको उत्तीर्ण करनेका जो निर्णय किया गया था, उसे नयी सरकारने बदला है । अच्छा हो, यदि हिन्दी प्रदेशोंकी सभी सरकारें इस सम्बन्धमें कोई समान नीति अपनायें।
वाजपेयी जी का मानना था कि जाति व्यवस्था से मुक्ति पाए बिना भारतीय जनता का सच्चा नवजागरण संभव नहीं है। इस बारे में उन्होंने कहा था कि जातिभेद भारतके लिए एक अभिशाप है। जाति- प्रथाके ऐतिहासिक कारण जो कुछ भी क्यों न रहे हों, आज उसे बनाये रखनेका कोई औचित्य नहीं है। दुर्भाग्य से चुनावोंके कारण जातिवादको बल मिला है। सभी राजनीतिक दल जानेमें या अनजानेमें इस बुराईको बढ़ाने के दोषी हैं। किन्तु यह स्पष्ट है कि जब तक वंश, कुल, वर्ण या जातिके आधारपर पक्षपात या भेदभाव होता रहेगा, एक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य स्थापित करनेकी हमारी सभी घोषणाएं व्यर्थ सिद्ध होंगी। सभी दलोंको यह निश्चय करना होगा कि वे चुनावमें उम्मीदवारोंका चयन जातिवादके आधारपर नहीं करेंगे। भारतीय जनसंघने अपने कार्यकर्ताओंको ही उम्मीदवार बनानेका निश्चय करके इस इस बुराई से अपनेको बचानेका काफी प्रयत्न किया है। किन्तु केवल इतने मात्रसे जातिवादके जहरका निर्मूलन सम्भव नहीं है। इसके लिए आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रोंमें प्रगतिको रस्तारको तेज करना होगा, औद्योगीकरणमें गति लानी होगी; और शिक्षाके क्षेत्रमें सभी भारतीयोंके लिए समान शिक्षा देने, अर्थात् पब्लिक स्कूलोंको समाप्त करनेकी दिशामें प्रभावी पग उठाने होंगे। यह भी आवश्यक है कि सार्वजनिक कार्यकर्ता अपने व्यक्तिगत जीवनमें जातिवादको प्रश्रय न दें।