औरंगजेब
औरंगज़ेब भारतीय उपमहाद्वीप में अशोक के बाद दूसरे सबसे बड़े साम्राज्य पर शासन करने वाला सम्राट था। लेकिन औरंगजेब का नाम अधिकांशतः अस्वीकृति की भावना जागृत करता है। भारतीय मानस में वह धर्मान्धता का पर्याय है। हाल ही में मैंने 1930 में प्रकाशित और प्रसिद्ध विद्वान सर यदुनाथ सरकार द्वारा लिखित ‘औरंगजेब’ नामक पुस्तक पढ़ी। इस इतिहासकार ने औरंगजेब के काल के मूल फ़ारसी साहित्य सहित बड़ी मात्रा में मूल स्रोतों का अध्ययन किया। उनका विस्तृत वर्णन और शैली बहुत आकर्षक है तथा उनके निष्कर्ष एक संतुलित इतिहासकार के हैं।उन्होंने तब इतिहास लिखा था जब इतिहासकार धर्मनिरपेक्ष और गैर-धर्मनिरपेक्ष या वामपंथियों और दक्षिणपंथियों में नहीं बंटे थे।
1618 में जन्मे औरंगजेब ने एक युवा के रूप में सर्वांगीण गुणों का प्रदर्शन किया। वह एक अच्छा विद्वान और वीर सेनापति बना। 1658 में 40 वर्ष की आयु में वह अपने भाइयों के विरूद्ध उत्तराधिकार के युद्ध में विजयी हुआ।उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब ने दो निर्णायक लड़ाइयों में असाधारण वीरता के साथ अपनी सेना का नेतृत्व किया। उसने अपने पिता शाहजहाँ को कारावास में डाल दिया, अपने सबसे छोटे भाई मुराद को धोखे से पकड़ लिया और बाद में उसे मार डाला। उसने लगातार पीछा कर के दारा को पकड़ लिया और उसे दिल्ली की सड़कों पर अपमानित किया और अगले दिन मार डाला। उसने शुजा को भारत से खदेड़ दिया। ऐसे उत्तराधिकार के युद्ध एक सामान्य प्रक्रिया थी। जब औरंगज़ेब जैसा एक प्रशिक्षित प्रशासक और अनुभवी सेनापति और अपने निजी जीवन में सादगी और पवित्रता के साथ मुग़ल साम्राज्य का शासक बना तो सभी लोगों को आशा थी कि वह साम्राज्य को गौरव की अकल्पनीय ऊंचाइयों तक ले जाएगा।
ऐसा नहीं हुआ
औरंगजेब ने आधी शताब्दी तक भारत पर शासन किया। उनका शासन स्पष्ट रूप से दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में वह उत्तरी भारत में था। इस अवधि में उसने असम और अफगानिस्तान की सीमाओं पर युद्ध छेड़े। इस काल में उत्तर भारत में अनेक विद्रोह हुए। मथुरा के जाटों ने राजधानी के निकट ही विद्रोह कर दिया। पठान आदिवासी उत्तर-पश्चिम में साम्राज्य के विरूद्ध उठ खड़े हुए। सतनामियों ने अत्याचार के विरूद्ध नारनौल में विद्रोह कर दिया। सिख गुरु तेग बहादुर ने पंजाब में विद्रोह का झंडा बुलंद किया। हालाँकि, औरंगज़ेब इन सभी विद्रोहों को कुचलने में सफल हुआ। राजपूताना में युद्ध हुए और वहाँ उसके अपने पुत्र अकबर का विद्रोह गंभीर हो गया। अंत में अकबर की हार हुई और वह दुर्गा दास राठौड़ के साथ मराठों की शरण में दकन भाग गया। यह घटना औरंगजेब को अगली चौथाई सदी के लिए दकन ले आयी। 1670-80 के मध्य शिवाजी के चमत्कारिक उदय और उनकी लगातार घुसपैठ और लूट ने साम्राज्य को व्यथित करना प्रारंभ कर दिया। पानीपत की दूसरी लड़ाई में अकबर की जीत के बाद से ही भारत का मानना था कि मुगल सेना अजेय है और उनका क्षेत्र अभेद्य है। शिवाजी ने इस मान्यता को तोड़ दिया। हालाँकि, 1700 तक औरंगज़ेब सभी दकन की शक्तियों- आदिल शाही बीजापुर, गोलकुंडा के कुतुब शाह और मराठों को अपने अधीन करने में सफल हो गया। परन्तु उसकी ये विजय भ्रामक और अस्थायी थीं।
इस्लाम के प्रति अटूट प्रतिबद्धता ने औरंगजेब को इसके सिद्धांतों को अक्षरशः लागू करने के लिए प्रेरित किया। अकबर की प्रगतिशील नीतियों को त्यागकर औरंगजेब ने हिन्दुओं के विरुद्ध अत्याचार की नीति अपनाई। कोई नया मंदिर नहीं बन सकता था और न ही किसी पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार हो सकता था। 1644 में गुजरात के सूबेदार के रूप में उसने अहमदाबाद में नव निर्मित चिंतामण के मंदिर को अपवित्र किया और फिर उसे मस्जिद में बदल दिया। उसने सोमनाथ का दूसरा मंदिर, बनारस का विश्वनाथ मंदिर और मथुरा का केशव राय मंदिर नष्ट कर दिए। हिंदुओं के विरूद्ध अन्य कदमों में जजिया या पोल टैक्स 1679 में लगाया गया। हिंदू व्यापारियों पर आयातित सामानों पर उच्च दर से सीमा शुल्क लगाया गया। 1668 में पूरे साम्राज्य में सभी धार्मिक मेलों पर रोक लगा दी गई। 1695 में राजपूतों को छोड़कर सभी हिंदुओं को पालकी और हाथी या घोड़ों की सवारी करने और हथियार ले जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस्लाम में धर्मान्तरित लोगों को विशेष रूप से पुरस्कृत किया जाता था।
औरंगज़ेब का शासन लोगों के साथ-साथ साम्राज्य के लिए भी विनाशकारी सिद्ध हुआ। उसका शासनकाल निरंतर युद्धों के कारण आर्थिक त्रासदी सिद्ध हुआ। हर वर्ष एक लाख लोग और तीन लाख जानवर मारे जाते थे। कृषि की बर्बादी और इसके परिणामस्वरूप अधिशेष उपज पर निर्भर हस्तशिल्प आपदा का शिकार बन गए। युद्ध, अव्यवस्था और सरकारी अत्याचारों से व्यापार और उद्योग को गंभीर क्षति पहुँची। राजकोष ख़ाली हो गया। यह प्रशासनिक और नैतिक पतन और सार्वजनिक विघटन का युग था।
अनेक गुणों से परिपूर्ण औरंगज़ेब अपने शासित क्षेत्र को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से एक जीवंत साम्राज्य में बदलने में विफल रहा। 1707 में उसकी मृत्यु मध्यकालीन भारत के सबसे बड़े राजवंश के पतन और विघटन की साक्षी बनी। उसका शासनकाल इस बात की पुष्टि करता है कि एक महान स्थायी साम्राज्य तब तक नहीं बन सकता जब तक कि वह सभी के लिए समान अधिकारों और अवसरों के साथ एक संगठित राष्ट्र निर्मित नहीं करता।