पद्म पुरस्कारों की प्रामाणिकता?

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इस बार घोषित पद्म पुरस्कारों पर जमकर वाग्युद्ध चल रहा है। कश्मीर के कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद को पद्मभूषण देने की घोषणा क्या हुई, कांग्रेस पार्टी के अंदर ही संग्राम छिड़ गया है। एक कांग्रेसी नेता ने बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और कम्युनिस्ट नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य के कंधे पर रखकर अपनी बंदूक दाग दी। भट्टाचार्य को भी भाजपा सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया है। उन्होंने यह सम्मान लेने से मना कर दिया।

इस पर कांग्रेसी नेता जयराम रमेश ने अपनी टिप्पणी बड़े काव्यात्मक अंदाज़ में कह डाली कि बुद्धदेवजी ‘आजाद’ रहना चाहते हैं, ‘गुलाम’ नहीं बनना चाहते हैं याने उन्होंने अपने वरिष्ठ साथी का नाम लिये बिना ही उनकी धुलाई कर दी। कई अन्य कांग्रेसी नेता और खुद कांग्रेस पार्टी इस मुद्दे पर चुप है लेकिन कुछ ने आजाद को बधाई भी दी है। यहां असली सवाल यह है कि इन सरकारी सम्मानों का देश में कितना सम्मान है? इसमें शक नहीं है कि जिन्हें भी यह पुरस्कार मिलता है, वे काफी खुश हो जाते हैं लेकिन यदि मेरे किसी अभिन्न मित्र को जब यह मिलता है तो मैं उसे बधाई के साथ—साथ सहानुभूति का पत्र भी भेज देता हूं, क्योंकि इसे पाने के लिए उन्हें बहुत दंड-बैठक लगानी पड़ती है।

इस बार दिए गए 128 सम्मानों के लिए लगभग 50 हजार अर्जियां आई थीं। अर्जियों की संख्या यदि 50 हजार थी तो हर अर्जी के लिए कम से कम 10-10 फोन तो आए ही होंगे। इन सम्मानों का लालच इतना बढ़ गया है कि पद्मश्री जैसा सम्मान पाने के लिए लोग लाखों रु. देने को तैयार रहते हैं। समाज के प्रतिष्ठित और कुछ तपस्वी लोग ऐसे नेताओं के आगे नाक रगड़ते रहते हैं, जो उनकी तुलना में पासंग भर भी नहीं होते।

इसके अलावा किसी भी उपाधि, पुरस्कार या सम्मान को सम्मानीय तभी समझा जाता है, जब उसके देनेवाले उच्च कोटि के प्रामाणिक लोग होते हैं। अब यह सवाल आप खुद से करें कि पद्म पुरस्कार के निर्णायक लोग कौन होते हैं? नौकरशाह, जो नेताओं के इशारे पर थिरकने के अभ्यस्त हैं, उनके दिए हुए पुरस्कारों की प्रामाणिकता क्या है? इसका अर्थ यह नहीं कि ये सारे पुरस्कार निरर्थक हैं। इनमें से कुछ तो बहुत ही योग्य लोगों को दिए गए हैं। अब तो विश्व प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार भी बहुत ही मामूली लोगों को राजनीतिक गुणा-भाग के आधार पर मिलने लगे हैं तो हमारे इन पद्म पुरस्कारों को कई लोग लेने से ही मना कर देते हैं।

इन्हें देने के पीछे यदि राजनीति होती है तो नहीं लेने के पीछे भी राजनीति होती है। नम्बूदिरिपाद ने तब और भट्टाचार्य ने अब इसीलिए मना किया है। दो बंगाली कलाकारों ने यह कहकर उन्हें लेने से मना कर दिया कि उन्हें यह बहुत देर से दिया जा रहा है। ‘मेनस्ट्रीम’ के संपादक निखिल चक्रवर्ती ने यह सम्मान लेने से मना किया था यह कहकर कि ऐसे सरकारी सम्मानों से पत्रकारों की निष्पक्षता पर कलंक लग सकता है।

वैसे गुलाम नबी आजाद पहले विरोधी दल के नेता नहीं है, जिन्हें यह सम्मान मिला है। नरसिंहराव सरकार ने मोरारजी देसाई को भारत रत्न और अटलजी को पद्म विभूषण दिया था। मोदी सरकार ने प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न, शरद पवार को पद्म विभूषण तथा असम व नागालैंड के कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को भी पद्म पुरस्कार दिए थे। जरुरी यह समझना है कि जो मांग के लिए जाए, वह सम्मान ही क्या है और यह भी कि देनेवाले की अपनी प्रामाणिकता क्या है?