नानी माँ के पिटारे से निकली है सुंदर कविताएं —-

सीमा शाहजी के काव्य संग्रह की समीक्षा

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नानी माँ के पिटारे से निकली है सुंदर कविताएं —–

अक्सर यह पुरानी कहावत है कि नानी माँ के पिटारे में कहानियाँ छुपी होती है। पिटारा खोलो ढेरों कहानियाँ बाहर आ जाती है, परंतु कवियित्री सीमा शाह जी की कविताएं जब पढ़ो तो मानो वह नानी के पिटारे से निकली हुई प्रतीत होती है। सीमा जी का यह प्रथम संग्रह है और उनकी परिपक्व कलम ने साधक साहित्यकार का एहसास करवाया है।
कविता सूर्य की प्रथम किरण (सुषमा) की तरहा पाठकों के हृदय में चहूं और फैल जाती है। गुनगुनी धूप की तरह भावनाएं ठंडक और गरमास का एहसास कराती है ।
ठंड में चाय की केतली से उठती हल्की भाप जैसे चाय पीने वाले को उतावला करती है, बस वैसे ही सीमा जी के शीर्षक ‘ताकि मैं लिख सकूं’ को पढ़कर पाठक उत्सुक होता है कि पहले इन कविताओं का रसपान कर लिया जाए,।
कैसा स्वाद है? निश्चित ही बहुत स्वादिष्ट होगा।

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सीमा जी ने कुल 61 कविताओं से इस संग्रह को सजाया है। बड़े बुजुर्गों की गाथा की किंवदंतियों से गुजरने का एहसास इन कविताओं में भरपूर मिलेगा। जहां हम पुराने दिनों में लौट जाते हैं और अपनों से जुड़ी बातें तो याद करते ही हैं हमारे जीवन के आसपास बिखरी लोक संस्कृति और रिश्तो को भी किसी निर्मल निर्झरिणी की तरह बहते हुए देखते हैं। ‘मायके का हरसिंगार’, ‘बच्चा’, ‘हमारे पिता है वह’, ‘रिश्तो की उजास भरी बतकहियाॅं, ‘बचपन और बाजार’, ‘होती है एक अक्षय तृतीया’, ‘पिता का गमछा’ और ‘गांव’ जिसमें भाव पक्ष सशक्त रूप से उभर कर आता है। साथ ही ‘मां’ और ‘बेटियां– तीन संदर्भ’ जैसी कविताएं भावनाओं के साथ ही कला पक्ष का सशक्त रूप लेकर प्रस्तुत होती है। ऐसे गहन भाव और संगम ही कवि की कल्पना को उच्चकोटिय रचना की ओर ले जाते हैं। ‘मां’– में–
हृदय के अंतः स्थल पर, /मेरे बचपन के डर को जब वह/कसकर दबोच लेती है/ स्नेहा सा बहता अमृत/ पुष्ट होता संस्कार /मुझे चमकते भविष्य का आभास/ देता है

‘बेटियां’—
वैदिक ऋचाओं की/ स्वयंभू रचनाएं बनो/ नन्ही वंदनाएं/ नवल प्रभात सी आशाएं/ युग संदर्भ की कथाएं
कविता के यही सुंदर, प्रेममयी और आध्यात्मिक भाव पाठक के अंतर्मन को स्पर्श करते हैं।
तथ्य ,भाव, शब्द, व्यंजना, व्याकरण, कल्पना के रंगों के साथ सत्यता की कठोर धरातल से बुनी गई कविताएं काव्य का जीवंत स्वरूप प्रकट करती है, जो पाठकों को भी उसमें भीगो देती है।
प्रतिनिधि कविता ‘ताकि मैं लिख सकूं’ में वह अपनी मां- नानी की तरह ही ईश्वर से बस परिवार और समाज की सुख की ही कामना करती दिखाई देती है—
प्रभु तुम्हारी कलम दे दो मेरे हाथ /कुछ पल के लिए/ ताकि मैं लिख सकूं कुछ ऐसा/ कुछ कविताएं/कि चारों ओर न फैले/ दु:ख का क्रंदन
कुछ दार्शनिक रूप की झलकियां दिखा जाती है, जैसे ‘रोशनदान में से झांकती नन्ही किरणें हो और संग्रह में उजास भरने आई हो।
‘रेखाओं का सच’, ‘मृग मरीचिका’, ‘ताकि गुनगुना सके कालिदास’, ‘मेरे कमरे की दुनियाँ, ‘धूप रथ’, ‘ए मां तू जाग जा’, ‘चाहे रेल इंजन हो या सृष्टि’, ‘टूटे मन की वेदना’ आदि कविताएं।
‘बस जमीं ही मेरी है’—–

आसमान हो या समुद्र/महज पर्यटन ही तो/ बनकर रह जाते हैं/ घूमने– इतराने/ और टहलने की जगह/ बस जमीं ही मेरी है/ कुछ गज/ ना वह आसमान की ओर उड़ती/ और ना ही समुद्र की तरह लहराती/ रेत छोड़ती
अकविता के गहन साक्ष्य को छोड़ती गंभीरतम चिंतन और रहस्य को उजागर करती सीमा जी की कविताएं हमें चिंतनशील भी बनाती है।
युवा पीढ़ी, नवनिर्मित समाज को भी वह भूली नहीं है। उनके साथ कदम ताल मिलाकर चलने के आकांक्षा ही उनकी कविताओं में झांकी नजर आती है। ‘नव पुष्प’ में पुष्प के माध्यम से नई पीढ़ी को आशीर्वाद देती आवाज है तो ‘नव पीढ़ी को समर्पित’ में वह कहती है—

मेरे पीछे-पीछे/ आ रही नाव पीढ़ी/ इससे खेले/ इसे दुलारे /इनमें से/ संचित करें/ नव बीज/और बना ले/ एक वटवृक्ष साहित्य का….

आहा! कैसी खूबसूरत सी कामना लिए हुए हैं कवित्री। हम साहित्यकारों को यह आकांक्षा हमेशा हृदय में लिए हुए होना चाहिए कि युवा पीढ़ी साहित्य के वट वृक्ष को और विशाल ऊंचा बनाएंगे, सहेंजेंगे।
चूंकि, कवित्री झाबुआ में रहती है तो झाबुआ की आदिवासी महिलाओं पर लिखी संवेदनशील कविता बरबस ही संग्रह में ध्यान ध्यान खींच लेती है ।
नारी शक्ति पर बहुत कुछ लिखा जाता रहा है, परंतु कुछ पन्ने ऐसे होते हैं जो नारी के साहस और हौसलों को पवित्र मंत्रों की तरह गुनगुना उठाते हैं। बस ऐसी ही कविता है–‘ झाबुआ जिले की आदिवासी महिलाएं’—-

दिनभर जूंझती हो/ बूढ़े बैलों और कंसुइयों से/ कंगालती हो /धरती का सीना/ कठोर खुरदुरे हाथों की/ कर्मठ उंगलियों से/ पाटती रहती हो/ दरारों को……..
दांत पंक्तियों में मुस्कुराती ईश्वरीय हंसी/ मजबूत इरादों से बनी ठनी रहती हो…

जहां अधिकतर आदिवासी महिलाओं की बाहरी सुंदरता को परखा और उकेरा जाता है, वहीं सांझे चूल्हे सी, भावों की पवित्र अग्नि प्रज्वलित करती कवित्री आदिवासी महिलाओं के आंतरिक गुणों और सुंदरता को वर्णित करती है।
परंपरा ,संस्कार ,पारिवारिक रिश्ते, सामाजिक नियम- कायदे, बेटियां, मां, पिता, मायका, सांकेतिक प्रेम, अध्यात्म और दर्शन जैसे विविधता भरे विषयों की कविताओं से सबको मंत्रमुग्ध कर देती है और हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो नानी मां का खजाने से भरा पिटारा खुल गया है। अपनी स्वाभाविक और सरल शैली में अंतिम दो कविताएं उनकी परिपक्वता और प्रेरणादायी विचारों के साथ अपनी उत्कृष्ट छाप छोड़ जाती है—

चले ं अब—
उन /सिंदुरी भावनाओं के/ छोर पर /जहां उगती किरणों की/ उर्मियों से/ ऊर्जस्विता का/ फैलता आंगन हो/ फूल की यात्रा चलती रहे/सृष्टि का यह क्रम है/ प्रवाह बनकर /बहता रहेगा / जीवन की सार्थकता /इसी में है/ जिन्हें अपनों की कामनाएं/ शुभकामनाएं बनकर /मिले…….तो फूल की यह यात्रा चलती रहे/ अपनों की दुआएं फलती रहे…..

इसी के साथ अंतिम कविता के सुंदर फूलों को मुख्य पृष्ठ पर सजाकर कवित्री ने लिखते रहने का मानव संकल्प ले लिया
ऐसे ही सुरम्य बगीची रूपी संग्रह की यात्रा चलती रहे और फिर नानी- दादी माँ के यादों रूपी पिटारे से ममता मयी आंचल से, संवेदनाओं के फूल, कवित्री की कलम से झरते रहे।

‘ताकि मैं लिख सकूँ’
(काव्यसंग्रह) –डाॅ सीमा शाहजी
( साहित्य अकादमी भोपाल के सहयोग से प्रकाशित)
आईसेक्ट पब्लिकेशन
मूल्य–250/–

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समीक्षक—
सुषमा व्यास राजनिधि’ इंदौर

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