क्योंकि..डर के आगे जीत है!
जयराम शुक्ल
कई विज्ञापनों के स्लोगन बड़े प्रेरक होते हैं। बैद्धिक लोग प्रायः इन्हें बाजारू समझकर अपने विमर्श से दूर ही रखते हैं, जबकि एक पंक्ति के कुछ शब्द इनके निबंधों, कविताओं पर बहुत भारी पड़ते हैं। जहाँ ये पंच लाइनेंं बाजार के लिए लोगों को जगाने के लिए मंत्र का काम करती हैं वहीं निबंध और कविताओं के पन्ने पुड़िया बनाने के काम आते हैं।
पत्रकारिता का छात्र और अध्यापक होने के नाते विज्ञापनों की संचारी शक्ति के बारे में हमेशा से जिज्ञासु रहा हूँ। वास्तविकता यह है कि पत्रकारिता जहां खत्म होती है वहां से विज्ञापन कला शुरू ।
यह भी कम दिलचस्प नहीं कि बाजार और ग्राहकों के लिए कुछ शब्दों में प्रभावशाली पंच लाइनेंं लिखने वाले वैसे ही ओझल रहते हैं जैसे कि कभी दरियागंज में लुगदी साहित्य लिखकर गृहस्थी का खर्चा चलाने वाले कमलेश्वर जैसे बड़े साहित्यकार।
यह कम लोगों को पता होगा कि सत्यजीत रे जैसे महान फिल्मकार ने विज्ञापनों के स्लोगन लिखे और उसे डिजाइन किया। आईटीसी की सिगरेट के विज्ञापन हेतु कंपनी ने उन्हें ताउम्र अनुबंधित कर रखा था।
आज वह स्थित नहीं। प्रसून जोशी और पियूष पांडे जितना अच्छा विज्ञापनों के नारे रच रहे हैं उतना ही अच्छी कविताएं और गीत। नामचीन शायर जावेद अख्तर भी विज्ञापनों की दुनिया रमे हैं।
विज्ञापनों की कई पंच लाइनें मुझे अभी भी झकझोरती और प्रेरित करती हैं। अस्सी के दशक में हाँटशाट कैमरे के प्रचार का स्लोगन था ‘जस्ट ऐम एन्ड शूट’। करियर बनाने वाले युवाओं के लिए इससे प्रेरक पंक्ति और क्या हो सकती है।
एक घटिया सिगरेट का विज्ञापन कितना आत्मविश्वास जगाता है। ‘आई गेट व्हाट आई वान्ट’ माने कि- जो मैं चाहता हूँ वह पाकर ही रहता हूँ।
एक औद्योगिक घराने के ब्रैंड का ब्रह्मवाक्य है – ‘नो ड्रीम टू बिग’ कोई सपना इतना भी बड़ा नहीं होता जिसे हम पूरा न करें। सही बात, इस औद्योगिक घराने के मालिक ने सबइंजीनियरी छोड़ी ठेकेदारी शुरू की। एक दशक के भीतर ही वे सीमेंट के टाइकून हो गए, हायडल, डैम, एक्सप्रेस वे, रियलस्टेट के महाराजा।
सचमुच उन्होंने सपने को यथार्थ में बदलकर दिखा दिया। यह अलग बात है कि यथार्थ को स्थाई और निरंतर नहीं बना पाए। सपना भले ही खंडित हो गया हो पर एक नजीर तो बन ही चुका है, वे और उनका साम्राज्य।
गए साल यूरोपीय यूनियन के सांसदों को कश्मीर का भ्रमण कराने वाली मोहतरमा ने एक इन्टरव्यू में बताया था कि उन्होंने समोसे बेंचकर लायजनिंग करियर की शुरुआत की थी। वे अब दुनिया की प्रभावशाली लायजनिस्ट और लाबिस्ट हैं।
जहाँ राजनय से काम नहीं निकलता वहां अनुनय की कला से काम सध जाता है, मोहतरमा ने इस मंत्र को जगा लिया। कई देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति व उनकी सरकारें इनकी क्लाइंट हैं। यूरोप में रईसी ठाट के साथ जी रही अबला(परितकत्वा सिंगल मदर) ने दुनिया को बता दिया- ‘नो ड्रीम टू बिग’, वाकय!
विज्ञापन का एक और पंच मुझे बड़ा अर्थवान लगता है- रिस्क उठा नाम कमा! यद्यपि इस पंक्ति का उस कोल्ड ड्रिंक से गुणों से कोई लेना-देना नहीं जिसे रामदेव लैट्रिन साफ करने वाले एसिडिक केमिकल का विकल्प बताते हैं। लेकिन नारे में दम तो है।
कभी नाइजीरिया के पेट्रोल पंपों में तेल भरने वाले सीनियर अंबानी ने 15 हजार रुपए की उधारी के साथ जो रिस्क उठाया उसका प्रतिफल यह हुआ कि टाटा-बिडला को फेल करते हुए स्वर्णशिखर पर जा बैठे।
रिस्क उठाकर ही नाम कमाया जा सकता है, अच्छा या बुरा। चाहे एपीजे अब्दुल कलाम बन जाओ, चाहे बगदादी या ओसामा बिन लादेन, दोनों विकल्प हैं। ऊँचे उठकर लोग नाम कमाते हैं तो उससे दूना नीचे गिरकर भी नाम कमाने वाले हैं।
जिंदगी में रिस्क उठाना ही मनुष्य का टर्निंग प्वाइंट रहा है। जो रिश्क उठाने से डरा समझो सांसारिक दुनिया में मरा। जो जिंदा हैं.. उनके लिए मिस्टर नटवरलाल फिल्म का एक डायलॉग ही काफी है- ये जीना भी कोई जीना है लल्लू।
मुझे अब तक विज्ञापनों का जो सबसे पावरफुल पंच लगा वो है- डर के आगे जीत है’ जिसने भी इसे लिखा उसने व्यवहारिक जिंदगी का निचोड़ ही लिख दिया।
अमूमन नब्बे फीसदी लोग डर के मारे उस पार जाने का रिश्क ही नहीं उठाते। डरपोक जिंदगी के लोभ में मर जाते हैं। राजनीति का तो यह प्राणवाक्य है। चुटकी भर का वियतनाम सालों-साल अमेरिका को पदाए रखा और अफगानिस्तान के भुख्खड़ तालिबानियों ने भी बता दिया कि डर से जीत के मायने क्या हैं।
हम हाल के संदर्भों में देखें तो और समझ में आएगा। आजादी के बाद से नासूर बने कश्मीर को लेकर हर कोई कहता- 370 से छेड़छाड़ मत करियो नहीं तो खून का दरिया बह जाएगी। 370 से छेड़छाड़ क्या संविधान से उसका पन्ना ही फाड़कर फेक दिया, डराने वाले बस देखते ही रह गए।
डर के साथ दो बाते हैं- वस्तुतः जीत दोनों में है। दूसरों को डराए रखना भी डर के आगे जीत की तरह है। डर से जीतने और दूसरों में डराकर रखने वाले ही सिंकदर कहलाते हैं…चाहे कुश्ती के अखाड़े में महाबली गामा हों या कि सियासत के मैंदान में नरेन्द्र मोदी।
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