Becoming IAS and IPS: भारत में IAS और IPS बनना जुनून जैसा 

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Becoming IAS and IPS: भारत में IAS और IPS बनना जुनून जैसा 

एन के त्रिपाठी का कॉलम

एक पूर्व IPS अधिकारी होने तथा UPSC सिविल सर्विसेज़ के इंटरव्यू बोर्ड में तीन बार बैठने के नाते मुझे ‘12th फेल’ मूवी देखने की बहुत उत्सुकता थी। मूवी में एक ईमानदार और आदर्शवादी युवक बहुत विपरीत और गरीब परिस्थितियों में IPS बनने में सफल हो जाता है। भिंड ज़िले के दूरस्थ गांव में रहने वाले इस छात्र के पिता अपनी छोटी सी नौकरी में ईमानदारी के कारण सस्पेंड हो जाते हैं। परिवार मज़दूरी से चलता है। मूवी बहुत मार्मिक और अच्छी है परंतु इसके पात्र की आदर्शवादिता आज कम दिखाई देती है। एक अन्य Aspirants नामक OTT सीज़न में दिल्ली के राजेन्द्र नगर के कोचिंग बाज़ार में हज़ारों की संख्या में UPSC में सफल होने का सपना लेकर आये उम्मीदवारों का जीवन दिखाया गया है। ये युवक अपने जीवन का सर्वोत्तम समय कोचिंग फैक्ट्रियों में खपा देते हैं। इस कहानी में एक पात्र IAS बनने में सफल हो जाता है, जो ‘12th फेल’ के पात्र के समान बहुत आदर्शवादी तो नहीं है और बहुत सहजता से ब्यूरोक्रेटिक संस्कृति में ढल जाता है। अफ़सर बनने में असफल प्रत्याशियों के निराशाजनक भविष्य का चित्रण भी किया गया है।

सर्वोच्च सिविल सेवाओं की भारत की सबसे कठिन परीक्षा में सफल होने की उत्कंठा अनेक युवाओं में होती है। वैसे सामान्यतया स्कूली शिक्षा में मेधावी छात्र IIT, IIM तथा NEET जैसी परीक्षाओं में अपनी प्रतिभा और भाग्य आज़माते है। इनके लिए कोटा जैसे सैकड़ों कोचिंग सेंटर उपलब्ध है। इन परीक्षाओं में सफलता उन्हें भविष्य में व्यावसायिक सफलता की गारंटी देती है। ये छात्र अपेक्षाकृत कम आयु में अपना भविष्य निर्धारित कर लेते हैं। कुछ महत्वाकांक्षी छात्र राज्य सिविल सेवाओं की परीक्षाओं में अपना भाग्य आज़माते हैं।

इन करियरों से हटकर और बड़ी महत्वकांक्षा से अनेक युवक युवतियाँ छात्र-जीवन में डिग्रियां प्राप्त करने के बाद UPSC की परीक्षा को क्रैक करने के लिये कोचिंग सेंटरों में वर्षों तक लगे रहते हैं। कुछ दशकों से उम्मीदवारों की अधिकतम आयु तथा सिविल परीक्षा में प्रयासों की संख्या बढ़ाएं जाने से ये युवक लंबे समय तक इन कोचिंग सेंटरों में पड़े रहते हैं। इनमें से अधिकांश युवा मध्यम वर्गीय एवं निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के होते हैं जो अपनी अथवा अपने माता पिता की महत्वकांक्षा के कारण इन परीक्षाओं में वर्षों लगे रहते हैं। इसके लिए इनके माता पिता भारी आर्थिक त्याग करते हैं। ये युवा सिविल आधिकारी बनने के लिए कोचिंग सेंटरों की ओर आकर्षित होते हैं। कोचिंग सेंटरों ने परीक्षा देने की पूरी ललित कला विकसित कर ली है। यहाँ प्रत्येक विषय के प्रश्न पत्रों का विश्लेषण करके हर प्रकार के सवालों के तैयार उत्तर उम्मीदवारों के मस्तिष्क में डालने का प्रयास किया जाता है। संभावित प्रश्नों का भी अनुमान लगाया जाता है। उम्मीदवारों को प्रश्नों का उत्तर देने की कुशल मशीन बना दिया जाता है। विषय का रुचि के साथ रसास्वादन कर उसकी गहराई तक जाने का यहाँ किसी के पास समय नहीं होता है। लाखों मे से कुछ सौ छात्र ही सफल हो पाते हैं। सफल छात्रों के बराबर की योग्यता रखने वाले बड़ी संख्या में अन्य उम्मीदवार भी होते हैं जो दुर्भाग्यवश असफल हो जाते हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि सीमित पद होने के कारण सभी योग्य एवं परिश्रमी उम्मीदवार सफल नहीं हो सकते। सिविल सेवाएँ रोज़गार देने का माध्यम नहीं है। असफल उम्मीदवार अपने घरों की आर्थिक क्षति करने तथा युवावस्था गँवा देने के बाद अपने प्लान B के अनुसार दूसरे कामों में चले जाते हैं अथवा समाज के नेपथ्य में गुम हो जाते है।

बहुत से उम्मीदवार परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत विकट होने के कारण अथवा लड़की होने के कारण घर पर ही रह कर इस परीक्षा की तैयारी करते हैं। इनमें से कुछ सफल भी हो जाते हैं। UPSC के इंटरव्यू बोर्ड में मुझे तीन बार बैठने का अवसर मिला। एक बार दक्षिण भारत की एक लड़की मेरे इंटरव्यू बोर्ड के समक्ष आयी। उसने जिस सहजता, आत्मविश्वास और बुद्धि कौशल के साथ प्रश्नों के उत्तर दिए उससे पूरा बोर्ड प्रभावित हो गया। उसकी विषय और वास्तविक जीवन दोनों की समझ अद्वितीय थी। उस वर्ष की परीक्षा में उसे मेरिट में स्थान मिला। वह एक ऑटो चालक की बेटी थी और उसने कभी कोचिंग सेंटर नहीं देखा था।

TV पर मूवी और सीज़न देखने के बाद मुझे अपनी IPS परीक्षा की याद आ गई। उन दिनों UPSC परीक्षा की अधिकतम आयु एवं परीक्षा के प्रयासों की संख्या सीमित थी। मैंने BA प्रथम वर्ष से IPS की तैयारी शुरू की। उस समय BA दो वर्ष का हुआ करता था। प्रतिदिन रात में तीन चार घंटे नियमित रूप से पढ़ता था तथा सुबह टाइम्स ऑफ़ इंडिया पढ़ता था। अपने विषय की पढ़ाई में मुझे बहुत आनंद आता था। सारे दिन फिर मैं दोस्तों के साथ मौज मस्ती में घूमता रहता था। कभी- कभी मैं मनोरंजनार्थ नेशनल हेराल्ड में अंग्रेज़ी आर्टिकल लिखा करता था। 1973 में जब मैं MA प्रथम वर्ष में था तब मैं केवल IPS की परीक्षा में बिना किसी तनाव के बैठा तथा पहले प्रयास में ही IPS बन गया। इसके कुछ महीनों मैंने बाद MA फ़ाइनल की परीक्षा पूर्ण की।

भारत में IAS और IPS बनने का जैसा जुनून है, वह विश्व के किसी देश में नहीं है। हमारे समाज की पुरातन सामंतवादी मनोवृत्ति इन सर्वोच्च सरकारी पदों के लिए प्रेरित करती है। संभवत: इस सामंतवादी मनोवृत्ति की जनक हमारे लंबे ग़ुलामी काल में उत्पन्न हुई कुंठा हो सकती है। स्वतंत्रता के बाद अनेक सिविल सर्वेंट रुतबे की ज़िंदगी के लिए इन सेवाओं में आते थे। अब अनेक अधिकारी इन पदों पर रुतबे के साथ-साथ एक सुविधाजनक जीवन की आकांक्षा भी रखते हैं और इसके लिए समझौते करने के लिए भी तत्पर रहते हैं।