नगर निकाय अध्यक्ष निर्वाचन सीधे जनता द्वारा होना श्रेयस्कर

आखिर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले बाद राज्य सरकार प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत एवं नगर निकाय निर्वाचन कराने में जुट गई है।

पंचायत चुनावों का कार्यक्रम घोषित होगया है। वहीं नगर पालिका, नगर परिषद एवं नगर निगमों के निर्वाहन में एकमत नहीं होने ऊहापोह की स्थिति में राज्यपाल के पास अलग अलग अध्यादेश भेजे ओर वापस लिए गए।

अब नये अध्यादेश के मुताबिक प्रदेश के 16 नगर निगमों के महापौर का निर्वाचन सीधे जनता द्वारा होगा जबकि नगर पालिकाओं और नगर परिषदों के अध्यक्ष का चयन निर्वाचित पार्षद करेंगे।

यह स्थिति अप्रीतिकर और हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा देने के साथ क्षेत्र की जनता के प्रति सीधे जवाबदेही से दूर करने वाली सिद्ध होगी।

यूं तो प्रदेश के 16 नगर निगमों, 99 नगर पालिकाओं और 292 नगर परिषदों के चुनाव आगामी जुलाई-अगस्त में संभावित हैं।

ओबीसी सहित अन्य आरक्षण प्रतिशत में उलझनें चलती रही सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस आरोप- प्रत्यारोपण करती रही।

विगत तीन सालों में दोनों दलों की सरकारें रही पर नगर निकायों और पंचायतों के चुनाव नहीं हुए। कोरोना संक्रमण काल भी विशेष व्यवधान रहा।

राज्यपाल को भेजे अध्यादेशों में सरकार ने प्रदेश के 16 नगर निगमों के महापौर सीधे जनता चुनेगी जबकि नगर पालिकाओं व नगर परिषदों के अध्यक्ष चयन पार्षद करेंगे यह विरोधभासी निर्णय सरकार का समझ से परे है।

महापौर निर्वाचन के पीछे सरकार और मंत्री भूपेन्द्रसिंह के तर्क हैं कि महानगरों एवं बड़े शहरों में जारी तेज़ी से विकास को आधार बनाया है और प्रचलित योजनाओं को क्रियान्वित करने और एक सही दिशा देने के लिए सशक्त नेतृत्व आवश्यक माना है।

मंत्री के मुताबिक केंद्र सरकार भी शहरी विकास पर विशेष ध्यान दे रही है।

अब सवाल है कि नगर पालिका एवं नगर परिषद में भी राज्य व केंद्र की वित्त पोषित योजनाएं जारी हैं और इन स्थानीय संस्थाओं को सुदृढ़ करना भी सरकारों का लक्ष्य है ऐसे में नगर निगमों और नगर पालिकाओं के अध्यक्ष निर्वाचन में भेद करना न्यायोचित नहीं है।

1999 तक व्यवस्था में अध्यक्ष चयन पार्षदों द्वारा हुआ इसके बाद जनता ही अपने महापौर एवं अध्यक्ष अर्थात प्रथम नागरिक का निर्वाचन करती रही है । अब 22 साल बाद फिर पैटर्न बदलने की मंशा ज़ाहिर हुई है।

प्रदेश की डेढ़ दर्ज़न से अधिक बड़ी नगर पालिकाएं हैं, जिनमें सौ साल पुरानी भी शामिल हैं। इनमें नागरिकों की जागरूकता भी देखने में आई है।

तीन चुनावों में जनता द्वारा सीधे अध्यक्ष चुने गए और वे अधिक जनता से जुड़े रहे, जवाबदेह रहे और परिणाम देते पाए गए अब नये अध्यादेश से जनता को उसके अधिकारों से वंचित करने का प्रयास होगा।

जानकारों का तर्क है कि जब राजनीतिक पार्टियों के चुनाव चिन्ह घोषित हैं और महापौर एवं पार्षद सिम्बोल पर चुनाव लड़ेंगे तो क्यों नहीं जनता ही अपने नगर का प्रथम नागरिक-अध्यक्ष को चुने।

प्रदेश की नगर पालिकाओं में 30 से 50 के बीच पार्षद और नगर परिषदों में 12 से 21 तक पार्षद अध्यक्ष चुनेंगे अर्थात अधिकार विकेन्द्रित न होकर सीमित लोगों को होंगे। जो निश्चित रूप से प्रजातान्त्रिक मूल्यों के विपरीत होंगे।

गौरतलब है कि नगर निकाय निर्वाचन में लगभग सवा दो करोड़ मतदाता भाग लेंगे पर अध्यक्ष चुनने का अधिकार मात्र 7- 8 हजार पार्षदों को मिलेगा?

यह कदम राजनीतिक दलों के लिए भी सिरदर्द साबित होगा। जब निष्ठा दल के प्रति नहीं होकर व्यक्ति के प्रति होना तय है, दलबदल को प्रोत्साहन मिलेगा वहीं हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा मिलेगा।

नये निर्देश में नगर पालिका पार्षदों की व्यय सीमा ढाई लाख और नगर परिषद में 75 हजार रुपये की तय हुई है पर यह न्यूनतम है।

जब निर्वाचित पार्षद अध्यक्ष का चयन करेंगे तो उनकी अपेक्षायें बड़ी और मुखर होगी। वहीं सीधे निर्वाचन नहीं होने की स्थिति में लगभग चार सौ प्रतिनिधि जनता द्वारा निर्वाचित नहीं होंगे।

टियर टू, टियर थ्री एवं बढ़ते शहरी क्षेत्रों में स्वाभाविक विकास प्रभावित होने की आशंका है।

देश की राजनीतिक व्यवस्था में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का महत्व है अब सरकार ही लगभग चार सौ जनप्रतिनिधि कम कर जनता के अधिकार सीमित कर रही है। यह परिस्तिथियां नगर सरकारों के सुचारू संचालन में बाधक होगी।

स्वयं सेवी संगठनों, सामाजिक संस्थाओं, जागरूक नागरिकों, कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा, नगरीय विकास मंत्री भूपेंद्रसिंह, मुख्य सचिव इक़बाल सिंह बेस से इस निर्णय पर पुनर्विचार की मांग की है।

संगठनों का कहना है कि नागरिकों के प्रजातान्त्रिक अधिकारों के हित संरक्षण के लिए नगर पालिकाओं और नगर परिषद अध्यक्षों का निर्वाचन सीधे जनता द्वारा कराना चाहिए। यह पहले से ही व्यवस्था लागू है इसमें बदलाव नहीं होना चाहिए।