Bhopal Gas Tragedy: आखिर कैद से आजाद हो गई “शीशों का मसीहा”…

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Bhopal Gas Tragedy: आखिर कैद से आजाद हो गई “शीशों का मसीहा”…

कौशल किशोर चतुर्वेदी

भोपाल गैस त्रासदी अब 40 साल की हो गई है। विश्व की इस भीषणतम गैस त्रासदी का जिक्र अब भी रूह को कंपा देता है। 36 साल तक भोपाल के गैस पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए आवाज बुलंद करती रहीं हमीदा बी 2020 में और भोपाल के गैस पीड़ितों के मसीहा के रूप में पहचान रखने वाले अब्दुल जब्बार 2019 में इस दुनिया से विदा हो गए थे। इन्होंने गैस पीड़ितों के संघर्ष का नेतृत्व किया था। 35-36 साल बाद यह मसीहा विदा हो गए तो गैस त्रासदी पर बनी डंक्युमेंट्री ‘शीशों का मसीहा’ भी 38 साल से सरकारी कैद में घुट रही थी। प्रतिबंध के चलते इसका प्रदर्शन नहीं हो पा रहा था। खास बात यह है कि मसीहा भी जाते रहे और गुनहगार भी विदा हो रहे हैं, पर ‘शीशों का मसीहा’ का दर्द अब भी वैसा का वैसा ही था। पर 2024 की 2 दिसंबर को फिल्म निर्देशक की सहमति से गैस पीड़ितों ने इस डॉक्युमेंट्री को देखकर उस त्रासदी का त्रास महसूस किया। और आखिर बिना सरकारी सहमति के ही सही, ‘शीशों का मसीहा’ सरकारी कैद से आजाद हो गई।

मध्यप्रदेश सरकार हर साल 2-3 दिसंबर 1984 की रात को काल कवलित हुए पीड़ितों को 3 दिसंबर को श्रद्धांजलि देकर अपना फर्ज पूरा करती है। यह सरकारी आयोजन सर्वधर्म सभा के रूप में हर साल होकर साल के बाकी 364 दिन के लिए विदा ले लेता है। हालांकि मुख्यमंत्री के रूप में डॉ. मोहन यादव के लिए इसमें शामिल होकर संवेदनशीलता जताने और श्रद्धांजलि अर्पित करने का यह पहला साल है।

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तो फिर बात ‘शीशों का मसीहा’ की। दरअसल 2-3 दिसंबर 1984 की कालभरी अंधियारी रात गैस हादसे के पर प्रसिद्ध फिल्मकार मुजफ्फर अली द्वारा भोपाल की गैस पीड़ित बस्तियों में घूम-घूम कर बनाई गई डाक्यूमेंट्री ‘शीशों का मसीहा’ पिछले 38 साल से उस मसीहा की तलाश में थी, जो इसे कैद के अंधेरे तहखाने से बाहर निकालकर सबके बीच में ला सके। और अंतत: गैस पीड़ितों को इसमें सफलता मिल ही गई। इस फिल्म के बैक ग्राउंड में प्रसिद्ध उर्दू कवि फैज अहमद फैज की चर्चित नज्म ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं ’ चलती रहती है। तो आज 40 साल की इस त्रासदी पर हम इस नज्म से रूबरू होते हैं। वैसे तो यह डॉक्युमेंट्री बहुत लोगों ने देखी भी होगी और अब संभावना ट्रस्ट ने निर्देशक की अनुमति से करीब 27 मिनट की इस डॉक्युमेंट्री ‘शीशों का मसीहा’ का प्रदर्शन किया गया। ये फिल्म 85 में बनाई गई थी और संसद में दिखाने के बाद इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। संभावना ट्रस्ट की रचना ढीगरा ने बताया कि फिल्म मार्मिक, संवेदनशील और दर्द से भरी है।नर्मदा में शवों का प्रवाह, मर्चुरी से अपनों के शवों को ढूढने के ह्रदय विदारक दृश्य और त्रासदी की पीड़ा का मर्मांतक वर्णन आंखों को नम कर देता है। तो आज हम फैज अहमद फैज की नज्म ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं…’ पढ़ते हैं। वास्तव में यह नज्म बहुत कुछ कहती है।

‘शीशों का मसीहा कोई नहीं…

 

मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर

जो टूट गया, सो टूट गया

कब अश्कों से जुड़ सकता है

जो टूट गया, सो छूट गया

तुम नाहक़ टुकड़े चुन-चुन कर

दामन में छुपाए बैठे हो

शीशों का मसीहा कोई नहीं

क्या आस लगाए बैठे हो

शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं

वो साग़रे दिल है जिसमें कभी

सद नाज़ से उतरा करती थी

सहबा-ए-ग़मे-जानाँ की परी

फिर दुनिया वालों ने तुमसे

यह साग़र लेकर फोड़ दिया

जो मय थी बहा दी मिट्टी में

मेहमान का शहपर तोड़ दिया

यह रंगीं रेज़े हैं शायद

उन शोख़ बिलोरी सपनों के

तुम मस्त जवानी में जिनसे

ख़िलवत को सजाया करते थे

नादारी, दफ़्तर भूख़ और ग़म

इन सपनों से टकराते रहे

बेरहम था चौमुख पथराओ

यह काँच के ढाँचे क्या करते

 

या शायद इन ज़र्रों में कहीं

मोती है तुम्हारी इज़्ज़त का

वो जिससे तुम्हारे इज़्ज़ पे भी

शमशाद क़दों ने रश्क किया

इस माल की धुन में फिरते थे

ताजिर भी बहुत, रहज़न भी कई

है चोर नगर, या मुफ़लिस की

गर जान बची तो आन गई

यह साग़र, शीशे, लाल-ओ-गुहर

सालिम हों तो क़ीमत पाते हैं

और टुकड़े-टुकड़े हों तो फ़कत

चुभते हैं, लहू रुलवाते हैं

तुम नाहक़ शीशे चुन-चुन कर

दामन में छुपाए बैठे हो

शीशों का मसीहा कोई नहीं

क्या आस लगाए बैठे हो

यादों के गिरेबानों के रफ़ू

पर दिल की गुज़र कब होती है

इक बख़िया उधेड़ा, एक सिया

यूँ उम्र बसर कब होती है

इस कारगहे हस्ती में जहाँ

यह साग़र, शीशे ढलते हैं

हर शय का बदल मिल सकता है

सब दामन पुर हो सकते हैं

जो हाथ बढ़े, यावर है यहाँ

जो आँख उठे, वो बख़्तावर

याँ धन-दौलत का अंत नहीं

हों घात में डाकू लाख मगर

 

कब लूट-झपट से हस्ती की

दूकानें ख़ाली होती हैं

याँ परबत-परबत हीरे हैं

याँ सागर-सागर मोती हैं

 

कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर

परदे लटकाए फिरते हैं

हर परबत को, हर सागर को

नीलाम चढ़ाए फिरते हैं

कुछ वो भी है जो लड़-भिड़ कर

यह पर्दे नोच गिराते हैं

हस्ती के उठाईगीरों की

चालें उलझाए जाते हैं

 

इन दोनों में रन पड़ता है

नित बस्ती-बस्ती, नगर-नगर

हर बस्ते घर के सीने में

हर चलती राह के माथे पर

 

यह कालिक भरते फिरते हैं

वो जोत जगाते रहते हैं

यह आग लगाते फिरते हैं

वो आग बुझाते फिरते हैं

 

सब साग़र,शीशे, लाल-ओ-

गुहर

इस बाज़ी में बह जाते हैं

उट्ठो, सब ख़ाली हाथों को

उस रन से बुलावे आते हैं…।