यादों के झरोखों से गौरवान्वित करता है भोपाल…

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यादों के झरोखों से गौरवान्वित करता है भोपाल…

एक जून भोपाल के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण तारीख है। इसने ही भोपाल रियासत और भोपालवासियों को आजाद हवा में सांस लेने के पल मुहैया कराए हैं। यह भोपाल रियासतवासियों की बदनसीबी ही थी कि एक मुस्लिम शासक ने आजादी के बाद भी भोपाल को भारत में नहीं मिलने दिया था। यह उस शासक की कुत्सित सोच का ही आइना है कि भारत के दिल में स्थित राज्य के उस शासक के दिल में पाक धड़कता था। वह शासक था नवाब हमीदुल्लाह खाँ। 15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतंत्रत हुआ था, उस समय भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह खाँ ने भोपाल राज्य को स्वतंत्र रखने का निर्णय लिया था। और भोपाल को नवाब के चंगुल से आजाद कराने में रियासत की जनता ने शहादत भी दी और  संघर्ष भी किया। तब अंत में सरदार वल्लभ भाई पटेल के ठोस इरादों ने नवाब के मंसूबों पर पानी फेरते हुए भोपाल रियासत का भारत में विलय करवाया था। और यही तारीख एक जून 1949 की थी। भोपाल का यह विलीनीकरण दिवस ही अब भोपालवासियों का गौरव दिवस है।

वैसे भोपालवासियों ने हमेशा ही गुलामी का पुरजोर विरोध किया है। एक संदर्भ यह भी है कि 1857-58 में रियासत की फौज में बगावती गतिविधियों के साथ ही अनूठी “सिपाही बहादुर” नाम की समानांतर सरकार की शासन व्यवस्था का विवरण ‘गदर के कागज़ात’ दस्तावेज़ों के हवाले से मिलता है। “सिपाही बहादुर” समानांतर सरकार के झंडे के रूप में केसरिया रंग के निशान ए महावीरी के साथ ही हरे रंग का निशान ए मुहम्मदी लगाया जाता था। इस प्रकार दो रंगों का यह दुरंगा झण्डा अंग्रेजों व नवाबी शासन के विरुद्ध हिन्दू-मुस्लिम फौजियों के संयुक्त संघर्ष का प्रतीक था। इसीलिए भोपाल की गंगा जमुनी तहज़ीब की मिसाल पेश की जाती है।

और फिर पहले स्वतंत्रता संग्राम के 90 साल बाद पाक परस्त नवाब भोपाल द्वारा भोपाल रियासत को स्वतंत्र भारत में नहीं मिलाए जाने के षड्यन्त्र के विरुद्ध भोपाल रियासत के निवासियों ने व्यापक विलीनीकरण आन्दोलन चलाया था। जिसके प्रणेता भाई रतनकुमार रहे और उनके द्वारा निकाला गया पत्र ‘नई राह’ इस आन्दोलन का बिगुल व मुखपत्र बना। इस आन्दोलन के बीच ही नर्मदा घाट बोरास में 14 जनवरी 1949 को मकर संक्रांति के परंपरागत मेले में 5 राजपूत नवयुवकों को तिरंगा झण्डा फहराने के दौरान नवाब के सिपाहियों द्वारा गोलियों से भून दिया गया। परन्तु उनमें से किसी ने भी तिरंगा नीचे नहीं गिरने दिया,सीने से लगा कर रखा। आखिर में मंगल सिंह अनेकों गोलियों से भी नहीं गिरा,तो उसके सीने में बर्बरता पूर्वक बन्दूक की संगीनें घोंपी गईं।  इन संगीनों के निशान रक्त से सने उस तिरंगे पर भी आ गए। इस रक्तरंजित तिरंगे का रंगीन चित्र भी ‘नई राह’ के मुखपृष्ठ पर पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की भावांजलि सहित प्रकाशित किया गया। विलीनीकरण आंदोलन के नेतृत्व में भाई रतन कुमार, प्रो. अक्षय कुमार, पत्रकार प्रेम श्रीवास्तव, सूरजमल जैन, मथुरा प्रसाद, बालकृष्ण गुप्त, मोहनी देवी, शांति देवी और बसंती देवी आदि लोगों के नाम शामिल थे। जब इस आंदोलन को गति देने के लिए भाई रतन कुमार और उनके सहयोगियों ने नई राह नामक’ अखबार निकाला। तब आंदोलन का केंद्र जुमेराती स्थित ‘रतन कुटी’ था। जहां ‘नई राह’ अखबार का कार्यालय भी था। परन्तु नवाब के आदेश पर इस कार्यालय को बंद कर दिया गया। तब होशंगाबाद से एडवोकेट बाबूलाल वर्मा के घर से भूमिगत होकर आंदोलन चलाया गया। अंततः जनता का दबाव देखकर सरदार पटेल ने हस्तक्षेप किया, जिसके कारण भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह खां को विवश होकर विलय समझौते पर हस्ताक्षर करने पड़े। इस प्रकार भोपाल 1 जून 1949 को भारत में सम्मिलित हो गया। तब हर भोपाल रियासतवासी का दिल गौरव से भरा था।

गौरव से भरने वाला एक और वृतांत है कि “15 अगस्त 1947 को भी भोपाल रियासत नवाब की गुलाम थी जहां राष्ट्रीय तिरंगा फहराना संगीन अपराध था। केवल एक इमारत जुमेराती पोस्ट ऑफिस केन्द्र शासन के अधीन थी, जहां तिरंगा विधिवत फहराया जाना अपेक्षित था। इस उम्मीद से समीप ही रहने वाले भाई रतन कुमार अपने अग्रज मदनलाल गुप्ता व साथियों रामचरण राय, अक्षय कुमार, बालकृष्ण आदि के साथ वहाँ पहुंचे तो वहाँ राष्ट्रीय तिरंगे की बजाय हरे,काले, सफेद रंग का नवाबी तिरंगा ही लहरा रहा था। पोस्ट ऑफिस प्रभारी ने मायूसी से बताया कि नवाब के सिपाही झण्डा नहीं लगाने दे रहे हैं। भाई रतनकुमार ने साथियों सहित सिपाहियों से बात की। वे दो शर्तों पर  माने कि नवाबी झण्डा तो यथावत लगा रहेगा, तिरंगा उसके साथ ही फहरा कर कुछ ही मिनटों में उतार लेना पड़ेगा। मजबूरी में इन्हीं शर्तों पर कुछ पलों के लिए राष्ट्रीय तिरंगा वंदन की यह रस्म अदायगी की गई। अंततोगत्वा 1 जून 1949, प्रथम विलीनीकरण दिवस पर सर्वप्रथम राष्ट्रीय तिरंगा प्रातःकाल विलीनीकरण आन्दोलन के केन्द्र ‘रतनकुटी’ के सामने विलीनीकरण के प्रणेता भाई रतनकुमार द्वारा फहराया गया। तदानोपरांत सायंकाल शासकीय कार्यक्रम बेनज़ीर मैदान में नवनियुक्त कमिश्नर मि. नील बोनर्जी द्वारा भी झण्डा वंदन किया गया। विलय के बाद, भोपाल राज्य को भारतीय संघ के एक भाग राज्य सी ’राज्य के रूप में बनाया गया था। बाद में 1 नवंबर, 1956 को भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप, भोपाल सी राज्य या मध्य प्रदेश बन गया। भोपाल को 02-10-1972 में जिला बनाया गया।

वास्तव में यादों के झरोखों से भोपाल हम सभी को गौरवान्वित करता है। आज यानि एक जून 2023 को विलीनीकरण के 74 वर्ष पूरे हो चुके हैं। भोपाल रियासत के आजाद होकर भारत में विलीन होने का अमृत वर्ष शुरू हो रहा है। अब मांग भोपाल का नाम बदलकर “भोजपाल” करने की भी हो रही है। भोपाल शब्द की व्युत्पत्ति अपने पूर्व नाम भोजपाल से की गई है। मध्य भारत के शाही राजपत्र, 1908 पी .240 में इसका उल्लेख मिलता है। “नाम भोपाल लोकप्रिय रूप से भोजपाल या भोज के बांध से लिया गया है, जो महान बांध अब भोपाल शहर की झीलें हैं, और कहा जाता है कि इसे धार के परमार शासक राजा भोज द्वारा बनाया गया था। तो नाम बदले उससे पहले तक हम सब भोपाल की पुरानी यादों के गौरव से भरे रहें।