लोकतंत्र की नई प्रयोगशाला बना बिहार: महिला मतदाताओं का रिकॉर्ड 71.6% मतदान-भारतीय लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक क्षण 

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लोकतंत्र की नई प्रयोगशाला बना बिहार: महिला मतदाताओं का रिकॉर्ड 71.6% मतदान-भारतीय लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक क्षण 

वरिष्ठ पत्रकार के. के. झा की विशेष रिपोर्ट 

बिहार ने एक बार फिर पूरे देश को चौंका दिया है — इस बार अपनी लोकतांत्रिक जागरूकता और मतदान के अभूतपूर्व उत्साह से। चुनाव आयोग द्वारा जारी ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में कुल 66.91% मतदान दर्ज किया गया, जो 1951 में हुए पहले आम चुनाव के बाद अब तक का सबसे ऊंचा आंकड़ा है।

पहले चरण में 65.08%, दूसरे चरण में 68.76% और कुल मिलाकर 66.91% मतदान हुआ। लेकिन जो आंकड़ा सबसे उल्लेखनीय है, वह है महिला मतदाताओं का रिकॉर्ड 71.6% मतदान, जो पुरुषों के 62.8% मतदान से कहीं अधिक है। यह न सिर्फ बिहार बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है।

 

*शांत क्रांति की कहानी*

इन आंकड़ों के पीछे एक गहरी सामाजिक और राजनीतिक क्रांति छिपी है। एक समय था जब बिहार चुनावी हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और भय के माहौल के लिए जाना जाता था। आज वही राज्य शांतिपूर्ण, जागरूक और उत्साहपूर्ण मतदान का प्रतीक बन चुका है।

इस परिवर्तन के केंद्र में हैं बिहार की महिलाएँ। पिछले दो दशकों में राज्य की महिलाओं ने राजनीति में अभूतपूर्व सक्रियता दिखाई है। पंचायती राज संस्थाओं में 50% आरक्षण, जीविका स्व-सहायता समूह, और महिला कल्याण योजनाओं ने उनके भीतर आत्मविश्वास और निर्णय क्षमता का नया संचार किया है। अब महिलाएँ केवल मतदान नहीं करतीं, वे अपने वोट से भविष्य तय करती हैं — अपने बच्चों की शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान के लिए।

2025 के चुनावों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बिहार की राजनीति अब जाति और लिंग के दायरों से ऊपर उठ रही है। महिला मतदाताओं की यह अभूतपूर्व भागीदारी इस बात का संकेत है कि अब बिहार में वोट विकास, रोजगार और सुशासन के मुद्दों पर पड़ रहा है, न कि केवल पहचान की राजनीति पर।

 

*लोकतंत्र के लिए सबक*

बिहार का यह अनुभव पूरे देश के लिए एक सीख है। जब देश के कई हिस्सों में मतदान प्रतिशत गिर रहा है और शहरी मतदाता उदासीन हो रहे हैं, बिहार ने यह दिखाया है कि लोकतंत्र की असली ताकत गाँवों और आम नागरिकों के भीतर बसती है।

यह भी स्पष्ट हुआ है कि गरीब या पिछड़े राज्य होने का मतलब यह नहीं कि वहां के लोग राजनीतिक रूप से निष्क्रिय हैं। उल्टा, जो समाज आर्थिक रूप से संघर्षरत होता है, वही लोकतंत्र पर सबसे अधिक विश्वास करता है। बिहार के लोग जानते हैं कि विकास का असली रास्ता वोट से होकर जाता है, और यही कारण है कि उन्होंने भारी संख्या में मतदान कर इतिहास रचा है।

बिहार ने यह भी सिखाया है कि समावेशी नीतियाँ और जमीनी बदलाव लोगों के मन में विश्वास जगाते हैं। जब जनता को लगता है कि सरकार की योजनाओं का लाभ वास्तव में उन तक पहुंच रहा है, तब वह लोकतंत्र में और अधिक सक्रिय होती है।

 

*बिमारू से बेहतरी की ओर*

 

लंबे समय से बिहार को “बिमारू राज्य” का तमगा झेलना पड़ा है — यानी एक ऐसा प्रदेश जो गरीबी, बेरोजगारी और पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाता है। लेकिन इस बार का रिकॉर्ड मतदान इस छवि को बदलने की शुरुआत हो सकता है। ऐतिहासिक मतदान दर यह बताती है कि बिहार की जनता अब बदलाव चाहती है। वे सुविधा नहीं, अवसर मांग रहे हैं; अनुदान नहीं, रोजगार चाहते हैं; पलायन नहीं, प्रगति का रास्ता खोज रहे हैं। जो भी नई सरकार बने, उसे यह संदेश गहराई से समझना होगा कि बिहार अब “रोटी-कपड़ा-मकान” से आगे बढ़कर उद्योग, निवेश, शिक्षा और सम्मान की राजनीति चाहता है। सरकार को अब प्राथमिकता देनी होगी —

रोजगार सृजन और स्किल डेवेलपमेंट को,

एमएसएमई और कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने को,

निवेश आकर्षित करने और बुनियादी ढांचे के विकास को,

और पलायन को उलटने वाले आर्थिक अवसरों के सृजन को।

यही रास्ता बिहार को “बिमारू” की छाया से निकालकर “बेहतरीन बिहार” की ओर ले जा सकता है।

 

*लोकतंत्र की नई सुबह*

2025 के बिहार चुनाव वास्तव में जनता की जागरूकता का उत्सव हैं। महिलाओं का उत्साह, युवाओं की भागीदारी और ग्रामीण इलाकों में शांतिपूर्ण मतदान — ये सभी इस बात के प्रतीक हैं कि बिहार ने लोकतंत्र को आत्मसात कर लिया है।

अन्य राज्यों को बिहार से यह सीख लेनी चाहिए कि जब जनता को विश्वास मिलता है, तो लोकतंत्र खुद मजबूत हो जाता है। बिहार ने यह साबित किया है कि परिवर्तन केवल नेताओं से नहीं, जनता की भागीदारी से आता है।यह 66.91% मतदान सिर्फ एक आंकड़ा नहीं — यह एक संदेश है कि बिहार अब अपने भाग्य का निर्माता खुद बनना चाहता है।

अब समय आ गया है कि देश इस नए बिहार को पहचाने — एक ऐसा बिहार जो अब “बिमारू” नहीं, बल्कि “बदलाव का प्रतीक” है।

(के. के. झा वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)