
बिहार: मुकाबला अब ‘वोट चोरी’ और ‘वोट की रखवाली’ के बीच है….
अजय बोकिल
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने चुनाव आयोग द्वारा कथित ‘वोट चोरी’ को बिहार में मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने के मकसद से ‘वोट अधिकार यात्रा’ शुरू कर दी है। राजद नेता तेजस्वी यादव के साथ इन रैलियों में राहुल चुनाव आयोग और मोदी सरकार निशाना साधते हुए कह रहे हैं कि यह संविधान बचाने की लड़ाई है। नरेंद्र मोदी और भाजपा हर चुनाव जीतते हैं। लोकसभा में हमारा गठबंधन महाराष्ट्र में जीतता है और 4 महीने बाद वहां भाजपा गठबंधन जीत जाता है। जब हमने थोड़ी जांच की, तो पता चला कि लोकसभा चुनाव के बाद, चुनाव आयोग ने ‘जादुई’ तरीके से महाराष्ट्र में 1 करोड़ नए मतदाता बना दिए। लोकसभा और विधानसभा में 1 करोड़ मतदाताओं का अंतर था। हालांकि महाराष्ट्र में मतदाताअों की गड़बड़ी के राहुल के दावे की सेफोलाॅजिस्ट संजय कुमार ने अपना ट्वीट वापस लेकर हवा निकाल दी है। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में दो सीटों पर वोटर डाटा की गणना में हमसे चूक हुई है। संजय कुमार ने ऐसा ‘भूल स्वीकार’ करने, ग्लानिवश अथवा किसी दबाव में ऐसा किया, यह अभी साफ नहीं है। लेकिन इस घटनाक्रम से सेफोलाॅजिस्टों की साख भी सवालों के घेरे में आ गई है। उधर मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कांफ्रेंस कर राहुल गांधी के आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए उनसे हलफनामा देकर आरोप लगाने को कहा है ताकि आरोपों की सत्यता की जांच की जा सके। उन्होंने राहुल के ‘वोट चोरी ‘ जैसे शब्द प्रयोग को संविधान का अपमान बताया। बीजेपी भी चुनाव आयोग के साथ खड़ी है। वैसे राहुल गांधी के आरोपों में िकतनी सच्चाई है, यह तो निष्पक्ष जांच से ही पता चलेगा और ऐसी कोई जांच होगी, इसकी संभावना कम है, लेकिन आजादी के बाद यह पहली बार है, जब चुनाव आयोग पर मैच ‘रेफरी’ की जगह’ किसी टीम के सदस्य’ के रूप में काम करने का गंभीर आरोप लगा है। संदेश जा रहा है कि आयोग जितना बता रहा है, उससे ज्यादा छुपा रहा है। अगर इसमें सच्चाई है तो यह हमारे लोकंतत्र को ही संदिग्ध बना देगा। लेकिन आरोप गलत सिद्ध हुए तो राहुल एंड टीम के लिए नैतिक मुसीबत खड़ी हो सकती है।
राहुल और विपक्ष जिस आक्रामक तरीके से वोट चोरी का मुद्दा उठा रहे हैं, उससे लगता है कि उनका मुख्य लक्ष्य किसी तरह इस मुद्दे को िबहार विधानसभा चुनाव तक खींचना है ताकि मतदाता के मन में यह शंका घर कर जाए कि राज्य में मतदाता सूची के एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह प्रायोजित है। विपक्ष को शंका है कि यह अभियान उसके वोटरों को लिस्ट से बाहर कर चुनाव जीतने की परोक्ष साजिश है। जबकि चुनाव आयोग का तर्क है कि बिहार में वोटर लिस्ट का ‘शुद्धिकरण’एक सामान्य प्रक्रिया है। अप्रमाणित नामों को हटाया गया है। फिर भी कुछ नाम गलत हटे हैं तो उसे फिर जोड़ा जा सकता है। बावजूद इसके बिहार एसआईआर में 65 लाख मतदाता सूची से बाहर हुए हैं तो यह बड़ा आंकड़ा है। यानी राज्य में औसतन हर विधानसभा क्षेत्र में लगभग 27 वोटरों का कम होना। इतने अंतर से तो विस चुनाव में भारी हार-जीत हो जाती है। लेकिन विपक्ष की इस मुहिम का दूसरा खतरा यह भी वोटर उदासीन भी हो सकता है। उसे लग सकता है कि यदि सब कुछ गड़बड़ ही है तो वोट देने जाया ही क्यों जाए? लेकिन ऐसा हुआ तो इसका नुकसान विपक्ष को भी होगा और लोकतंत्र के नजरिए से यह नितांत अनुचित होगा।
अब सवाल यह है कि राहुल और विपक्ष वोट चोरी को मुद्दा क्यों बना रहे हैं? क्या अन्य मुद्दे धार खो चुके हैं? यहां ध्यान देने की बात यह है कि राजनीति में प्रमाण से ज्यादा धारणा (परसेप्शन) काम करती है। यानी आप वोट डलने तक यह माहौल बनाते रहे कि सुबह आपके हिसाब से ही होने वाली है, फिर भले रात हो जाए। विपक्ष को उम्मीद है कि चुनाव आयोग और चुनाव प्रक्रिया को संदिग्ध बनाकर वोटर को इस बात के लिए विवश कर सकते हैं कि चूंकि चुनाव आयोग सरकार के अनुकूल काम कर रहा है, अत: उस सरकार को ही हटा दिया जाए। इससे विपक्ष का राजनीतिक मकसद पूरा हो जाएगा। अगर जीत गए तो आरोपों का सबूत कौन मांगता और कौन देता है। क्योंकि सत्ता सर्वोपरि है। जनता ने ‘साजिशों’ का जवाब दे दिया है और अगर हार गए तो कह देंगे कि हमने पहले ही कहा था कि चुनाव आयोग और मोदी हमे हराने की साजिश रच रहे थे। यानी िचत भी मेरी और पट भी मेरी। ध्यान रहे कि राहुल जिस धारणा केन्द्रित लाइन पर बिहार चुनाव को ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, उसका सफल प्रयोग तत्कालीन विपक्ष और भाजपा काफी पहले कर चुके हैं। याद करें 1989 का लोस चुनाव, जिसमें बोफोर्स तोप खरीदी घोटाले में पूर्व पीएम राजीव गांधी को भ्रष्ट बताकर घेरा गया था। उन पर बोफोर्स तोप सौदे में मात्र 64 करो़ड़ की दलाली खाने का आरोप था। इस घोटाले की जांच में ही बीते 35 साल में 300 करो़ड़ से ज्यादा खर्च हो चुके हैं और नतीजा आज तक निकला। यही फार्मूला पूर्व पीएम डाॅ. मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के दौरान विभिन्न ठेकों में अरबों के भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर विपक्ष ने आजमाया। लेकिन ये मामले भी अब कोर्ट में टिक नहीं पा रहे हैं। और तो और मोदी सरकार उन्हीं मनमोहन सिंह का िद्ल्ली में स्मारक बनवा रही है। मनमोहनसिंह भ्रष्ट थे, यह कोई बेईमान भी शायद ही मान्य करे, लेकिन उनको सत्ता से हटाने का तात्कालिक मकसद पूरा हो गया। लेकिन ‘नरो वा कुंजरो वा’रणनीति में केवल एक अर्जुन से ही काम नहीं चलता। उसी के साथ प्रतिबद्ध कार्यकर्ता और नेताओं की फौज और कुशल रणनीति भी चाहिए, जो संशय के बीज को वोट के ताबीज में बदल सके। वैसे भी चुनाव जीतना अब राजनीतिक शुचिता से ज्यादा मैनेजमैंट का विषय हो गया है। राहुल गांधी का सबसे कमजोर पक्ष यही है। वो मुद्दे तो पूरी ताकत से उठा रहे हैं। मोदी विरोधी उनकी इस ‘ हरक्युलियन अदा’पर फिदा हैं कि इस देश में कोई तो खम ठोककर मोदी और चुनाव आयोग को यह कहकर ललकार कर कह रहा है कि ‘मैं किसी से नहीं डरता। लेकिन वो अपनी पिछली गलतियों से सीखते भी हैं, ऐसा नहीं लगता। उनकी कार्यशैली ‘चला जाता हूं, अपनी ही धुन में..’वाली ज्यादा है। ‘चौकीदार चोर,’ ‘ईवीएम हैकिंग’ और ‘जाति जनगणना’ वाले मुद्दों पर उन्हें अपेक्षित प्रतिसाद नहीं मिला। अलबत्ता लोकसभा चुनाव में ‘संविधान बचाने’ का मुद्दा कुछ राज्यों में जरूर हिट हुआ, लेकिन उसे रबर की तरह बहुत लंबा नहीं खींचा जा सकता। वैसे भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं। दिल्ली और पटना में दूरी ही नहीं, तासीर का भी अंतर है। कोई मुद्दा तात्कालिक जोश के बजाए वोटर के मन में पैठकर उसे उद्वेलित कर दे तो चुनाव नतीजे बदल जाते हैं और उसमें चुनाव आयोग भी कुछ नहीं कर सकता।
लेकिन क्या बिहार ऐसा कुछ होगा? अभी यह कहना मुश्किल है। क्योंकि राहुल के संविधान बचाओ और वोट चोरी के आरोपों का जवाब भाजपा और सत्तारूढ़ एनडीए जनता को प्रसाद और रेवड़ी बांटकर दे रहा है। आश्चर्य नहीं कि चुनाव से पहले बिहार में भी ‘लाडली बहना’ जैसी कोई योजना घोषित हो जाए। राज्य में पहले ही से मतदाता को सीधा लाभ देने वाली लोक लुभावन योजनाअों की घोषणा अविरत जारी है। ऐसे में वोटर हाथ आ रहे लाभ को तरजीह देगा या ‘चुनाव आयोग और नीतीश सरकार को सबक सिखाने’ के लिए सत्ता विपक्षी महागठबंधन को जयमाला पहनाएगा, यह देखने वाली बात है। रहा सवाल चुनाव आयोग का तो उसे अपनी विश्वसनीयता खुद साबित करनी है। उसके हर काम में पारदर्शिता और प्रामाणिकता हो, यह लोकतंत्र का बुनियादी तकाजा है। वह चाहता तो राहुल गांधी से हलफनामा मांगे बगैर भी चुनाव और मतदाता सूचियों में गड़बड़ी की अपने स्तर पर स्वतंत्र जांच करा कर राहुल गांधी को करारा जवाब दे सकता था। लेकिन वैसा होता दिख नहीं रहा है। हालांकि समूची चुनाव प्रक्रिया काफी लंबी और जटिल होती है। उसमे कुछ त्रुटियां होना असंभव नहीं है बल्कि होती ही हैं। लेकिन उनका निदान हो सकता है। देश में 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव में चुनाव आयोग ने 27 लाख गलत नाम मतदाता सूची से हटाए थे, जिनमें ज्यादातर महिलाएं थीं। लेकिन तब किसी ने एतराज नहीं किया। अब आयोग के हर काम और मंशा पर संशय क्यों? कुल मिलाकर बिहार का विधानसभा चुनाव जनता के इस फैसले का चुनाव भी बनता जा रहा है कि उसे भरोसा किस बात पर है, वोट चोरी पर या वोटों की रखवाली पर? आगे आगे देखिए, होता है क्या?





