बिहार की मतदाता सूची संशोधन विवाद : भारत के लोकतंत्र की परीक्षा

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बिहार की मतदाता सूची संशोधन विवाद : भारत के लोकतंत्र की परीक्षा

 

*के. के. झा*

 

नवंबर 2025 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों की तैयारियों के बीच, भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) द्वारा 24 जून 2025 को घोषित विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) ने सियासी तूफान खड़ा कर दिया है। 2003 के बाद पहली बार शुरू यह अभियान बिहार के 7.9 करोड़ मतदाताओं की सूची को घर-घर सत्यापित करने के उद्देश्य से शुरू किया गया।  चुनाव आयोग जहाँ अपने इस अभियान को मतदाता सूची को स्वच्छ और पारदर्शी बनाने की नियमित कवायद बताता है, लेकिन राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने इसे मतदाता वंचन और सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पक्ष में साजिश करार दिया है। अपने इस लेख के माध्यम से लेखक इस विवाद की गहराई से पड़ताल कर विपक्ष के दावों का मूल्यांकन कर यह परखने की कोशिश की है कि क्या यह अभियान वास्तव में चुनावी पारदर्शिता की दिशा में कदम है या सियासी मकसद से प्रेरित है, जैसा कि  विपक्षी पार्टियां आरोप लगा रही हैं।

एसआईआर अभियान: उद्देश्य एवं प्रक्रिया

चुनाव आयोग का यह विशेष गहन मतदाता संशोधन अभियान, संविधान के अनुच्छेद 324 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 के तहत सटीक मतदाता सूची सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी पर आधारित है। तेजी से शहरीकरण, बार-बार प्रवास, असूचित मृत्यु, और डुप्लिकेट या गैर-नागरिक प्रविष्टियों को हटाने की आवश्यकता इसके प्रमुख कारण हैं। इस अभियान के अंतर्गत बूथ लेवल अधिकारियों ने पुरे प्रदेश में घर-घर जाकर मतदाताओं की पात्रता सत्यापित कर, गणना फॉर्म एकत्र करते हैं, और विशेष रूप से 2003 के बाद नामांकित या 1987 के बाद जन्मे मतदाताओं से दस्तावेजी सबूत मांगते हैं। अभियान 25 जून 2025 को शुरू हुआ, फॉर्म जमा करने की अंतिम तारीख 25 जुलाई थी, प्रारंभिक सूची 1 अगस्त को प्रकाशित होगी, और दावे-आपत्तियों के बाद अंतिम सूची 30 सितंबर 2025 तक तैयार होगी।

24 जुलाई तक, 7.9 करोड़ मतदाताओं में से 98.01% का सत्यापन हो चुका था, और 7.21 करोड़ फॉर्म जमा हुए। 61.1 लाख मतदाता हटाने के लिए चिह्नित किए गए, जिनमें 21.6 लाख मृत, 31.5 लाख प्रवासित, 7 लाख डुप्लिकेट, और 1 लाख अज्ञात शामिल हैं। यह बड़े पैमाने की सफाई का संकेत देता है, लेकिन विपक्ष को मतदाता वंचन का डर भी सता रहा है।

विपक्ष के आरोप: साजिश या वास्तविक चिंता?

विपक्ष, खासकर राजद और कांग्रेस, ने एसआईआर को दलित, ओबीसी, अति पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, और प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाकर एनडीए को लाभ पहुंचाने की साजिश बताया है। राजद नेता तेजस्वी यादव ने इसे “वोटबंदी” करार दिया, जबकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे “वोट चुराने” की कोशिश बताया। उनके प्रमुख आरोप हैं: संदिग्ध समय: 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद मजबूत मतदाता सूची होने के बावजूद, चुनाव से कुछ महीने पहले यह अभियान संदेह पैदा करता है।

वर्जनात्मक दस्तावेजीकरण: आधार, राशन कार्ड जैसे सामान्य दस्तावेजों को छोड़कर 11 विशिष्ट दस्तावेजों की शुरुआती मांग को गरीबों और कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए वर्जनात्मक माना गया। सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को ईसीआई से इन दस्तावेजों पर पुनर्विचार का आग्रह किया।

वंचन का जोखिम: हाशिए पर रहने वाले समुदाय और प्रवासी मजदूर, जो दस्तावेजों या सत्यापन के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते, वंचित हो सकते हैं।

नागरिकता की आशंका: 1987 के बाद जन्मे मतदाताओं से माता-पिता के दस्तावेज मांगने से सीमांचल जैसे क्षेत्रों में “बैकडोर एनआरसी” का डर पैदा हुआ है।

विपक्ष ने “बिहार बंद” जैसे प्रदर्शनों और सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं के जरिए इसे चुनौती दी, जिसमें संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन का आरोप है।

ईसीआई का बचाव

वहीँ विपक्ष के आरोपों को ख़ारिज करते हुए चुनाव आयोग ने एसआईआर को पारदर्शी और समावेशी बताया, जो अनुच्छेद 326 के तहत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करता है। आयोग ने राजनीतिक पक्षपात से इनकार करते हुए दावा किया कि 61.1 लाख अयोग्य प्रविष्टियों को हटाना चुनावी धोखाधड़ी रोकने के लिए जरूरी है। 6 जुलाई को दस्तावेजीकरण नियम शिथिल किए गए, और दावे-आपत्ति की अवधि में सुधार की गुंजाइश रखी गई। ईसीआई ने राजनीतिक दलों को चिह्नित मतदाताओं की सूची साझा की और 1.5 लाख बूथ लेवल एजेंट्स को शामिल किया। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एस. कृष्णमूर्ति ने इसे प्रवास और शहरीकरण जैसे बदलावों का जवाब बताया।

सियासत या सुधार?

बिहार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति—उच्च प्रवास दर (1.76 करोड़ लोग 2003-2024 में बाहर गए) और कम दस्तावेजीकरण—विपक्ष की चिंताओं को कुछ हद तक जायज बनाती है। प्रारंभिक दस्तावेजीकरण प्रतिबंध और एक महीने की समय-सीमा ने संदेह पैदा किया। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप और जद(यू) सांसद गिरिधारी यादव की “तुगलकी फरमान” वाली टिप्पणी प्रक्रियात्मक खामियों को रेखांकित करती है।

हालांकि, विपक्ष का साजिश का दावा ठोस सबूतों के अभाव में सियासी रणनीति प्रतीत होता है। बिहार में जातिगत गतिशीलता और एनडीए की मजबूत स्थिति को देखते हुए, राजद और कांग्रेस इस विवाद का उपयोग अपने मतदाता आधार को एकजुट करने के लिए कर रहे हैं। ईसीआई के शिथिल नियम और दावे-आपत्ति की अवधि वंचन के जोखिम को कम करते हैं।

पारदर्शिता की आवश्यकता

61.1 लाख मतदाताओं को हटाने की विशालता को देखते हुए, चुनाव आयोग को निर्वाचन क्षेत्र-वार विस्तृत विवरण (मृत, प्रवासित, डुप्लिकेट आदि) सार्वजनिक करना चाहिए। यह राजनीतिक दलों के साथ साझा करना और 30 सितंबर के बाद व्यापक रिपोर्ट जारी करना पारदर्शिता और विश्वास बढ़ाएगा।

समय और नियति

हालांकि चुनाव से पहले एसआईआर का समय और जनवरी 2025 की मतदाता सूची को रद्द करना संदेहास्पद प्रतीत होता है क्योंकि इस अभियान को लोक सभा चुनाव के पूर्व में भी शुरू किया जा सकता था पूर्व आयुक्त ओ.पी. रावत के अनुसार, महाराष्ट्र चुनाव विवाद ने संभवतः चुनाव आयोग को इस विशेष गहन अभियान को शुरू करने के लिए प्रेरित किया हो पर बिहार को इस अभियान को शुरू करने हेतु शुरुआती बिंदु चुनना शंका को स्वाभाविक रूप से आमंत्रित करता है। इन शंकाओं, कुशंकाओं के बीच चुनाव आयोग का जनादेश और कानूनी आधार ठोस है।

निष्कर्ष: लोकतांत्रिक सुधार और विश्वास की चुनौती

एसआईआर चुनावी सुधार के लिए जरूरी है, लेकिन प्रारंभिक प्रक्रियात्मक गलतियां और खराब जनसंचार ने विवाद को जन्म दिया। विपक्ष की चिंताएं आंशिक रूप से जायज हैं, लेकिन साजिश के दावे अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। ईसीआई को पारदर्शिता बढ़ाकर और समावेशिता सुनिश्चित करके आशंकाओं को दूर करना चाहिए। बिहार का यह विवाद भारत के लोकतंत्र की परीक्षा है, जो सतर्कता और विश्वास की मांग करता है, ताकि हर पात्र मतदाता की आवाज सुनी जाए।

(*लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो भारतीय राजनीति और सामाजिक मुद्दों पर गहन विश्लेषण के लिए जाने जाते हैं।)*