यहां बड़ा विहंगम दृश्य है। समुद्र में हर पल उथल-पुथल मची है। लहरें हर पल उतावली हो रही हैं कि अपनी हद को पार कर जाएं। ताकि तट किनारे विराजमान नाथों के नाथ सोमनाथ के चरणों का स्पर्श कर सकें। मानो वह हर पल जलाभिषेक करने को आतुर हैं। पर सोमनाथ के आदेश के बिना मानो यह संभव नहीं है। और सोमनाथ ने असीम मौन और शांति धारण कर समुद्र को यही गति दे दी है कि वह लगातार करीब आने की अपनी कोशिश जारी रखे।
और लाइट एंड साउंड शो के समय जब रात में महादेव मानो साक्षात प्रकट होकर मंदिर की दीवार पर नृत्य करते हैं तो समुद्र देव मचल-मचल उठते हैं कि प्रभु एक बार तो मौका दे दो, पर नाथ मंद-मंद मुस्कराते हुए कुछ समय बाद ही वहां से ओझल हो जाते हैं। लगता यही है जैसे समुद्र को उसकी हद में रहने का श्राप मिला है और महादेव तट पर बैठकर उसे हर पल यह अहसास भी करा रहे हैं। हां, हम देश के पश्चिमी राज्य गुजरात के समुद्र तट पर स्थित बारह ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग सोमनाथ की बात कर रहे हैं।
जिनके भव्य स्वरूप का दर्शन मन को असीम शांति से भर देता है। उनके सामने पहुंचकर वास्तव में तीनों लोकों के स्वामी सोमनाथ हैं, यह विचार मन को आनंद से भर देते हैं। अगर दर्शन नहीं किए हैं, तो जरूर एक बार यहां पहुंचकर भगवान सोमनाथ को प्रणाम करने का विचार जरूर करना चाहिए। यहां सबसे अच्छी बात यह है कि सरलता से सभी को दर्शन देकर भगवान सोमनाथ मानो सभी चिंताओं का हरण किस तरह कर लेते हैं, यह पता ही नहीं चलता। यह हमारा अनुभव नहीं है, बल्कि यहां पहुंचने वाले हर आस्थावान की यही सोच बन जाती है। सोमनाथ ही त्रिलोकपति बने यहां विराजमान हैं। खुद भाव विहीन हो विराजे हैं और भक्तों को भी भावों से परे ले जाते हैं।
गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बन्दरगाह में स्थित इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में स्पष्ट है।यह मन्दिर हिन्दू धर्म के उत्थान-पतन के इतिहास का प्रतीक रहा है। अत्यन्त वैभवशाली होने के कारण इतिहास में कई बार यह मंदिर तोड़ा तथा पुनर्निर्मित किया गया। एक बार नजर डालें तो यह मंदिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था। जिस जगह पर द्वितीय बार मन्दिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया।
आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी। गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मन्दिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में कुछ 5,000 साथियों के साथ सोमनाथ मन्दिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया।
मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया। इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसम्बर 1955 को भारत के राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। मंदिर परिसर में सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति मानो सोमनाथ के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव लिए ही खड़ी है। 1948 में यह प्रभासतीर्थ, ‘प्रभास पाटण’ के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से इसकी तहसील और नगर पालिका थी। यह जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन 1948 के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय हो गया।
चाहे गजनवी हो या अलाउद्दीन खिलजी, औरंगजेब और दूसरे आक्रांता, सोमनाथ महाराज शायद यही संदेश देते रहे कि जिस तरह शरीर के नष्ट होने से आत्मा का अस्तित्व कभी खत्म नहीं होता। ठीक उसी तरह मूर्ति का भंजन कर कोई भी आसुरी शक्ति, भगवान के अस्तित्व पर विराम नहीं लगा सकती। मूर्ति प्रतीक है, जिसे तोड़कर कोई भी अधर्मी धर्म की महत्ता को कम नहीं कर सकता। ईश्वर परलौकिक सत्ता के रूप में सर्वत्र विद्यमान था, है और रहेगा। सोमनाथ का दर्शन कर इसी भाव से हर भक्त भर जाता है, जिसे खत्म करने की हिम्मत किसी में नहीं है। यही संदेश यहां का विहंगम दृश्य दे रहा है। असीम शांति धारण किए अपनी ही मस्ती में मस्त भगवान सोमनाथ दे रहे हैं। और उनके स्पर्श को तरसता सागर भी हर पल यही संदेश दे रहा है।