साँच कहै ता! मसखरे बिसाहूलाल (Minister Bisahulal Singh) और वनवासियों की शेषकथा!

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साँच कहै ता! मसखरे बिसाहूलाल (Minister Bisahulal Singh) और वनवासियों की शेषकथा!

मध्यप्रदेश की सरकार के मंत्री बिसाहूलाल सिंह के एक बयान से क्षत्रिय वर्ग के लोग आग बबूला हैं। इसकी प्रतिक्रिया में क्षत्रियों के एक संगठन ने ऐलान कर दिया कि मंत्री को एक जूता मारने पर एक लाख रु. दिए जाएंगे। बिसाहूलाल के बयान को किस गंभीरता से लिया गया है इसे दिग्विजय सिंह के बेटे पूर्व मंत्री जयवर्धन सिंह के ट्वीट से समझा जा सकता।
जयवर्धन ने ट्वीट कर कुछ ऐसा कहा- हमारी महिलाओं को घर से बाहर निकाले की बात तो दूर उनपर नजर उठाने तक का अंजाम क्या हुआ इतिहास इसका गवाह है। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह सिंह द्वारा तलब किए जाने के बाद बिसाहूलाल सिंह ने माफी माँग ली लेकिन आँच ठंडी नहीं पड़ी है।
साँच कहै ता! विषमता की बिसात पर वनवासी!
 पहले जाने कि बिसाहूलाल सिंह ने ऐसा क्या कह दिया..? एक वीडियो क्लिप जिसे मैंने देखा..उसमें वे एक सभा को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि समाज में समानता कैसे आएगी। हमारी महिलाएं खेत में और घरों में काम करती हैं लेकिन ठाकुर-ठकार लोग अपने घर की औरतों को कोठरी में बंद किए रहते हैं।
ये ठाकुर-वाकुर की महिलाओं को भी खींच कर बाहर काम करने के लिए लाना पड़ेगा, हमारी महिलाओं की तरह इन्हें भी खेतों में काम करना होगा विषमता तब दूर होगी। बिसाहूलाल यदि ठाकुर-ठकार की जगह ‘बड़े घर के लोग’ कह देते तो उनके भाषण को शायद कोई अन्यथा लेता  लेकिन वे ठाकुर-वाकुर में ही उलझे रहे और खींचकर बाहर निकालने की बात कुछ ज्यादा ही अभद्र हो गई। हमारे विन्ध्य इलाके में ठाकुर कहकर क्षत्रियों को संबोधित किया जाता है।
 वैसे देखा जाए तो ठाकुर जाति सूचक नहीं पदसूचक है। ठाकुरजी कृष्ण भगवान को भी कहते है। ठाकुर का अर्थ पालनकर्ता, अन्नदाता से है। हमारी जान में ब्राह्मण व अन्य वर्ग के लोगों को भी कहीं-कहीं ठाकुर कहा जाता है।
अभी पिछले महीने ही हम लोगों ने अपने परिजनों में एक, जो मेरे ताऊ लगते हैं उनकी पुण्यतिथि पर एक बड़ा समारोह किया। आसपास के दस कोस के गाँवों में उन्हें ठाकुर ही कहा जाता था, वजह यह कि वे दीनहीन वर्गों के मसीहा माने जाते थे, हर जरूरतमंद उनकी बखरी में पहुँचकर यथोचित मदद पाता था।
साँच कहै ता! विषमता की बिसात पर वनवासी!
लेकिन बिसाहूलाल सिंह के कहे को क्षत्रिय समाज ने अपनी अस्मिता के साथ जोड़ लिया और लगे हाथ कतिपय संगठनों ने मुँह काला करने, जूता मारने का फतवा जारी कर दिया।
बिसाहूलाल सिंह वनवासी वर्ग से आने के बावजूद वनवासियों के बीच सामंत जैसे हैं। कई बार विधायक और मंत्री रहते हुए उन्होंने वह रसूख अर्जित कर लिया जो कि सामंतों की पहचान के साथ जुड़ी है। भाजपा में शामिल होने व चुनाव जीतने के बाद तो उनकी व उनके परिजनों की ठसक और भी दिखने लगी।
वे जिस अनूपपुर से चुनाव जीतते हैं वहाँ वनवासी नहीं अपितु सामान्य वर्ग के मतदाता निर्णायक हैं। इस विधानसभा क्षेत्र में कई कोयलरीज हैं जहाँ से अवैध धन का प्रवाह राजनीति में जाता रहता है और यहां से प्रतिनिधित्व करने वाले नेता की आर्थिक हैसियत बढ़ाता है। संभवतः यह बयान तो उनके बड़बोलेपन की रौ में बह निकला होगा क्योंकि उनका एकमात्र लक्ष्य इस क्षेत्र के वनवासी नेतृत्व को ठिकाने लगाने का रहा है।
साँच कहै ता! विषमता की बिसात पर वनवासी!
बिसाहूलाल सिंह क्या इस क्षेत्र के लोग शायद ही यह जानते होंगे कि रीवा महाराज गुलाब सिंह ने 1938 में इसी अनूपपुर के पुष्पराजगढ़ से एक घोषणा पत्र जारी करते हुए गोंड़ों को अपनी बिरादरी में शामिल करने की बात की थी। महाराज ने यहाँ तक कहा कि इनसे अब हमारा रोटी-बेटी का संबंध है।
गुलाब सिंह प्रत्येक दशहरे में रीवा किले में सहभोज आयोजित करते थे। सहभोज में वनवासी और दलितवर्ग के लोग ‘ठाकुर-ठकारो’ के साथ एक पंगत पर बैठकर भोजन करते थे। सहभोज में शामिल न होने वाले जमींदार सामंतों पर कड़ा आर्थिक दंड लगाया जाता था। गुलाब सिंह दूरदृष्टा महापुरुष थे उन्होंने अपने राज्य में जिस सामाजिक समरसता की कल्पना की थी आजादी मिलने के बाद वोटीय राजनीति ने उसे तार-तार करने पर तुली है।
बहरहाल बिसाहूलाल सिंह ने जो कहा वह निंदनीय है और संवैधानिक पद पर रहते हुए ऐसा कहना घोर निंदनीय। मंत्री संविधान के पालन की शपथ लेते हैं और सबके सामने यह संकल्प लेते हैं कि वे पद पर रहते हुए, कास्ट, क्रीड, रेस, रिलीजन के आधार पर भेदभाव किए बिना अपने दायित्वों का निर्वहन करेंगे।
इस आधार पर उन्होंने शपथ और संकल्पों की अवहेलना की है इसलिए उन्हें मंत्रीपद से बर्खास्त करने का पूरा-पूरा आधार बनता है। लेकिन यदि यह कार्रवाई हुई तो केन्द्र और राज्यों की सरकार में महज दस फीसदी ही मंत्री रह जाएंगे। बताने की जरूरत नहीं कि शेष नब्बे फीसदी जाति, धर्म, नस्ल, और कुल पर आधारित राजनीति करते है, वोटीय फायदे के लिए इसी आधार पर सरकारें फैसले लेती हैं। सो संविधान की शपथ अब रस्मी दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं।
संविधान में कानून राजा-रंक सबके लिए बराबर है सो मंत्री बिसाहूलाल सिंह के खिलाफ उनके बयानों के आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 294 के तहत अपराध पंजीबद्ध कराया जा सकता है। लेकिन प्रतिक्रिया स्वरूप ‘जूते मारने’ और ‘मुँह काला’ करने की धमकी गाली देने से बड़ा जुर्म है।
इन दोनों जुर्मों से बड़ा वह जुर्म है जिससे सामाजिक समरसता के विध्वंस का खतरा है। कल्पना करिए यदि धमकी देने वाले संगठनों की रौ पर ऐसा कुछ हो गया तो राजनीतिक और सामाजिक तौरपर इतना उल्टापलट हो जाएगा जिसकी कल्पना अभी आप नहीं कर सकते।
 विषमता की बात सभी बड़े नेता कहते रहे है, गाँधी, अम्बेडकर , लोहिया आदि। लोहिया जी तो इस मामले में अतिवादी थे। ग्वालियर के एक चुनाव में उन्होंने ‘महारानी बनाम मेहतरानी’ का जुमला दिया था, उस चुनाव में श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के मुकाबले सोशलिस्ट पार्टी ने एक अति दलित महिला को अपना प्रत्याशी बनाया था।
1952 में सिंगरौली से चुनाव जीतने वाली अनुसूचित जनजाति वर्ग की सुमित्री खैरवारिन को तो डा.राजेन्द्र प्रसाद के खिलाफ राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाने की घोषणा कर दी थी। तो वनवासी वर्ग के शोषण और विषमता की बाते आजादी से पहले से उठती रही हैं। उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के यत्न अभी भी हो रहे हैं। वनवासी नायकों की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए एक के बाद एक फैसले लिए जा रहे हैं ऐसे समय में यह विद्वेष एक नए खतरे की पृष्ठभूमि बनाता है।
साँच कहै ता! विषमता की बिसात पर वनवासी!
विन्ध्यक्षेत्र में धार-झाबुआ और छत्तीसगढ़ जैसे कनवर्जन नहीं हुआ, न ही मिशनरियों के वैसे पाँव जमें। वह इसलिए कि यहाँ सामाजिक समरसता की मजबूत पृष्ठभूमि रही। रीवा के आखिरी महाराज मार्तण्ड सिंह वनवासियों के लिए दैवतुल्य रहे। उन्हें निकट से जानने वाले लोग यह भी जानते हैं कि मार्तण्ड सिंह जी के आखिरी समय तक उनके अंतरग सेवक वनवासी गोंड़-बैगा ही थे, यहां तक कि उनका सबसे विश्वसनीय ड्रायवर भी एक गोंड़ युवक था जिसे महाराज ट्वंटी कहकर मजा लेते थे।
पिछले यानी कि 2018 के विधानसभा चुनाव में अनूपपुर और डिंडोरी के वनांचल की सभी विधानसभा सीटों से भाजपा चुनाव हार गई थी। यहाँ कांग्रेस अपनी लोकप्रियता की वजह से नहीं जीती बल्कि जयस और कुछ एनजीओ ने अंदरूनी काम किया और भाजपा के आधार को छीन लिया। ये वही संगठन हैं जो वनवासी युवाओं के बीच यह भावना फैला रहे हैं कि आप हिंदू नहीं हो बल्कि वनवासियों का धर्म अलग है। अगले वर्ष जनगणना होनी है इस लिहाज से भी यह क्षेत्र अब बेहद संवेदनशील है।
वनवासी नेतृत्व के साथ विडम्बना यह है कि वे कभी भी अपने वर्ग के शोषण की बात ठोस तरीक़े से नहीं उठाते बल्कि वे सामान्य वर्ग के नेताओं की तरह दिखने के लिए उनसे होड़ लेते नजर आते हैं।
साँच कहै ता! विषमता की बिसात पर वनवासी!
विन्ध्य क्षेत्र में वनवासियों के शोषण का कोई ओर छोर नहीं। हीरालाल त्रिवेदी जब शहड़ोल में कमिश्नर थे तो उन्होंने उमरिया जिले के ताला मानपुर में वनवासियों की जमीन की लूट-खसोट की जाँच करवाई थी। जाँच में यह तथ्य सामने आया कि पर्यटन का धंधा चलाने वाले रसूखदारों ने किस तरह वनवासियों की व उनके आम निस्तार की सरकारी भूमि को हड़पकर अपने होटल व रिसार्ट तान रखे हैं।
कागजों में कई वनवासी होटल व रिसार्ट चलाने वाली कंपनियों के डायरेक्टर हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी ही जमीन पर बने इन खूबसूरत ऐशगाहों में कपप्लेट और टट्टी धोते हैं। कमिश्नर त्रिवेदी की जाँच रिपोर्ट के बाद पर्यटन लाबी में हडकंप मचा। रिपोर्ट दबा दी गई और त्रिवेदी की बदली कर दी गई। वजह, बाँधवगढ़ नेशनल पार्क के पर्यटन धंधे में नेता और नौकरशाह उद्योगपतियों के साथ बराबरी के भागीदार हैं। यही हाल, कान्हा, पेंच, पन्ना सभी राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों का है। वनवासियों की जमीन धोखे से छीनी जा रही है, उन्हें बेदखल किया जा रहा है।
सिंगरौली क्षेत्र के वनवासियों की जमीन उद्योगपतियों के हवाले हो चुकी है। सरकारी कर्मचारी और नेता यहाँ उद्योगपतियों के लठैत और दलाल बने बैठे हैं। राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के बीच सदियों से आबाद वनवासियों के गाँव उजाड़े जा रहे हैं।
 यह सवाल बिसाहूलाल जैसे नेताओं के जेहन में क्यों नहीं उठता कि वनवासी अंचल की जोत की 90 फीसद जमीनों पर बाहरी लोगों का कब्जा कैसे हुआ..? औद्योगिक क्षेत्रों, खदानों, पार्क-अभयारण्यों से वनवासी अपनी जमीन गँवाकर क्यों शहरों में मजदूरी करने हेतु विवश हैं। कम से कम पिछले बीस साल के हालातों की पड़ताल की जाए तो भयावह सच निकलकर सामने आ जाएगा। लेकिन इस सच को न नौकरशाह सामने आने देना चाहते और न ही शोषक पूँजीपतियों के हितैषी नेता।
अभी सर्दी का सीजन है, आप हमारे रीवा या सतना आ जाइए यहाँ काम करने वाले हर दूसरे मजदूर या तो सीधी के या शहडोल के वनवासी हैं। ये हाड़तोड़ मेहनत के लिए जाने जाते हैं। ठेकेदार लोग लालच देकर इन्हें गाँँवों से ले आते हैं। मेरे मित्र के सदाशयतावश पाँच-छह मजदूरों को अपने फार्महाउस में आश्रय दे रखा है।
 एक दिन इन परदेसी मजदूरों से मुलाकात हुई तो इनकी कहानी जानकर विचलित हुए बिना नहीं रहा। न इन्हें कभी मुफ्त य रियायत का राशन मिला और न ही गाँव में काम। सरकार ने सबकुछ आनलाइन कर रखा है, राशन की दूकान से लेकर कियोस्क तक हर जगह दाऊ साहब, पंडित जी लोग बैठे हैं।
ये बेचारे मशीन में अँँगूठा दबाना भर जानते हैं। सरकार लाख दावा करे पर मैं यह बात यकीन के साथ कहता हूँ कि वनवासियों के लिए बनी उसकी योजनाएं दस फीसद भी उनतक नहीं पहुँचती वरना शहडोल की छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे जनकपुर के आसपास के ये वनवासी सौ कोस दूर चलकर दूर शहर में मजदूरी करने न जाते।
वनवासी और अब गाँव व कस्बों में रहने वाले अनुसूचित जाति वर्ग के लोग सदियों से शोषण और जुल्म ढ़ोते-सहते आ रहे हैं। राजनीतिक दल, मिशनरीज और एनजीओ इनकी भावनाओं की तिजारत करके कमा खा रहे है, रसूख बढ़ा रहे हैं लेकिन ये भूखे के भूखे ही हैं। इन्हीं वनवासियों के बीच से निकले बिसाहूलाल जैसे नेता आज अभिजात्यों की पंक्ति पर बैठकर इन्हीं के नाम पर मसखरी कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि सामाजिक विद्वेष की अँधड़ समरसता को किस तरह क्षत-विक्षत कर सकती है।