पुस्तक समीक्षा: “उदात्त प्रेम की देह से परे आध्यात्मिक अनुभूति है यह उपन्यास”
हमारे देश में जब भी कुम्भ के मेले लगते हैं चाहे उज्जैन का सिंहस्थ हो, प्रयागराज का कुम्भ हो, अर्ध कुम्भ हो, जनता के मन में यदि सबसे अधिक जिज्ञासा होती है तो वह है नागा साधुओं के विषय में जानना। नागा अपने आपमें ही कौतूहल का एक बड़ा विषय है और सिर्फ भारतीय ही नहीं विदेशी जनमानस में भी आजकल नागा साधुओं के विषय में जानने की परम जिज्ञासा देखी जाती है तभी तो सुदूर ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर की अत्याधुनिक कैथरीन वहाँ की चकाचौंध व ऊपरी जगमग से दूर हिमालय की बर्फीली वादियों की धवल शुभ्र शांति में नागा साधुओं पर उपन्यास लिखने आ गई।
और शुरू होती है एक यात्रा कैथरीन के साथ नागाओं को जाने-समझने और उनके रहस्यमयी जीवन में झाँकने की। क्यों कोई इतना कठिन जीवन चुनता है। कुम्भ के बाद सारे नागा साधू कहाँ विलुप्त हो जाते हैं अचानक। कभी भी कोई नागा साधु हमारे आसपास दिखाई नहीं देता। पड़ाव डर पड़ाव हर कदम पर अत्यंत रोमांचक यह यात्रा नागाओं के जीवन का एक विहंगम दृश्य पाठक के सामने प्रस्तुत करती है। और परत दर परत हिमालय की दिव्यता, उसकी बर्फीली घाटियों, हाड़ कंपा देने वाली ठंड और गौमुख, भोजबासा के जंगल, तपोवन, गुफाओं के एक अनदेखे संसार की ओर ले चलती है जहां दसियों फूट जमी बर्फ पर भोजपत्र की एकाकी कुटिया में एक वृद्धा अकेली रहती है। जहां गिरती बर्फ में एक दिगम्बर साधु आनंद से तपस्या में लीन हो जाता है।
देह में रहते हुए भी देह की अनुभूति से परे हो जाने की उच्चता मात्र भारतीय आध्यात्मिक व योग दर्शन में ही सम्भव है। विश्व का कोई दर्शन, कोई आध्यात्मिक विचारधारा दूर-दूर तक भी इसकी परछाई नहीं छू सकती। जहां शून्य से कई डिग्री नीचे के तापमान में मनुष्य ढेर सारे गर्म कपड़ों के बाद भी कांपता रहता है, सांस लेने में तकलीफ होने लगती है वहीं नागा महीनों तक आराम से तपस्या करते रहते हैं। न उन्हें ठंड सताती है, गर्मी न भूख न प्यास। देह पर नियंत्रण का अद्भुत उदाहरण है नागा।
मंगल जिसके लिए प्रेम आत्मा से जुड़ी अनुभूति है। जो प्रेम को मन में तलाशता है और दीपा की प्रेम के प्रति दैहिक अनुरक्ति से आहत हो कर वैरागी बन बैठता है। यह वैराग्य उसे हिप्पियों की गलियों से होते हुए नागा साधुओं के अखाड़े तक ले जाता है और यहीं मंगल के भीतर से नरोत्तम गिरी नागा साधू का जन्म होता है।
विदेशी हिप्पी संस्कृति जो हरे रामा-हरे कृष्णा करते हुए भी आनंद की खोज में मारिजुआना व एलएसडी के नशे में धुत्त उन्मुक्त यौन संबंधों में डूबकर अंततः मनोरोग से ग्रस्त हो जाते हैं। न वे समाज में रह पाते हैं न उससे कट पाते हैं। देह क्षणिक सुख दे सकती है किंतु आनंद की स्थायी अवस्था तो प्रेम ही दे सकता है, प्रेम जो देह से परे आत्मा की गहराइयों में बसा हुआ हो। और मंगल को उसी प्रेम की तलाश थी जो उसे हिमालय की बर्फीली वादियों के तपोवन तक ले गयी और नरोत्तम गिरी के रूप में नागा साधू बनकर वह सदा के लिए देह की अनुभूति को भुलाकर आत्मस्थ हो गया।
कैथरीन प्रवीण के साथ चरम दैहिक सुख भोगने के बाद भी भीतर से किसी अनुभूति के लिए व्याकुल है और यही व्याकुलता उसे हज़ारों किलोमीटर दूर भारत में नागा साधुओं के प्रति आकर्षित करते हुए हिमालय की गोद में बसे भोजबासा तक ले आती है और एक दिन अनायास नरोत्तम नागा के सामने खड़ा कर देती है। भारतीय संस्कृति व संस्कृत भाषा से कैथरीन का अत्यधिक लगाव क्या मात्र एक संस्कृति व देश के प्रति उत्सुकता है अथवा नियति का संकेत। भारत आकर कैथरीन प्रेम के एक उदात्त रूप से परिचित होती है और उसकी यात्रा प्रारंभ होती है, भोग से त्याग की ओर, प्रेम के दैहिक स्वरूप से आत्मिक स्वरूप की ओर, भौतिक सुख से आध्यात्मिक आनंद की ओर।
नागा साधू जिनके विषय में सामान्य जनता बहुत ही कम जानती है क्योंकि वे समाज से अलग-थलग अपनी दुनिया में, अपने तप में, कठोर साधना में लीन होते हैं। संतोष जी ने उनके इतिहास, नागा बनने के लिए उनकी कठोरतम तपस्या, उनकी शाखाओं की विस्तार से जानकारी दी है। किस प्रकार भारतीय योग पद्धति देह को वज्र बना देती है कि मनुष्य बर्फबारी में भी ठंड की अनुभूति से अछूता रह सकता है। कैसे देह में रहते हुए भी विदेह हो सकता है। अद्भुत रहस्यमयी है यह सब। पाठक अंत तक रोमांच से बंधा रहता है। कैसे योग मन को भी वश में कर लेता है कि दिगम्बर अवस्था में रहते हुए भी स्त्री की निकटता भी उन्हें अपने धर्म के मार्ग से डिगा नहीं पाती।
इतिहास गवाह है कि जब भी आवश्यकता पड़ी है भारतीय संस्कृति व धर्म की रक्षार्थ नागाओं ने योद्धा बनकर, हाथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध किये हैं और विजयी हुए हैं। उन्होंने न केवल भारतीय आध्यात्मिक चेतना की लौ को जलाकर रखा हुआ है वरन उसके भौतिक रूप अर्थात मंदिरों की भी आतताइयों से रक्षा की है। नागा साधुओं पर यह उपन्यास एक विशद शोध ग्रन्थ की तरह है जो उनके जीवन को समग्रता से पाठक के सामने रखता है। पाठक के मन की सभी जिज्ञासाओं के उत्तर देकर उनकी उत्सुकता को शांत करता है। वर्षों के शोध व परिश्रम का प्रसाद है यह उपन्यास इसीलिये इसे पढ़ते हुए उसी दिव्यता व श्रद्धा का आभास होता है पाठक को।
दिल्ली, दिल्ली से उज्जैन, और वहाँ से हिमालय के विविध क्षेत्र। सभी का इतना जीवंत चित्रण किया है संतोष जी की कलम ने की उसे पढ़ते हुए पाठक स्वयं को उन स्थानों पर प्रत्यक्ष अनुभव करता है। जैसे भोजबासा की गुफा में वह स्वयं नरोत्तम गिरी, अष्ट कौशल गिरी और महाकाल गिरी नागाओं के साथ बैठा है। पूर्णिमा की रात्रि में गौमुख के सौंदर्य में डूबा है। चांद को हाथ बढाकर सहला रहा है।
सारी विषय वासना से परे सबके कल्याण हेतु साधना की अग्नि में तपकर स्वयं को समाप्त कर देने वाले इन नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया की यह रोमांचकारी यात्रा निश्चित ही अद्भुत है। पाठक उपन्यास के आकर्षण में कई दिनों तक बंधा रहता है। यह उपन्यास एक कालजयी कृति है क्योंकि इसके पूर्व में इस विषय पर कभी कोई पुस्तक पढ़ने में अथवा चर्चा में नहीं आयी है। यूँ भी संतोष जी के सभी उपन्यासों के विषय एकदम भिन्न होते हैं किंतु ये उपन्यास अपने गूढ़ विषय के कारण सबसे हटकर है। साहित्य में संतोष जी की लेखनी का एक और सशक्त हस्ताक्षर है। ऐसे अनेकानेक हस्ताक्षर उनकी कलम करती रहे और साहित्य समृद्ध होता रहे, संतोष जी के उपन्यासों की दीवानी इस पाठिका की यही कामना है।
विनीता राहुरीकर
पुस्तक- कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया (उपन्यास)
लेखिका- संतोष श्रीवास्तव
प्रकाशक- किताबवाले- नयी दिल्ली
मूल्य- 700/-