पुस्तक समीक्षा -दैहिक ऊहापोह से अलग एक सात्विक प्रेमकथा-उपन्यास ‘कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया’!

658
नयी आमद –

पुस्तक समीक्षा -दैहिक ऊहापोह से अलग एक सात्विक प्रेमकथा-उपन्यास ‘कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया’!

बलराम अग्रवाल

519992834 10227372861458240 6923795743010278297 n

साहित्य अपने समय का सत्य-इतिहास हुआ करता है। सत्य इस अर्थ में कि इतिहास कीतरह यह सिर्फ घटनाओं का अथवा हार-जीत का ब्यौरा प्रस्तुत नहीं करता, उनके पीछे के मनोविज्ञान की जानकारी भी हमें देता है। उन मनोवैज्ञानिक सत्यों के उभार के कारण ही हल्दीघाटी हार के बावजूद स्वर्णिम है, 1857 विफलता के बावजूद गौरवशाली है।जब हम संतोष श्रीवास्तव के उपन्यास ‘कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया’ पर नजर डालते हैं तो यह तय करना मुश्किल होता है कि यह डाटा कलेक्शन यानी तथ्य प्रस्तुति है, रिपोर्ताज है, कथा-कोलाज है क्या है? और यही ऊहापोह इस किताब को उपन्यास बनाती है। इसमें पात्रों और घटनाओं की संख्या बहुत-अधिक नहीं है, इसके वाक्य अपेक्षाकृतछोटे रखे गये हैं और पूर्वदीप्तियाँ बहुत कम। इसका अधिकांश हिस्सा परस्पर बातचीत कीशैली में सम्पन्न होता है और पाठक को अपने साथ बनाए रखने में सक्षम है।

यह सिर्फनागा साधुओं की दुनिया के रहस्यों को ही नहीं खोलता, हिप्पी संस्कृति पर आधिकारिक टिप्पणी करता है, अघोरियों की दुनिया में भी सेंध लगाता है।उपन्यास की कथा एक पर्वतारोही दल की इस जिज्ञासा से प्रारम्भ होती है कि हिमालय की जिन दुर्गम बर्फीली पर्वत शृंखलाओं में वे सिर से पैर तक गर्म कपड़ों से लदे होने केबावजूद ठंड से नहीं बच पा रहे हैं, उनमें एक भारतीय संन्यासी निर्विकार, नंग-धड़ंग कैसे बैठाहै! इस जिज्ञासा केचलतेदोनों के मध्य वार्तालाप शुरू होता है; और पूर्वदीप्ति के माध्यम सेयहीं से शुरू होती है नागा संन्यासी नरोत्तम गिरि की अतीत कथा। अतीत कथा यानी जब वहमंगलसिंह नाम का युवक था और दीपा नामकी एक युवती से एकतरफा प्रेम में निमग्न था।

इस एकतरफा प्रेम को दुर्भाग्यवश दोतरफा चोट लगती है। पहली यह कि दीपा उसकी भाभीबनकर घर में आ जाती है और दूसरी… दूसरी वह, जिसके कारण मंगलसिंह घर-बार, संसार सेविरक्त हो जाता है। इनमें पहली घटना उपन्यास की कथा का मूल है और दूसरी घटनाउसका विस्तार।संतोष श्रीवास्तव प्रसंगानुसार बीच-बीच में अनेक प्रकार की जानकारियों से पाठक को
लाभान्वित करती चलती हैं। मसलन, नागा साधुओं के कितने भेद हैं और क्यों हैं? उन भेदों के अन्तर्गत भी उनके उपभेद क्या-क्या हैं तथा दायित्व अथवा कर्तव्य क्या-क्या हैं? पता चलताहै कि ‘नागा सनातन परम्परा की स्थापना आदिगुरु शंकराचार्य ने की थी।’(पृष्ठ 28)प्रांजल भाषा—संतोष जी की भाषा बहुत प्रांजल, बड़ी ईमानदार नजर जाती है।मसलन, ‘शून्य से भीनीचे के तापमान में उसके किसी भी अंग पर कोई प्रभाव नजर नहीं आ रहा था।’(पृष्ठ 9); ‘न जाने कौन-सी स्याही से लिखी वह प्यार की इबारत थी कि लफ्ज मिटे भी नहींऔर कभी दिखे भी नहीं!’ ‘प्रेम करके भूल जाने के लिए नहीं होता। प्रेम बस अंकुरित होता है,जिसकी जड़ें पाताल तक भी पहुँचें तो कम है।’(पृष्ठ 15); ‘औरत अपनी छठी इन्द्रिय से जान लेती है कि कौन उसे प्यार करता है।’ (पृष्ठ 21); ‘जिंदगी में प्यार न होना और प्यार करकेजता न पाना, दोनों ही स्थितियाँ पीड़ादायी हैं।’(पृष्ठ 25); ‘कौतूहल बुद्धि का विकास करताहै।’(पृष्ठ 30); ‘सरल बनना बड़ा ही कठिन होता है।’(पृष्ठ 87);‘प्रकृति स्वयं बंदोबस्त करतीचलती है दिन के हर प्रहर का।’(पृष्ठ 186); ‘जिंदगी की हर बात, हर घटना बर्दाश्त कर लेनानामुमकिन है; लेकिन अगर बर्दाश्त कर लिया तो रूह में फकीरी आती है।’(पृष्ठ 233); ‘जीवनमें हमसे प्यार करने वाले की हमें कद्र करनी चाहिए। प्यार से बढ़कर मूल्यवान संसार में कुछभी नहीं है।’ (पृष्ठ 239)

उपन्यास में दीपा के नख-शिख वर्णन का प्रयास-सा है तथा कीरत और दीपा के रति-वर्णन काभी। ‘ढकी थाली से मुँह जुठारने’, ‘गुरसी में अंगारे भरकर रखने’, ‘जलेबी-कचौड़ी का कलेवाकरने’, ‘पलंग के पाये पर सिर पटकना’ जैसे लोकभाषा के प्रयोग भी हैं।उपन्यास के भाग 4 से दूसरी कथा शुरू होती है। जानकी देवी और दीपक पंत की कथा।
इसकथा के माध्यम से लेखिका इस तथ्य को विस्तार देती हैं कि संन्यासियों की दुनियाअनपढ़ों और भोजन-भट्टों तक सीमित न होकर उच्च-शिक्षितों और तर्क-समर्पितों की दुनिया है। भारत-विभाजन की त्रासदी और पीड़ा पर लेखिका ने जानकी जी के माध्यम से बहुत तीखीकलम चलाई है—“शक्तिपीठ सब नहीं देख पाये; कराची और बंगलादेश के छूट गये।”‘नागा बनना कमांडो की ट्रेनिंग है’, ‘नागा होना जैसे एक सैन्य पथ है’उपन्यास यह रहस्योद्घाटन भी करता है कि अतीत में वैष्णव और शैव संप्रदाय परस्पर एक-दूसरे को मारते-काटते रहे हैं। ‘आज भी हरिद्वार में उस युद्ध में मारे गये नागाओं कीसमाधियाँ हैं।’ वैमनस्य इस हद तक बढ़ा हुआ था कि ‘वैष्णव साधु शैव संन्यासियों के हाथ
का छुआ पानी तक नहीं पीते थे।’(पृष्ठ 231)एक स्थान पर नरोत्तम सोचता है—‘अब उसे अलग तरह की जीवन-शैली अपनानी होगी।’इसी स्थल पर एक बड़ा प्रश्न उभारा गया है कि—क्या साधना के लिए समाधिस्थ होने में पुरुषत्व
आड़े आता है? उत्तर है—हाँ; और उदाहरण है, विश्वामित्र-मेनका प्रकरण।प्रतीक—कुछेक शानदार प्रतीक भी संतोष जी ने गढ़े हैं—‘ग्लेशियर के रूप में जैसे सफेद,विशाल गाय खड़ी थी जिसके मुख से भागीरथी की पतली धारा आगे निकलती हुई आगे कैसाविशाल रूप धारण कर लेती है।’ (पृष्ठ 51उपन्यास के चौथे भाग में कैथरीन का प्रवेश होता है। नरोत्तम के साथ वाले दो नागा साधुकैथरीन को ‘माता’ संबोधित करते हैं; लेकिन नरोत्तम नहीं। लिखा है—‘लेकिन आज नरोत्तमठीक-से ध्यान नहीं लगा पाया। बीच-बीच में स्मृतियाँ’ उसके आगे बिजली-सी कौंधती रहीं।जानकी देवी की जीवन-गाथा ने उसे कहीं तो विह्वल किया ही।…संध्या-वंदन कर वह गुफा मेंलौटा तो कैथरीन को उसी वक्त तंबू से निकलते देखा। वह उसे देखकर मुस्कुराई। इस स्थलपर कैथरीन उससे सवाल करती है—‘लेकिन आप अपनी इंद्री को भी खुला रखते हैं। मैंविपरीत सैक्स, क्या आपको मुझे देखकर कोई अनुभूति नहीं हो रही?’(यह सुन) नरोत्तम की आँखों में धर्म और आस्था के शोले सुलग

उठे। (‘शोले सुलग उठे’अच्छा प्रयोग) यहीं पर महिला नागा साध्वियों की प्रक्रिया के बारे में भी लिखा गया है।
भाग 2 के अन्त में ग्रह-नक्षत्रों के अनुरूप पौधों-वृक्षों की उत्पत्ति का वर्णन है तो भाग 3 केशुरू में सप्तर्षि मंडल की जानकारी दी गयी है।अपनी दिनचर्या में नरोत्तम शीघ्र ही इतना रम जाता है कि ‘अब वह गणना नहीं करता कि
नागा साधु हुए कितने वर्ष बीत गये हैं!’ (पृष्ठ 44) उसने स्थिरता पा ली है। ‘अभी-अभीपर्वतारोहियों के प्रश्न पर वह जो अतीत में थोड़ा-सा भटक गया था, वह भटकन भी बह गयीपवित्र भागीरथी में।’ (पृष्ठ 46) लेकिन कबीर कहते हैं—
माया मरी न मन मरा, मर-मर गये सरीर।आसा-तिस्ना ना मरी, कह गये दास कबीर॥नरोत्तम ने कड़ा तप किया। वह वरिष्ठ नागा साधु बन गया; लेकिन सांसारिक होने की उसकेमन की तृष्णा नहीं मरी, इस बात का संकेत उपन्यास के उस स्थल पर मिल जाता है, जहाँ कैथरीन से प्रथम भेंट के बाद बातचीत में सामान्य नागा-उचित संबोधन के विपरीत उसे वह‘देवी कैथरीन’ कहता है, ‘माता’ नहीं कहता।

काव्यात्मक अभिव्यक्ति—रात के अन्तिम प्रहर में वह तंबू में आकर लेट गयी। वह चाँद कोअपने बाजू में महसूस करती रही।…पृष्ठ 68 से कैथरीन की कहानी शुरू हो जाती है। पृष्ठ 73 से 78 तक विभिन्न अखाड़ोंकीउत्पत्ति का इतिहास लिखा गया है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि वर्तमान में जो 13 नागाअखाड़े विद्यमान हैं, वे सब अपने पूर्ववर्ती किसी अखाड़े के विभाजन के उपरांत ही बने हैं।सन् 1757 में अंग्रेजों का भारत में राज्य स्थापित हुआ। उससे पहले नागा अखाड़ों के 12
विभाजन हो चुके थे; लेकिन उसके बाद, मात्र एक विभाजन सन् 1784 में हुआ। यह भी खोजका विषय हो सकता है।भाग 5 अघोरी संप्रदाय पर केन्द्रित है और उसकी व्यापक व्याख्या प्रस्तुत हुई है। नागाऔरअघोरी के बीच अंतर बताया गया है। बताया गया है कि अघोरी, नागा साधुओं की तरहब्रह्मचारी नहीं होते; बल्कि मुर्दों के साथ अपने शारीरिक संबंध भी बनाते हैं। ऐसा भले हीकिसी तांत्रिक प्रक्रिया के तहत किया जाता हो, कुल मिलाकर ऐसा करना मानसिक विक्षिप्तताही कहा जायेगा। इस भाग में अष्टकौशल गिरि बताता है कि वह अपनी सौतेली माँ केव्यवहार से त्रस्त होकर घर से भाग निकला था। साहित्य और सिनेमा में सौतेली माँ काबालकों को त्रस्त करने वाला चरित्र नया नहीं है। प्रेमचंद भी इससे नहीं बच पाये थे। लेकिन नये कथा साहित्य ने सौतेली माँ को ‘ललिता पवाँर’ चरित्र से मुक्ति दिला दी है।भाग 6 एक प्रकार से कैथरीन की कथा है। इसी में कैथरीन के ममा-पापा की कथा है। इसीमें वह प्रवीण के प्रेम-पाश में बँधती है। इसी में वह वृषभानु पंडितसे संस्कृत सीखती है,भारतीय ग्रंथों का अध्ययन करती है। इसी में उसका विगत वर्णित है। इसी भाग मेंआस्ट्रेलिया की ‘मौरी’ जनजाति से पाठक परिचित होता है। परिचित होता है ‘स्टोलनजेनेरेशन’ नाम की ऑस्ट्रेलियन पीढ़ी और सभ्य बनाने की असभ्य पद्धति से। इस बीच वहऑस्ट्रेलिया में जन्मी ‘मैरी एन इवान’ जिन्हें भारतीय सिनेमा जगत में ‘नाडिया’ यानी हंटरवालीके नाम से जाना जाता है, के जीवन पर आधारित एक नाटक ‘फियरलेस’ तथा एटिनबरो की फिल्म ‘गांधी’ केमाध्यम से यह भी बताने की कोशिश की गयी है कि भारतीय लोग अपनीप्रतिभाओं को तभी पहचान पाते हैं जब कोई विदेशी उन्हें पहचान दे दे।कथा में एक ट्विस्ट प्रवीण की पत्नी शेफालिका के देहांत के बाद कैथरीन द्वारा उसकाविवाह अपनी कजिन लॉयेना से कराना और प्रवीण की बेटी जास्मीन को स्वयं गोद ले लेनाहै। जास्मीन अब आद्या बन जाती है।इसी भाग में पैतृक रूप में मिली प्रवीण की संपत्ति पर चाचाओं द्वारा कब्जे की कोशिशें, प्रवीण की बूढ़ी अम्मा द्वारा पोते की इच्छा जैसे सामान्य कथा-प्रकरण भी हैं।

भाग 7 भोजवृक्ष के ब्यौरे से शुरू होता है। उसके बाद सभी शक्तिपीठों के स्थान औरउनकी स्थापनाके इतिहास का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इसी भाग में भैरव औरतारापीठ आदि अनेक तंत्र मार्गों की जानकारी देने का प्रयास है। इस भाग का समापन नरोत्तमकी इस दुविधा से होता है कि निकट भविष्य में कैथरीन से उसकी मुलाकात होगी भी या नहीं; क्योंकि सुबह 4 बजे तप के लिए उसे पहाड़ों पर चले जाना है। वापस लौटने के क्रम मेंकैथरीन को यदि यह लगता है कि नरोत्तम गिरि उसके तंबू में मौजूद है और अनुरोध कर रहाहै कि ‘मत जाओ’ तो यह एक सामान्य जीवन जी रही युवती के मन का आभास है; परन्तुउसके जाने की सूचना से नरोत्तम का दुखी होना उसकी गरिमा के विरुद्ध है।

इस प्रकार नरोत्तम, उस प्रतीक के रूप में सामने रहता है जो तन से तो नागा हो गया है, मनसे नहीं हो पाया। ‘नरोत्तम गिरि ने उदासी नहीं आने दी चेहरे पर’ (पृष्ठ 135) कथन का तात्पर्य ही यह है कि मन से वह उदास हो चुका है।भाग 8 में ‘आश्रम की बगिया में नरोत्तम गिरि द्वारा लगाए पौधे वृक्ष बन गये थे,जिनकीडालियों पर हवन का धुँआ अटका था।’ (पृष्ठ 136) इस प्रतीक को लेखिका ने गुरुजीके एक कथन (पृष्ठ 140) ‘आप जो पौध तैयार करेंगे, वह भविष्य का वटवृक्ष होगा’ के माध्यमसे खोलने की कोशिश की है।नरोत्तम गिरि को गुरुजी आदेश देते हैं—‘नागा योद्धा तैयार करो। धर्म के कमांडो बनाओ उन्हें।’तथा ‘राष्ट्र और धर्म के रक्षकों की फौज तैयार करो। देश को कभी भी हमारी जरूरतपड़ सकती है।’ (पृष्ठ 137) ऐसा ही आह्वान पृष्ठ 185 पर भी मिलता है जिसे पढ़ते हुएऐसा लगता है कि देश की रक्षा के लिए एक धर्मांध टीम की तैयारी का आदेश उसे दिया जारहा है। सवाल यह पैदा होता है कि अगर नागा साधु संप्रदाय इतना ही धर्मांध है तो भारत-विभाजन को रोकने की दिशा में इस समुदाय का क्या और कितना योग रहा? उपन्यास मेंकहा गया है कि ‘हालाँकि अब वो समय नहीं रहा, जब नागाओं का युद्ध कौशल देश कीराजनीति पर कमान रखता था।’ (पृष्ठ 139) इतिहास के उक्त काल पर उपन्यास एक-दोप्रसंगों का उल्लेख करके शांत रहता है, वह इसका विषय शायद था ही नहीं।

कहा गया है कि‘एक कमांडो की भी इतनी कठोर ट्रेनिंग नहीं होती, जितनी नागाओं की।’ (पृष्ठ 146) तथा‘यह सनातन धर्म की रक्षार्थ ही नहीं, बल्कि देश की रक्षा के लिए भी आवश्यक है।’(पृष्ठ140) लेकिन यह भी लिखा है कि ‘(अखाड़े) पहले सात हुआ करते थे, अब तेरह हो गये हैं!’(पृष्ठ 139) स्पष्ट है कि धर्म अथवा देश के दुश्मनों से लड़ने की बजाय नागा आपस हीलड़ते और विभाजित होते रहे। कहा गया है कि ‘अब तो नागा साधु राजनीति में भी सक्रियभूमिका निभाते हैं। लैपटॉप, मोबाइल भी रखने लगे हैं!’ (पृष्ठ 139)सवाल यह है कि नागा साधु अपने आप को नयी तकनीक से, अपने समय की सक्रियराजनीति से पीछे क्यों रखें? देश, धर्म, समुदाय और संप्रदाय सभी की भलाई नवीन तकनीकोंऔरआविष्कारों से जुड़ने, उन्हें अपनाने में है, उनसे विरक्त रहने में नहीं। इसलिए गुरुजीद्वारा नये भर्ती नागाओं को लैपटॉप और मोबाइल आदि देने को न तो उपहास की दृष्टि सेदेखा जाना चाहिए न ही हेय दृष्टि से।उपन्यास के इस भाग में कैथरीन से भेंट के उपरांत नरोत्तम की नागा-साधना अनेक बारप्रश्नों के घेरे में आती है। आगे भाग 10 में भी ‘नरोत्तम गिरि के चेहरे की खुशी देखते हीबन रही थी। उसकी आँखों में एक मोहक चमक ने डेरा डाल लिया था।’ (पृष्ठ 161) कहकरनरोत्तम के मन के मोहाविष्ट कोने को दिखाने की कोशिश की गयी है। सच यह भी है कि‘अपने जीते-जी खुद का तर्पण करने के बावजूद वह अतीत से मुक्त नहीं हो पाया था।’ (पृष्ठ190)भाग 9।

कुम्भ के मेले में अकेले जूना अखाड़े से ही लगभग 4 लाख से कुछ अधिक नागा गंगा में उतारने की तैयारी गुरुजी ने की है। सबसे पहले नागा संन्यासी ही गंगा स्नान करतेहैं, कारण? गुरुजी बताते हैं कि ‘साधना-तपस्या से प्रकाशवान हुआ हमारा शरीर माँ गंगा कीमनुष्यों द्वारा फैलाई समस्त गंदगी को साफ कर देता है।… माँ गंगा हमारे स्नान से प्रसन्नहो औषधियुक्त अमृतमयी हो जाती है।’‘गुरुजी के आदेश कमांडो के हैड की तरह होते हैं।’ (पृष्ठ 150) मैं समझता हूँ कि ऐसेकमांडो- हैड्स सभी धर्मों में विद्यमान रहते हैं।भाग 10। इस भाग में कुछ बड़े और कड़े सवाल नागा प्रतिनिधियों से किये गये हैं।मसलन,‘मगर बाबा, आप भी इस साधना से खुद का और देश का क्या भला कर रहे हैं?’ (पृष्ठ159) किसी विषय-विशेष के बारे में जानने को उत्सुक व्यक्ति को ‘बड़ा गूढ़ और गंभीरविषय है, समझना कठिन है’ (पृष्ठ 160) कहकर चुप कर देने का पैंतरा अधिकतर गुरुओं कारहा है। ‘जब-जब देश की सभ्यता, संस्कृति नष्ट हुई, तब-तब हम विरासत के पहरेदार बनकरआये हैं।’ जैसे वाक्य दंभ से ही पूरित नजर आते हैं।(पृष्ठ 161)

उपन्यास में एक प्रसंग ऐसा भी आया है, जब नागा साधुओं से प्रेरित होकर एक विदेशीलड़की स्वयं भी निर्वस्त्र त्रिवेणी तट पर घूमने लगती है। लड़की, वह भी विदेशी, की नग्न देहको देखने का आकर्षण श्रद्धालुओं के सिर चढ़कर बोलता है। पुलिस द्वारा उस लड़की कोअपने संरक्षण में वहाँ से ले जाना पड़ता है। उस अवसर पर नरोत्तम सोचता है—‘इस लड़की
के ऐसे आचरण का दोषी वह है।’ (पृष्ठ 165) यह एक विचारोत्तेजक प्रकरण है। बाद में भी,“कैथरीन!” आगे उसकी आवाज थरथराहट में बदल गयी। एवं “तो क्या मैं मानव नहीं हूँ?”(पृष्ठ 183) जैसे वाक्य सिद्ध करते हैं कि नरोत्तम क्लिष्ट नागा नहीं बन पाया। कैथरीन भीउसके मन की इस कमजोरी को जानकर उससे कहती है—‘कोई तो एक सूत्र है जो तुम्हें पूरी तरह संन्यासी होने से रोक रहा है।’ (पृष्ठ 184) ‘अपने जीते-जी खुद का तर्पण करने केबावजूद वह अतीत से मुक्त नहीं हो पाया था।’ (पृष्ठ 190) उपन्यास के पृष्ठ 166 परनरोत्तम कुछेक वर्जनाएँ तोड़ता-सा लगता है। उपन्यास में एक तरफ वर्जनाओं का सम्मानकरती, उन्हें अपनाती-सी कैथरीन है और दूसरी ओर कठोर नागा-साधना से गुजर चुके नरोत्तम
का मोहाविष्ट अवस्था से गुजरना, यह इस उपन्यास का महत्वपूर्ण और विचारणीय बिंदु है।‘इस एकांत में कैथरीन का सौंदर्य आह्वान-सा कर रहा था।’ (पृष्ठ 172) तथा ‘उस रात दोनोंका रतजगा हुआ; नरोत्तम का अपने अखाड़े में और कैथरीन का संगम तट पर घूमते हुए।अनंत आकाश में जैसे दोनों विचरण कर रहे थे। चाँद, तारे, ग्रह, नक्षत्र, आकाशगंगाएँ न उन्हेंसमझ पा रही थीं न वे दोनों खुद को।’ (पृष्ठ 173) एवं ‘कैथरीन से मिलकर नरोत्तम का मनउद्विग्न था। उसे लग रहा था जैसे वह नागा पथ से डिग रहा है।’(पृष्ठ 174) जैसी स्थितियाँइस कथन को प्रमाणित करती हैं। कैथरीन नागा दीक्षा-प्राप्त संन्यासिनी नहीं है; लेकिननरोत्तम है। ऐसे में उसका सामान्य व्यक्ति की तरह का व्यवहार चौंकाता अवश्य है।ध्यान और तप के संदर्भ में नरोत्तम जब एक वर्ष तक कंदराओं में रहा, अपने मोबाइल कोउसने स्विच ऑफ करके अपनी पोटली में रख दिया; लेकिन दिन भर में न जाने कितनी बारवह पोटली पर नजर डाल लेता जैसे कि कोई संदेश बाहर आने वाला है। (भाग 12, पृष्ठ181)इस संदर्भ में कैथरीन का यह कथन भी ध्यान देने योग्य है—‘लव इज रेवेल्यूशन। प्रेम हीक्रांति है।… क्रांति और प्रेम अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं; बल्कि दोनों एक हीप्रक्रिया के दो संबोधन हैं।’ (पृष्ठ 176) वह आगे कहती है—‘प्रेम तो जीवन और मनुष्यता काविवेकशील आधार है।’ (पृष्ठ 177)

पृष्ठ 179 से उपन्यास लखनऊ की सैर कराता है।भाग 11 में बताया गया है कि कौन पदाधिकारी नागा दीक्षा देते हैं, कौन नहीं। इसी भागमेंब्रह्मा जी द्वारा अपनी पुत्री, देवी सरस्वती, के साथ शारीरिक संबंध बनाने की एक पौराणिककथा पर भी सवाल उठाया गया है जिसके जवाब में नरोत्तम गिरि कहता है—‘यह सवाल तोमेरे मन में भी उठा था। सरस्वती अपने ही पिता के द्वारा छली गयी।’ नरोत्तम जैसे वैज्ञानिकदृष्टि से युक्त संन्यासी के मुख से यह उत्तर निराश करता है क्योंकि सभी पौराणिक संदर्भ मांसल नहीं हैं, वे प्रतीकात्मक भी हैं।

हिन्दू धर्म में व्यक्त देवियाँ (और देवता भी) अशरीरी शक्तियाँ हैं, उन्हें शरीरी देखना अभिव्यक्ति की साहित्यिकता की अवहेलना करना है।लेखिका ने लाठियाँ भाँजना, करतब दिखाना आदि कुछ ऐसे प्रकरण भी रखे हैं जो नागाओंकेबीच सामान्यत: भले ही प्रचलित न हों; लेकिन संसार से अवश्य जुड़ते हैं। (पृष्ठ
189)महिला नागा तैयार करने की प्रक्रिया को शैलजा माता के माध्यम से समझाने का यत्न किया गया है। शैलजा माता कैथरीन को बताती हैं कि—‘पाँच-छै दिन हमारी योनि को शिथिलकरने के लिए हमें भूखा रखा जाता है। हमारी कामेच्छा उसी दौरान समाप्त हो जाती है।’(पृष्ठ 206) भगवद्गीता, अध्याय 2 के 60वें श्लोक में कहा गया है कि—‘इन्द्रियाँ इतनी प्रबलऔर अशान्त होती है कि वे विवेकशील और आत्म नियंत्रण का अभ्यास करने वाले मनुष्य केमन को भी अपने वश में कर लेती हैं।’इसलिए यह समझ लेना कि मात्र योनि अथवा लिंग को शिथिल कर देने से कामेच्छा मर जाएगी, भ्रम है। इसी सत्य का प्राकट्य उपन्यास में यों हुआ है—‘इंसान को पता हो कि वहघुल रहा है।

संसार त्यागकर भी संसार अपनी ओर खींचे, कहाँ तक सहेगा शरीर। चाहे साधुहो, तपस्वी हो, साधारण इंसान हो, देह तो उन्हीं पंचतत्वों से बनी है।’(पृष्ठ 213)कैथरीन के प्रेम की ऊँचाई को लेखिका ने यों व्यक्त किया है—‘जिसने कभी यह नहीं कहाकि तुम मेरे साथ आ जाओ। हमेशा यही कहा कि काश! मैं तुम्हारे साथ होती।’(पृष्ठ 245)अंतिम भाग अत्यंत भावुक घटनाओं से भरा है। कंठ को अवरुद्ध और आँखों को आँसुओं सेभर देता है। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 के 16वें श्लोक में कहा गया है—‘क्षणिक का कोई धीरज नहीं है, और शाश्वत का कोई अंत नहीं है।’ तथा 28वें में कहा है कि—‘सभी प्राणीजन्म से पहले, जीवन में प्रकट होते हैं, और मृत्यु होने पर फिर से अव्यक्त होते हैं।’ इस भाग की शुरुआत यों होती है—‘बिछोह नरोत्तम गिरि से कैथरीन का, कैथरीन से नरोत्तम गिरि का।

दोनों अपनी-अपनी धुन में अकेले होते चले गये। घाटियाँ वीरान होती रहीं। फिर-फिर फूलों सेभरती रहीं।’ (पृष्ठ 246)नरोत्तम गिरि के देहावसान और कैथरीन द्वारा महिला नागा साधु बनने की घोषणा केबावजूद उपन्यास की कथा को दुखांत नहीं कहा जा सकता। सुखांत न सही, यह सुखकरअवश्य है क्योंकि इसकेअन्त में जीवन की सुखकर रेखा है।
**********
बलराम अग्रवाल

सुप्रसिद्ध साहित्यकार बलराम अग्रवाल का जन्म 26 नवंबर 1952 को बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। आप विभिन्न विधाओं में सृजन करते हैं जिनमें लघुकथा, कहानी, कविता, बाल एकांकी व आलोचना सम्मिलित हैं।

शिक्षा : पीएच डी (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।

कृतियाँ : लघुकथा व कहानी संग्रह सरसों के फूल (1994), जुबैदा (2004), चन्ना चरनदास (2004), पीले पंखों वाली तितलियाँ (2014), खुले पंजों वाली चील (2015), तैरती हैं पत्तियाँ (2019) बालकथा संग्रह अंधेर नगरी चौपट्ट राजा (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सुप्रसिद्ध नाटक का बालकथा रूपांतर, 1996), दूसरा भीम (1997), ग्यारह अभिनेय बाल एकांकी (2012), अकबर के नौ रत्न (2015), सचित्र वाल्मीकि रामायण (2015), भारत रत्न विजेता (2015), आधुनिक बाल नाटक (2017); इक्कीस श्रेष्ठ बाल नाटक (2019), माणा में मणिका (बाल उपन्यास, 2018) आलोचना हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान (2017), परिंदों के दरमियां (2018) अन्य उत्तराखण्ड (2011); सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण (2014) अनुवाद व पुनर्लेखन (अंग्रेजी से) अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ (2000); खलील जिब्रान (2012); करोड़पति भिखारी (2015); अनेक विदेशी कहानियाँ व लघुकथाएँ।

संपादन : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ (1997), तेलुगु की मानक लघुकथाएँ (2010), समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद (आलोचनाः 2012), राष्ट्रप्रेम के गीत जय हो! (2012), पड़ाव और पड़ताल खण्ड-2 (2014); विश्व हिन्दी लघुकथाकार कोश (2018); ओशोः अनछुए जीवन-प्रसंग, कथाएँ और सूक्तियाँ (2019); प्रेमचंद, प्रसाद, शरतचंद्र, बालशौरि रेड्डि आदि कुछ वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित कहानियों के 25 संकलन; 1993 से 1996 तक साहित्यिक पत्रिका ‘वर्तमान जनगाथा’ का प्रकाशन/संपादन; कुछ पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक, कुछ रंगमंचीय नाटकों में गीत व संवाद लेखन।

विशेष : केरल शिक्षा विभाग द्वारा कक्षा 7 के पाठ्यक्रम में, हि.प्र. शिक्षा विभाग द्वारा कक्षा 4 के पाठ्यक्रम में तथा मधुबन बुक्स, मुम्बई द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तक माला ‘गुंजन’ में कक्षा 6 के पाठ्यक्रम में बालएकांकी वर्ष 2014-15 से सम्मिलित। ‘केक्टस ते तितलीऔं’ (अनुवादक श्याम सुन्दर अग्रवाल) नाम से लघुकथाओं का संग्रह पंजाबी में प्रकाशित।

सम्मान व पुरस्कार : समय-समय पर अनेक साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत।

संपर्क: एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 मोबाइल : 8826499115/ई-मेल: [email protected]

मो 8826499115
E-mail:[email protected]
[email protected]

Book Discussion : लेखक और पत्रकार हरीश पाठक की किताब ‘मेरा आकाश-मेरे धूमकेतु’ पर चर्चा!