Book Review-“Urvashi-Pururava”: प्रेम की सनातन चेतना को आधुनिक दृष्टि देती “उर्वशी-पुरुरवा”

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Book Review -“Urvashi-Pururava”

Book Review -“Urvashi-Pururava”: प्रेम की सनातन चेतना को आधुनिक दृष्टि देती “उर्वशी-पुरुरवा”

 शकुंतला मित्तल
वैदिक संस्कृति की प्रथम प्रेमगाथा “उर्वशी-पुरुरवा” जैसे पुरातन, बहुचर्चित और बहुपठित विषय को उपन्यास विधा में आधुनिकता, तार्किकता और प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करना निश्चय ही एक दुष्कर कार्य था—जिसे लेखिका संतोष श्रीवास्तव ने न केवल स्वीकृत किया, बल्कि अपनी सशक्त लेखनी से उसे पूर्णता तक पहुँचाया।
जहाँ इस कथा को अब तक काव्यात्मक रूपों में, जैसे कालिदास की “विक्रमोर्वशीय” और दिनकर की “उर्वशी” में पढ़ा गया, वहीं संतोष जी ने इसे उपन्यास की शैली में प्रस्तुत कर इसे व्यापक पाठकवर्ग के लिए सुगम, आकर्षक और सहज बना दिया है। संस्कृत और क्लिष्ट काव्यरूपों से दूर यह कृति आज के पाठक को वैदिक संवेदना से जोड़ती है।
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संतोष श्रीवास्तव
उपन्यास में लेखिका ने केवल ऐतिहासिकता नहीं निभाई, बल्कि उसे समकालीन विमर्शों—नारीवाद, प्रेम की गहराई, पुरुष मनोविज्ञान और सामाजिक मान्यताओं से जोड़ कर एक नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। यह केवल प्रेमकथा नहीं, दो भिन्न संस्कृतियों के टकराव, सामंजस्य और मानसिक अंतर्द्वंद्व की गहन कथा है।
उर्वशी, देवलोक की अप्सरा, अमरत्व का मोह त्यागकर प्रेम की तृष्णा में मृत्यु लोक में उतरती है। वह सृजन और लय का उत्सव है, देह में नहीं, चेतना में प्रेम की उपस्थिति है।
उर्वशी, देवलोक से स्वेच्छा से भू लोक में प्रेम के लिए आई है। उसकी जिज्ञासा, समर्पण, और मातृत्व की प्यास उसे पूर्ण नारी बनाती है। वह कहती है:
“क्या अर्थ रह जाता है यौवन की क्रांति का, जब देह उन सुखों से वंचित हो, जो स्त्री का शृंगार हैं—प्रेयसी, पत्नी, माता…”
 पुरुरवा, एक राजा, एक पति और एक प्रेमी—तीनों रूपों में अपने दायित्वों, स्वार्थ और अंतर्द्वंद्वों से जूझता है। लेखक ने पुरुरवा की भावनाओं को मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता से उकेरा है।
पुरुरवा के भीतर चल रहे द्वंद्व को लेखिका ने अत्यंत सजीवता से चित्रित किया है—जहाँ वह औशीनरी का सम्मान करता है, उसके धर्मज्ञान और राज्य संचालन की सराहना करता है, वहीं उर्वशी के लिए उसका प्रेम कहीं गहरा और स्पष्ट है। औशीनरी के समक्ष वह अपने भावों को छिपाता है, जबकि राजविदूषक के सामने उन्हें खुलकर व्यक्त करता है।
औशीनरी, जो महाराज की धर्मपत्नी है, उसकी उपेक्षा नहीं होती, परंतु वह अपने अंतर्द्वंद्वों से अकेली जूझती है। लेखिका ने औशीनरी के माध्यम से उन स्त्रियों की पीड़ा को स्वर दिया है, जो अपने पति की दूसरी स्त्री के प्रति आसक्ति देखती हैं, पर प्रश्न करने की शक्ति नहीं रखतीं।
लेखिका की कलम औशीनरी के मन में उठते युगान्तरकारी प्रश्नों को बड़ी संवेदनशीलता से दर्ज करती है:
 “यह कैसा संसार का नियम है कि पुरुष भले ही दूसरी स्त्री के साथ भोग-विलास कर लौटे, उसकी पत्नी उसका स्वागत ही करती है—मानो वह युद्ध में विजय प्राप्त कर लौटा हो?”
“क्या केवल संतान न दे सकने के कारण वह उपेक्षित रह गई?”
“यदि पति नपुंसक हो तो क्या पत्नी संतान प्राप्ति के लिए यही करेगी?”
“और तब क्या उसका पति उसका इस तरह स्वागत करेगा?”
यह प्रश्न सदियों से अनुत्तरित हैं। लेखिका औशीनरी के माध्यम से उस नारी अस्मिता की करुण पुकार को स्वर देती हैं, जो युगों से पुरुषों के निर्णयों का बोझ ढोती आई है।
सुकन्या, तीसरी स्त्री पात्र, वैदिक मर्यादाओं की मूर्तिमान अभिव्यक्ति है। अपने सम्मान की रक्षा के लिए वह च्यवन ऋषि के आगे झुकने से इनकार कर देती है। यह चरित्र स्त्री आत्मसम्मान और आत्मबल की सशक्त मिसाल बन कर उभरता है।
सुकन्या आत्मगौरव और आत्मसंरक्षण की प्रतीक  है। च्यवन ऋषि के प्रस्ताव को वह अस्वीकार कर देती है—यह जानते हुए भी कि इससे उसका जीवन संकट में पड़ सकता है। उसका कथन—
 “कुछ सुख छूट जाने के लिए होते हैं, कुछ सुखों को पाने में मनुष्य जीवन भर लगाता है”—
मनुष्य जीवन के रहस्य को नारी दृष्टि से उद्घाटित करता है।
उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है—प्रेम की उदात्तता। लेखिका देह से परे जाकर प्रेम की उस अनुभूति को छूती हैं, जहाँ समर्पण है, करुणा है और अस्तित्व की खोज है।
“प्रेम के पथ की थकान भी जब मधुर लगे…” जैसे संवाद पाठक को भीतर तक भिगो देते हैं।
संतोष श्रीवास्तव की लेखनी की दूसरी विशेषता है—प्रामाणिकता। चाहे वह गंधमादन पर्वत का वर्णन हो, कस्तूरी मृग की जानकारी हो, या औषधीय वनस्पतियों का विवेचन—हर तथ्य शोध पर आधारित है, परन्तु कहीं भी उपदेशात्मक नहीं, संवादों में पिरोकर सहज बना दिया गया है।
कथानक के बीच-बीच में बहुत से सूक्ति वाक्य आते हैं, जो कहानी के प्रभाव और गंभीरता को बढ़ाने के साथ उसे आज की देश काल स्थिति से जोड़ देते हैं -“जैसे आश्रम का स्वतंत्र वातावरण जहाँ स्त्री पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किंतु जहां संस्कारों की बात आती है स्त्री की अपेक्षाएँ यहाँ भी बढ़ जाती हैं। पुरुष यहाँ भी स्त्री से उच्च माने जाते हैं। “
उपन्यास में कथानक को प्रामाणिक, विश्वसनीय और तर्क युक्त बनाने के लिए चमत्कारों से  मुक्त रख बदलाव किए गए हैं।
च्यवन की आँखें ठीक कराने के लिए अश्विनकुमार दवा की बूंदे डालते भी हैं और नियमित प्रयोग का निर्देश भी देते हैं । औषधिय जल में स्नान भी करवाते हैं । उर्वशी की शर्तों को भी नए रूप में रखा गया है।
प्रकृति-वर्णन हो या सामाजिक संदर्भ—हर पंक्ति में लेखिका की अनुभूति, शोध और संवेदना झलकती है।
उदाहरणार्थ, किन्नर जनजाति, हिमालय की जलधाराएँ, वनस्पतियों का वर्णन—सब कुछ उपन्यास को सिर्फ कथा नहीं, एक जीवंत सांस्कृतिक अनुभव बना देते हैं।
उपन्यास की भाषा सरल, प्रवाहमयी, परंतु विचारों में गहराई लिये हुए है। कथ्य की गंभीरता को सुक्तियों और सारगर्भित संवादों से शक्ति मिलती है।
अंत में पुरुरवा का विवेकपूर्ण वानप्रस्थ गमन और उर्वशी का पत्र लिखकर जाना, इस प्रेम कथा को आत्मिक ऊँचाई प्रदान करता है। यह प्रेम देह से ऊपर आत्मा की पुकार है।
यादों में आपातकाल- एक :इंदिरा की जेल में नेता,गुंडे,गिरहकट एक भाव!
उर्वशी-पुरुरवा” एक प्रेम कथा भर नहीं, यह नारी मन की चेतना, पुरुष के अंतरद्वंद्व, प्रेम की उदात्तता और सामाजिक विमर्शों का समुच्चय है। यह उपन्यास मन में उतरता नहीं, मन को भीतर से जगा देता है।
दूसरे शब्दों में यदि यह कहा जाए कि“उर्वशी-पुरुरवा” केवल वैदिक प्रेमकथा नहीं, यह सनातन चेतना का आधुनिक पुनर्पाठ है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
यह स्त्री की गरिमा, पुरुष के स्वार्थ, प्रेम की गहराई और जीवन मूल्यों का विमर्श है।नव चेतना से युक्त इस उपन्यास को पढ़ते समय चित्र आँखों के समक्ष उभर कर आते हैं और पाठक उसे विभोर हो देखता रह जाता है।
जब उरवशी और पुरु परिणय सूत्र में स्नान करके बंधते हैं तो   भाषा देखने योग्य है, “सूर्य की नाजुक सी किरण ने उर्वशी के मुख को    प्रकाशित किया और मांग में सिंदूर के समान सज गई। “
यह उपन्यास पाठकों के मन को बांध लेगा और युवाओं को भी हमारी वैदिक प्रेमकथा से जोड़ेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
इस अत्यंत संवेदनशील, शोधपूर्ण और कलात्मक उपन्यास के लिए संतोष श्रीवास्तव जी निश्चित ही हार्दिक बधाई की पात्र हैं।
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शकुंतला मित्तल
शिक्षाविद एवं साहित्यकार