SIlver Screen:’बॉयकॉट’ नया शब्द, पर फिल्मों के विरोध का इतिहास पुराना!

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फिल्म इंडस्ट्री को जन्मे सौ साल से ज्यादा समय हो गया। मनोरंजन के इस सफर में सिनेमा ने कई विवादों का सामना किया। कुछ विवाद तार्किक थे, कुछ बेवजह खड़े किए गए! कई फिल्मों को बनने के बाद उनकी रिलीज को रोक दिया गया, कुछ फ़िल्में ऐसी भी बनी जिन्हें सेंसर ने ही पास करने से मना कर दिया। ऐसा भी हुआ कि दर्शकों ने फिल्म रिलीज होने के बाद सामाजिक कारणों से इन फिल्मों पर आपत्ति उठाई! ऐसे में फिल्मों को सिनेमाघरों से उतार दिया या दर्शकों ने पोस्टर फाड़कर डिस्ट्रीब्यूटर्स को इसके लिए मजबूर कर दिया गया। इसके अलावा भी कई कारण रहे, जब फिल्मों के सामने आपत्तियां आई! इन्हीं में से एक कारण है फिल्मों का बॉयकॉट, जो इन दिनों खासी चर्चा में है।

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किसी फिल्म को क्यों बॉयकॉट का सामना करना पड़ता है, इसका कोई एक जवाब नहीं है! दर्शक बरसों से अलग-अलग कारणों से फिल्मों को नकारते आए हैं! लेकिन, फ़िलहाल सोशल मीडिया के कारण बॉयकॉट आसान हो गया और इसका असर भी ज्यादा दिखाई देने लगा। तार्किक आधार पर फिल्मों का विरोध तो होता आया! पर, किसी फिल्म या उसके कलाकारों का विरोध करके ‘बॉयकॉट’ शब्द को सोशल मीडिया पर ट्रेंड करना नई बात है। इसके ट्रेंड होने से फिल्मों को करोड़ों का नुकसान हो रहा। कई सेलिब्रिटी इस ट्रेंड का ऐसा शिकार हुए और उनकी सभी फिल्मों को ठुकराया जाने लगा। कोई ये नहीं समझ रहा कि किसी फिल्म के बॉयकॉट से सिर्फ एक सेलिब्रिटी पर ही असर नहीं पड़ता! फिल्म से जुड़े हजारों लोगों पर उसका अलग-अलग तरह से प्रभाव पड़ता है। इसमें उस धर्म और समाज के भी लोग होते हैं, जिस समाज के लोग बॉयकॉट का नारा बुलंद करते हैं।

सत्यम शिवम सुंदरम, राम तेरी गंगा मैली, सिद्धार्थ और ‘इंसाफ़ का तराजू’ जैसी फ़िल्में जब रिलीज हुई थी, तो इनका भी विरोध हुआ। पर, सबके कारण अलग-अलग कारण रहे। ‘एन इवनिंग इन पेरिस’ में जब शर्मीला टैगोर ने बिकनी पहनी तो दर्शकों ने उंगली उठाई थी। संजय दत्त का जब मुंबई बम कांड में नाम आया, तब भी लोगों ने उनकी रिलीज फिल्म ‘खलनायक’ के पोस्टर फाड़कर फिल्म को उतारने पर मजबूर कर दिया था। मेवाड़ की रानी पद्मावती के जीवन पर बनी फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर भी बड़ा विरोध उभरा! फिल्म की रिलीज को रोकना पड़ा और फिल्म का नाम भी बदला गया। इसलिए कि इस फिल्म के एक सीन में मुगल राजा अलाउद्दीन खिलजी के रानी पद्मावती के प्रति गंदे और अश्लील विचारों को फिल्माया गया था। फिल्माई गई इन घटनाओं को कई इतिहासकारों ने सच भी बताया। लेकिन, राजस्थान के कई राजपूत समाजों को इससे ठेस पहुंची थी।

सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद ‘नेपोटिज्म’ शब्द सामने आया और इसके साथ ही ऐसी फिल्मों का विरोध हुआ, जिसमें फिल्म वालों के बेटे-बेटियां काम कर रही थी। एक फिल्म अभिनेत्री राधिका आप्टे को उनके बोल्ड व्यवहार की वजह से बॉयकॉट सहना पड़ा था। उनकी फिल्मों लस्ट स्टोरीज, हंटर और ‘पर्चड’ को दर्शकों ने नकार दिया था। लेकिन, पिछले संदर्भों में अभी तक ऐसा नहीं देखा गया कि धार्मिक कारणों या पुराने मुद्दों को उठाकर एक्टर्स के खिलाफ बॉयकॉट की आवाज उठी हो! पर, ये अब ये हो रहा है। इस साल के आठ महीनों में परदे पर उतरी 29 फिल्मों में से 26 फ़िल्में नहीं चलीं। सभी का तो बॉयकॉट नहीं हुआ, पर जिन भी फिल्मों के खिलाफ आवाज उठी, उन्हें दर्शकों ने नकार दिया। इसके ताजा उदाहरण है अक्षय कुमार की ‘रक्षा बंधन’ और आमिर खान की ‘लाल सिंह चड्ढा’ जो इसलिए नहीं चली कि इसके कलाकार या कहानीकार ने धार्मिक टिप्पणी की थी।

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फिल्म अच्छी नहीं थी, कहानी में दम नहीं था या उसमें कोई कमजोरी थी, इस बात का कोई जिक्र नहीं कर रहा! फिल्म के न चलने का कारण सिर्फ बॉयकॉट माना जा रहा है! दोनों फिल्मों के साथ ऐसा कुछ नहीं है, जिसे बॉयकॉट का कारण तार्किक कारण माना जाए! कई बार कहा जाता है, कि बॉलीवुड की फिल्मों का बायकॉट होना चाहिए। क्योंकि, यहां नेपोटिज्‍म है, असली कहानियां दिखाई नहीं देती! फिर भी जब बात नहीं बनी, तो इसे अलग रंग दिया जाने लगा। कहा गया कि बॉयकॉट इसलिए होना चाहिए, क्योंकि नायक और नायिका देशहित में नहीं सोचते, वो धर्म विशेष को जानबूझकर बदनाम करते हैं। अलग संदर्भ में दिए उनके बयानों को तोड़-मरोड़कर फिल्म के विरोध का कारण बनाकर बॉयकॉट की आवाज उठाई जाती है। जब फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो जाती है, तो कॉलर खड़ी करके उसका श्रेय भी लिया जाता है!

हाल के सालों में 2010 में शाहरुख़ खान की फिल्म ‘माई नेम इस खान’ से इस तरह का विरोध शुरू हुआ था। कारण बताया गया कि उन्होंने आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों को खिलाए जाने का समर्थन किया और अपनी टीम में उनको जगह दी थी! जबकि, 2008 में हुए 26/11 हमले के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा था। जब उनकी फिल्म ‘माय नेम खान’ रिलीज हुई, तो लोगों ने इसका विरोध किया। 2015 में आमिर खान ने असहिष्णुता पर बयान दिया था। आमिर खान ने दिल्ली में हुए एक आयोजन में बयान देते हुए कहा था ‘उनकी पत्नी को भारत में डर महसूस होता है और वे विदेश सेटल होना चाहते हैं।’ विवाद इतना बढ़ा और आमिर का विरोध किया जाने लगा। आमिर का सपोर्ट करने वालों की फिल्में बायकॉट की जाने लगी। 2020 में सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद स्टार किड्स और उनकी फिल्मों को बायकॉट किया गया, जिससे कई फिल्में बुरी तरह फ्लॉप हुईं।

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फिल्मों का विरोध करने का सिलसिला नया नहीं, बल्कि आजादी के पहले से चला आ रहा है! ये वो दौर था, जब फिल्म इंडस्ट्री को ब्रिटिश सेंसर बोर्ड पास करता था। आज बायकॉट का शोर सोशल मीडिया के जरिए चलता हो, पर उस दौर में ऐसा कोई माध्यम नहीं था। आजादी के बाद तमिल एक्ट्रेस टीपी राजलक्ष्मी ने ‘इंडिया थाई’ (भारत माता) फिल्म बनाई, तो ब्रिटिश सेंसर ने इसे रिलीज होने से रोक दिया था। काफी विवाद भी हुआ, पर फिल्म रिलीज नहीं हुई। इसके बाद मृणाल सेन के निर्देशन में बनी ‘नील अकाशर नीचे’ पहली ऐसी फिल्म थी, जिसे राजनीतिक विरोध बताते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बैन किया था। इस फिल्म में दिखाया था कि कैसे नेता अपने पावर का इस्तेमाल करके नीचे तबके के लोगों को नुकसान पहुंचाते हैं। मामला संवेदनशील होने पर नेहरू ने इसकी रिलीज को रोक दिया, फिर तीन महीनों बाद इसे रिलीज किया गया। 1967 में ‘एन इवनिंग इन पेरिस’ में शर्मिला टैगोर की बिकनी ने भारी हंगामा किया था। इस फिल्म पर भारतीय संस्कृति को खराब करने के आरोप लगे! फिल्म बैन करने की मांग भी हुई। लेकिन, इस विवाद का फिल्म पर कोई असर नहीं पड़ा। बाद में तो कई नायिकाओं ने फिल्मों में बिकिनी पहनी। हिमाचल प्रदेश के एक व्यक्ति ने राज कपूर की 1978 में आई फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ पर उसके बोल्ड कंटेंट को लेकर रोक लगाने की मांग की थी। राज कपूर की ही फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था।

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फिल्म देखकर विरोध करना अलग बात है, पर फिल्म की शूटिंग से ही उसका विरोध शुरू होने लगे, ऐसा सिर्फ हमारे देश में ही संभव है। समलैंगिकता पर बनी दीपा मेहता की फिल्म ‘वाटर’ (2005) के सेट पर इस वजह से तोड़फोड़ की गई थी। जेएनयू के प्रोटेस्ट में शामिल होने के कारण दीपिका पादुकोण की फिल्म ‘छपाक’ (2019) बॉक्स ऑफिस पर अच्छे कारोबार से पिछड़ गई थी। सोशल मीडिया पर दीपिका का बायकॉट होने से इसका सीधा असर फिल्म के बिजनेस पर पड़ा था। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद से ही नेपोटिज्म का मुद्दा सुर्खियों में रहा। उस वक़्त स्टार किड्स की ज्यादातर फिल्मों को बायकॉट किया गया। जब आलिया भट्ट की फिल्म ‘सड़क-2’ रिलीज हुई तो बायकॉट के चलते बुरी तरह पिट गई। ट्रेलर रिलीज होते इसे 5.3 मिलियन डिसलाइक मिले थे।

कौन सी फिल्म दर्शकों के लिए सही है, इसका फैसला हमेशा से सेंसर बोर्ड करता रहा है। लेकिन, जब सेंसर बोर्ड को फिल्म भड़काऊ, विवादित कंटेंट वाली या भावनाएं आहत करने वाली फिल्मों को अनदेखी करके पास करता है, तो इसका फैसला अब दर्शक करने लगे! वे सेंसर बोर्ड से पास होने के बावजूद प्रतिबंध की मांग करती है। इसका कारण हिंसक कंटेंट, धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले दृश्य या इतिहास तोड़-मरोड़कर पेश करना होता है। लेकिन, कई ऐसे मामले हैं, जब फिल्म में कुछ भी विवादस्पद न होने के बावजूद सिर्फ कलाकारों से जुड़ी कंट्रोवर्सी के कारण फिल्मों का बायकॉट किया जा रहा है, जो सही नहीं कहा जा सकता। आलिया भट्ट की फिल्म ‘डार्लिंग’ के कॉन्सेप्ट से भी लोगों को आपत्ति है। इस फिल्म में मनोरंजन के नाम पर पुरुषों को प्रताड़ित किया गया है। ये फिल्म ओटीटी पर रिलीज हुई और पसंद भी की गई! यदि सिनेमाघर में इसे लगाया जाता तो निश्चित रूप से उसे अब तो बॉयकॉट का शिकार होना पड़ता! दरअसल, हर बार बॉयकॉट सही नहीं होता और न उसके पीछे सार्थक वजह ही होती है! राजनीति भी बॉयकॉट का कारण बन गया!