

जातिगत जनगणना: फायदे और नुकसान! जाति की गिनती या नई राजनीति की गिनती?
कीर्ति कापसे की विशेष रिपोर्ट
भारत में जातिगत जनगणना का मुद्दा एक बार फिर से केंद्र में है, क्योंकि केंद्र सरकार ने आगामी जनगणना में सभी जातियों का विवरण शामिल करने का निर्णय लिया है। यह 1931 के बाद पहली बार होगा जब सभी जातियों का विस्तृत डेटा एकत्र किया जाएगा, जिससे सामाजिक न्याय, आरक्षण नीतियों और राजनीतिक समीकरणों पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है ।
*जातिगत जनगणना के संभावित लाभ*
1. नीतियों के लिए सटीक डेटा
वर्तमान में कई आरक्षण और कल्याणकारी योजनाएँ पुराने या अधूरे आंकड़ों पर आधारित हैं। नई जनगणना से प्राप्त डेटा से यह स्पष्ट होगा कि किन जातियों को वास्तव में सहायता की आवश्यकता है, जिससे योजनाओं को अधिक प्रभावी और न्यायसंगत बनाया जा सकेगा ।
2. आरक्षण की समीक्षा और सुधार
जातिगत आंकड़ों के आधार पर यह मूल्यांकन किया जा सकेगा कि आरक्षण से किन समुदायों को लाभ मिला है और किन्हें नहीं। इससे आरक्षण नीतियों में आवश्यक संशोधन संभव होंगे ।
3. सामाजिक असमानताओं की पहचान
जाति, लिंग, धर्म और क्षेत्र जैसे कारकों के बीच अंतःसंबंधों को समझने में मदद मिलेगी, जिससे बहुआयामी वंचनाओं को दूर करने के लिए लक्षित नीतियाँ बनाई जा सकेंगी ।
4. राजनीतिक प्रतिनिधित्व में संतुलन
जातिगत जनगणना से यह स्पष्ट होगा कि विभिन्न जातियों का जनसंख्या में कितना हिस्सा है, जिससे राजनीतिक प्रतिनिधित्व को अधिक समावेशी और संतुलित बनाया जा सकेगा।
*जातिगत जनगणना के संभावित नुकसान*
1. जातिवाद को बढ़ावा
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जातिगत जनगणना से जातिगत पहचान और विभाजन को और अधिक बल मिल सकता है, जिससे सामाजिक एकता को खतरा हो सकता है ।
2. राजनीतिकरण और ध्रुवीकरण
जातिगत आंकड़ों का राजनीतिक दलों द्वारा अपने हितों के लिए उपयोग किए जाने की संभावना है, जिससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ सकता है ।
3. प्रशासनिक और तकनीकी चुनौतियाँ
भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में सटीक जातिगत डेटा एकत्र करना एक बड़ी प्रशासनिक चुनौती है, जिसमें गलतियाँ और विवाद होने की संभावना है ।
राज्यों के अनुभव: बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना
• बिहार: 2022 में बिहार सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण कराया, जिसमें पाया गया कि पिछड़ी जातियों की संख्या 80% से अधिक है, जिससे आरक्षण बढ़ाने की मांग तेज हुई ।
• कर्नाटक: 2015 में किए गए सर्वेक्षण की रिपोर्ट 2025 में प्रस्तुत की गई, जिसमें वोक्कालिगा और लिंगायत समुदायों की जनसंख्या अपेक्षाकृत कम दिखाए जाने पर विवाद हुआ ।
• तेलंगाना: 2024 में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि पिछड़ी जातियाँ राज्य की 56.33% आबादी हैं, जिससे आरक्षण नीतियों में बदलाव की संभावना बढ़ी ।
जातिगत जनगणना एक दोधारी तलवार है। एक ओर यह सामाजिक न्याय, समावेशी विकास और नीतिगत सुधारों के लिए आवश्यक डेटा प्रदान कर सकती है, वहीं दूसरी ओर इससे सामाजिक विभाजन, राजनीतिक ध्रुवीकरण और प्रशासनिक चुनौतियाँ भी उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए, इसे सावधानीपूर्वक, पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ लागू करना आवश्यक है, ताकि इसके लाभों को अधिकतम और नुकसान को न्यूनतम किया जा सकें ।