

Cast Sensus:जाति जनगणना से क्या कुछ बदलेगा ?
रमण रावल
मोदी सरकार ने अगली जनगणना की घोषणा करते हुए इसमें जातिगत गणना का भी ऐलान किया है। जाहिर-सी बात है कि कांग्रेस समेय विपक्ष इसे अपनी जीत बता रहा है,जो राजनीतिक रूप से एक हद तक सही भी है। वह दो साल से लगातार यह मांग करता आ रहा है, जो लोकसभा व राज्यों के विधानसभा चुनाव के समय अधिक मुखर हो जाया करती थी। अब जबकि भाजपा सरकार ने इसे जनगणना में शामिल कर लिया है, तब बड़ा सवाल यह है कि इससे किसे फायदा होगा? फायदा होगा भी या नहीं या कितना फायदा होगा ?
दरअसल, 2021 में जो जनगणना होनी थी, वह कोरोना के कारण आगे बढ़ा दी गई थी। इसे 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले हर हाल में करना ही था। संभावना है कि इसके आंकड़ें 2028 में सामने आ जायें। 2011 के आंकड़े अगस्त 2015 में जाहिर हुए थे। इतना ही नहीं तो 2029 के आम चुनाव से पहले क्षेत्र परिसीमन भी होना है। लोकसभा-विधानसभाओं की सीटें कम-ज्यादा होना है। महिला आरक्षण भी करना है। ऐसे में जातिगत जनगणना का मुद्दा भी निपट जायेगा। इससे विपक्ष या सत्ताधारी दल दोनों को ही कोई बड़ा लाभ इसकी वजह से मिल जायेगा,प्रारंभिक तौर पर ऐसा तो नहीं लग रहा।
इस धरती पर आपको भारत जैसा देश कहीं नहीं मिलेगा। धर्म,जाति परंपरा,तीज-त्यौहार,रीति-रिवाज,मान्यतायें,जातिगत विवाद,जातिगत राजनीति,आरक्षण जैसे अनगिनत ऐसे मुद्दे हैं, जिनका कोई सर्वमान्य हल नहीं है, लेकिन इनमें से किसी भी मान्यता वाला पीछे हटने को तैयार नहीं । ऐसे में जब विपक्ष ने जातिगत जनगणना का ढोल बजाना प्रारंभ किया तो आश्चर्य नहीं हुआ। ठेठ गांव-देहात के अलावा आम तौर पर इस मांग से खिन्नता ही प्रकट की गई। अब जबकि सरकार ने इसकी घोषणा कर ही दी तो अब देश को प्रतीक्षा इस बात की है कि इसके नतीजे क्या आयेंगे और उन पर किस तरह की प्रतिक्रिया सामने आयेगी ?
पहले पिछली जनगणना की बात करे लें। 2011 में जनगणना में असंख्य जातियां लिपिबद्ध की गई, किंतु उसे जाहिर नहीं किया । याने जातियों पर बात तो तब भी की ही गई थी। जबकि 1931 की जनगणना में करीब 4 हजार जातियां ही वर्गीकृत की गई थीं। तब इस जनगणना में नया क्या होगा? नया यह होगा कि जातियां,उपजातियां स्पष्ट हो सकेंगी और अपनी मनमर्जी से कोई चाहे जो जाति नहीं लिखवा सकेगा। चूंकि उसका एक फॉर्म होता है, जिसमें अभी करीब दो दर्जन कॉलम है, जिसमें संभवत 4-5 कॉलम और बढ़ जायेंगे। इसमें उल्लेखित जातियों में से ही जाति लिखी जायेगी। किसी के कुछ भी कह देने से कोई नई जाति नहीं मान ली जायेगी।
जातिगत जनगणना से आरक्षण का प्रतिशत कम-ज्यादा हो जाने का कोई सीधा संबंध नहीं होता, न ही अल्पसंख्यक,बहुसंख्यक का फैसला होता है। जैसा कि कल्पना की जा रही है। उसकी वजह यह है कि अलग-अलग प्रांतों में जातियां आरक्षित हैं या नहीं हैं। जैसे कश्मीर में ब्राह्मण अल्पसंख्यक नहीं है।वहीं मप्र व में कुछ ब्राह्मण पिछड़े वर्ग में हैं तो राजस्थान के किसी जिले में वे अल्पसंख्यक हैं। कहीं पर राजपूत पिछड़़े वर्ग में है तो कहीं नहीं है। बुनकरों को लेकर ही राज्यों में काफी अंतर है। मप्र,राजस्थान में बुनकर अनुसूचित जाति में है तो गुजरात में सवर्ण है। गुजरात में चांदी-सोने की जरी का काम ये बुनकर करते हैं, जो काफी समृद्ध हैं। तो इस तरह की विसंगति भी जातिगत जनगणना में रहने वाली है।अलबत्ता जातिगत जनगणना के बाद यह संभव है कि दलित व अति दलित तथा पिछड़े व अति पिछड़ों के बीच संघर्ष प्रारंभ हो जाए।
इसका जो आगे असर संभावित है, वह यह कि विपक्ष को यदि इसे मुद्दा बनाये रखना ही होगा तो वह 50 प्रतिशत से अधिक होने पर भी कुछ जातियों को आरक्षित करने तथा कुछ जातियों को आरक्षण में डालने का दबाव बना सकता है। याने जातियों का जिन्न स्थायी तौर पर बोतल में बंद कर दिया जायेगा,ऐसा भ्रम पालना भारी पड़ेगा। जिस देश में इक्कीसवीं सदी में भी जातियों के वर्चस्व के हिसाब से कमोबेश सारे राजनीतीक दल पंचायत से लेकर तो लोकसभा तक टिकट देती है, वहां यह मुद्दा नासूर बने रहने के पूरे अवसर हैं। फर्क इतना पड़ने वाला है कि सत्ताधारी दल विपक्ष पर दुष्प्रचार करने का आरोप लगाकर उसे बेनकाब कर सकती है। इस मसले पर कोर्ट-कचहरी भी बढ़ेगी ही।
वैसे,जातिगत जनगणना की जानकारी सार्वजनिक होने के बाद आरक्षण के मुद्दे को हवा दे भी दी गई तो अदालत में काफी माथापच्ची होगी ही। न्यायालय संविधान के तहत 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण बढ़ाने की अनुमति नहीं दे सकता। इसके लिये संविधान संशोधन आवश्यक होगा, जो सत्ताधारी दल पर निर्भर करेगा।
जो भी हो,अब तो हमें जातिगत जनगणना के लिये तैयार रहना चाहिये । इससे सभी जातियों को अपनी वास्तविक स्थिति पता चलेगी और वे तद्नुसार अपनी राजनीतिक व्यवस्था के लिये प्रवृत्त हो सकेंगे। एक जो बात काफी मायने रखेगी, वह यह कि काफी तेजी से गांवों का उच्च वर्ग खेती-किसानी से दूर हो रहा है और पिछड़़ा वर्ग खेती की तरफ जा रहा है। तो जो पिछड़ा वर्ग खेती से समृद्ध हो रहा है, वह आर्थिक आधार पर कैसे पिछड़े वर्ग में रह पायेगा। आम तौर पर जनगणना में घर की महिलायें,किशोर,युवा सामने आते हैं। वे जानकारी छुपा लें, यह जरूरी नहीं । ऐसे लोग स्वमेव ही पिछड़े वर्ग से बाहर हो जायेंगे। तब क्या होगा?
कुल मिलाकर यह कि इस जातिगत जनगणना को अपने हक में एकतरफा समझना किसी भी राजनीतिक दल के लिये महंगा सौदा साबित हो सकता है।