संशय व निर्णय के भंवर में फंसी इस बार की दीपावली का शास्त्रोक्त मर्म …….

*शास्त्रों का ज्यादा ज्ञान न रखने वाले और लोक परम्परा के अनुगामी 31 अक्टूबर को ही मनाएं दीपावली,विद्वानों को स्वविवेक से पहुंचे ज्ञान मंथन कर संशय से निर्णय पर* .................

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संशय व निर्णय के भंवर में फंसी इस बार की दीपावली का शास्त्रोक्त मर्म …….

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प्रख्यात ज्योतिषाचार्य पंडित अशोक शर्मा शास्त्रों के अनुसार बता रहे हैं कि क्यों,किस तरह 31 या 1 को दीपावली मनाने पर हो रहा है वाद विवाद

इस वर्ष दीपावली पर्व को मनाने को लेकर बहुत असमंजस की स्थितियां बनी हुई है। भारत वर्ष के सभी पंचामती कर्मकांड के विशेषज्ञ विद्वानों में आपस में बहुत अधिक मत भिन्नता अमावस्या और दीपावली तिथि को लेकर है। सभी के अपने-अपने प्रमाण व दावे हैं। यद्यपि तिथियों को लेकर हमेशा ही मतभिन्नता रहती है। अब गूगल, फेसबुक‌, मोबाइल आदि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के कारण और अधिक विचार भेद और अपनी-अपनी प्रशंसा करने कराने का,श्रेय लेने का भाव बढ़ा हुआ है। यद्यपि प्राचीन समय से ही ज्योतिष शास्त्र, चूंकि यह ज्योतिष शास्त्र का विषय है, के परम विद्वानों के अपने अपने मत एवं प्रमाणों की ज्योतिष के मान्य ग्रंथों धर्म सिंधु निर्णय सिंधु ,सूर्य सिद्धांत आदि कई ग्रंथों में विस्तार से चर्चा की गई है और स्पष्ट निर्देश भी हैं। अभी वर्तमान में आम जनता को इन बातों से सरोकार नहीं होने के कारण वह भ्रम की स्थिति में होती है। ऐसा नहीं है की पूर्व में ऐसी विसंगतियां नहीं देखी गई है। समस्या यह है कि आकाश में सूर्य और चंद्रमा की गति पृथ्वी से देखने पर अलग अलग है। इसीलिए सूर्य के एक राशि भोगने को सौर मास कहा जाता है और चंद्रमा के 12 राशियों को भोगने को चंद्र मास कहा जाता है। सूर्य एक दिन में एक अंश एक राशि में चलता है। चंद्रमा एक दिन में सिर्फ एक नक्षत्र चलता है। चंद्रमा एक नक्षत्र के 24 घंटे में, 13 अंश 20 कला चलता है, इससे एक तिथि का मान या अवधि 12 अंश की होती है। इस प्रकार शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि की शुरुआत होती है। शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को सूर्य से चंद्र की 12 के गुणित में बढ़ती हुई पूर्णिमा के दिन 180 कला आमने सामने हो जाता है, इसी प्रकार ‘अमावस्या आती है। पूर्णिमा से यह क्रम घटता जाता है,इस प्रकार अमावस्या तिथि आती है।इस प्रकार चंद्र मास और सौर-मास बनते हैं। इसमें समस्या यह आती है कि 1 अंश 20 कला का अंतर सूर्य के चलने में और चंद्रमा के चलने में प्रतिदिन आ जाने के कारण और मास 30 दिन का और चंद्र- मास कभी 26 दिन का और कभी 29 दिन का होता है। इसी से तिथि का मान या अवधि सूर्य के सापेक्ष घटती-बढ़ती रहती है। यह खगोल-विज्ञान का गणित होने के कारण आम जनता इसको समझ नहीं पाती है। तिथियों के सामंजस्य के लिए ही 6 मास एवं अधिक मास का निर्धारण होता है। इस वर्ष सर्वाधिक कंफ्यूजन अमावस्या तिथि को लेकर है,इस प्रकार का विषय अब से 30 वर्ष पूर्व संवत 2051 में भी आया था। उस समय निराकरण इसीलिए हो गया था, क्योंकि अमावस्या देर रात तक चली थी। इस वर्ष अभी तक पंचांग कर्ताओं के सामने जैसी विसंगति उत्पन हुई,वैसी पहले कभी नहीं हुई। इस वर्ष कार्तिक अमावस्या तिथि 31 अक्टूबर,गुरुवार के दिन 3 बजकर 53 मिनट से प्रारंभ होकर अगले दिन 1 नवंबर,शुक्रवार को शाम 6 बज 17 मिनिट पर समाप्त होगी। जो सूर्यास्त के बाद 1 घंटा 44 मिनिट तक व्याप्त है। अर्थात 4 घड़ी या घटी से भी अधिक समय तक है। क्योंकि ज्योतिष काल गणना में एक घड़ी या एक घटी 24 मिनिट की होती है। अब धर्म शास्त्रों में निर्देश हैं कि यदि दो दिन प्रदोष व्यापनी अमावस्या हो तो दूसरे दिन ही मानना चाहिए। देश भर में पर्व,त्यौहार,तिथियों का निर्णय करने के लिए लगभग सर्वमान्य ग्रन्थ निर्णय सिंधु में पृष्ठ क्रमांक 26 पर निर्देश हैं कि ऐसी स्थिति में प्रतिपदा युक्त अमावस्या फलदायी होती है। इसी प्रकार एक अन्य सर्वमान्य ग्रंथ धर्म सिंधु में लेख है कि यदि सूर्योदय के बाद से लेकर सूर्यास्त के बाद एक घड़ी तक भी यदि अमावस्या हो तो संदेह नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार निर्णय सिंधु ग्रंथ के पृष्ठ क्रमांक 300 पर भी कहा गया है कि यदि दोनों दिन ही अमावस्या प्रदोष व्यापनी न हो तब भी दूसरे दिन ही मानना चाहिए। इसका तात्पर्य भी उपरोक्त अनुसार दूसरे दिन ही मानने का होगा। फिर या भी शास्त्रगत मान्यता है कि स्वाती नक्षत्र में ही दीपावली पूजन की श्रेष्ठता बताई गई है। अब इस मत से देखा जाए तो दीपावली 1 नवंबर शुक्रवार को ही उचित प्रतीत होती है। बस विवाद इसी कारण हो रहा है। अब अन्य मत एवं कर्म काण्ड की परंपरा से विचार किया जाए तो दुर्गा सप्तशति में तंत्रोक्त रात्रि सूक्त में एक श्लोक आता है,जिसका भावार्थ यह है कि इसमे चार रात्रियों का वर्णन है। जिसमें महारात्रि से तात्पर्य दीपावली की रात्रि माना गया है। अतः तिथि की विशेषता को देखते हुए निशीथ काल में यानि रात के 12 बजे अमावस्या होने पर ही कुबेर-लक्ष्मी की पूजन का विधान है, चूंकि इसमें देवी महालक्ष्मी त्रि देवियों में प्रधान है, इसीलिए इसमें देवी महालक्ष्मी दीपावली की पूजन में तंत्र मार्ग का पुट अधिक पाया जाता है। इसमें सभी लोग रात्रि में ही रजन प्रधानता से करते हैं। 31 अक्टूबर को सम्पूर्ण में ही अमावस्या रहेगी जिसमें कहा जात है कि लक्ष्मी जी विचरण करती हैं। इसीलिए लिए बंगाल क्षेत्र में दीपावली की रात में बंगाली समुदाय काली जी का पूजन करता है। इससे सिद्ध होता है कि इस जन में रात्रि की ही प्रधानता है और इसी कारण 90 फीसदी हिंदु समुदाय भी सूर्यास्त के बाद ही पूजन करता है।

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अब यदि दैवज्ञ काशीनाथ भट्टाचार्य के प्रसिद्ध ग्रन्थ शीघ्र बोध में तो दीपावली को लेकर बहुत ही कठोरता से साफ लिखा है कि :–

 

*दीपोत्सवस्य वेलायां प्रतिपद् दृश्यते यदि।*

*सा तिथिर्विबुधैस्त्याज्या यथा नारी रजस्वला॥*

अर्थात दीपोत्सव के समय यदि प्रतिपदा दिख जाए तो उस दूषित तिथि को रजस्वला की भाँति त्याग कर देना चाहिए।

 

*आषाढ़ी श्रावणी वैत्र फाल्गुनी दीपमालिका।*

*नन्दा विद्धा न कर्तव्या कृते धान्यक्षयो भवेत्॥*

 

अर्थात आषाढ़ी पूर्णिमा, रक्षाबंधन, होली और दीपावली को कभी भी नन्दा यानि प्रतिपदा से विद्ध नहीं करना चाहिए वरना धन धान्य का क्षय होता है। वहीं जयपुर के एक गाँव फागी से एक वृद्ध पण्डित जी श्री दयाशंकर शास्त्री जी का एक वाकया भी आजकल सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है जिसमें कहा गया है कि उन्होंने 100 साल पुरानी पुस्तक से निकालकर ये श्लोक भेजे और कहा, कि 31 अक्टूबर को दीपावली मनवाकर धर्मसभा ने करोड़ों लोगों को बचा लिया। क्योंकि 1 को प्रतिपदा विद्धा दूषित अमावस्या में दीपावली करना बिल्कुल भी ठीक नहीं है। 31 अक्टूबर को ही दीपावली मनाएं और अपने धर्म की रक्षा करें। इसके अतिरिक्त स्कंदपुराण के द्वितीय भाग वैष्णव खंड के कार्तिक महात्म्य के 10वें अध्याय “दीपावली कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा महात्म्य” नामक अध्याय के श्लोक क्रमांक 11 में भगवान श्री ब्रह्माजी ने स्पष्ट कह दिया…

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“माङ्गल्यंतद्दिनेचेत्स्याद्वित्तादितस्यनश्यति।

बलेश्चप्रतिपद्दर्शाद्यदिविद्धं भविष्यति॥”

अर्थात् –

अमावस्या विद्ध बलि प्रतिपदा तिथि में मोहवशात् माङ्गल्य कार्य हेतु अनुष्ठान करने से सारा धन नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार एक अन्य प्रख्यात ग्रंथ व्रतराज में तो यहाँ तक कहा गया है –

न कुर्वन्ति नरा इत्थं लक्ष्म्या ये सुखसुप्तिकाम् ।

धनचिन्ताविहीनास्ते कथं रात्रौ स्वपन्ति हि ॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन लक्ष्मीं सुस्वापयेन्नरः ।

दुःखदारिद्यानिर्मुक्तः स्वजातौ स्यात् प्रतिष्ठितः ।॥

ये वैष्णवावैष्णवा या बलिराज्योत्सवं नराः।

न कुर्वन्ति वृथा तेषां धर्माः स्युर्नात्र संशयः ॥

 

उस सुख सुप्तिका में जो लक्ष्मी के लिए कमलों की शय्या बनाकर पूजते नहीं, वे पुरुष कभी रात्रि में धन की चिन्ता के बिना नहीं सोते। इसलिए सब तरह से कोशिश कर लक्ष्मी को सुखशय्या पे पौढ़ावे, वह दुःख दारिद्य से छूटकर अपनी जाति में प्रतिष्ठित हो जाता है। जो वैष्णव या अवैष्णव बलिराज्य का उत्सव नहीं मनाते, उनके किए हुए सब धर्म व्यर्थ हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।

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स्पष्ट है कि प्रदोष व अर्ध रात्रि में अमावस्या होने से 31 अक्टूबर की रात्रि को ही सुख सुप्तिका और बलि राज्य का उत्सव यदि दीपावली को मानते है, तब 1 नवंबर की रात्रि में प्रतिपदा में यह सब शास्त्रोक्त कर्म करने का फल कैसे मिलेगा,इस सवाल का जवाब कोई नहीं दे पा रहा?

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अब इसमें हमेशा से होती हुई एक बात और है। धनतेरस, नरक-चौदस और दीपावली के एक के बाद एक दिन मानने की। यदि धनतेरस 29 को मानें और नरक चौदस 30 अक्टूबर को मनाई गई तब तो 31 अक्टूबर को दीपावली मानना ठीक है पर यदि धनतेरस 29 को मनाकर हम नरक चौदस 31 को मनाते हैं तो फिर तीनों तिथियों के मध्य में एक दिन खाली रहेगा, या रिक्त रहेगा तब पुनः भाई-दूज और अन्नकूट गोवर्धन पूजन को लेकर भी शंका खड़ी होगी। इस प्रकार एक तिथि की तो घट बढ़ होगी ही। इसीलिए दीपावली रात्रि प्रधान होने के कारण और वैसे ही सभी होली,आदि चार रात्रियों में भी रात्रि की ही प्रधानला को शास्त्र सम्मत माना गया है। इसीलिए भी गृहस्थों के लिए तो जो शास्त्रों की भाषा का भावार्थ ज्यादा नहीं जानते,श्रद्धा और भाव पूर्वक दीपावली 31 अक्टूबर को ही मनाना उचित लगता है।