इस उपलब्धि पर ‘चंद्रयान’ जितना ऊंचा सोचिए भी!

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इस उपलब्धि पर ‘चंद्रयान’ जितना ऊंचा सोचिए भी!

 

अनिल गुप्ता ‘तरावड़ी’ की त्वरित टिप्पणी 

 

मिशन चंद्रयान चंद्रमा की सतह पर पहुंचने के साथ ही दक्षिण अफ्रीका से प्रधानमंत्री इसरो के वैज्ञानिकों व देशवासियों से जुड़ गए। उनके संबोधन से हर व्यक्ति को संबल व उत्साह मिलता है। एक-एक शब्द ओज से भरा हुआ। जब वे ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन और ग्रीस का सर्वोच्च सम्मान पाकर लौटे तो सीधे इसरो गए। वैज्ञानिकों का हौसला बढ़ाया। ओज के शब्दों से उन्हें संबल दिया। साथ ही जिस स्थान पर चंद्रयान-3 उतरा उसका नाम शिव-शक्ति स्थल रखा। साथ ही कहा कि मैं चाहता था कि इस सफलता के सूत्रधार वैज्ञानिकों के बीच इस घोषणा को करूं। शिव जो विश्व कल्याण के प्रतीक है। शक्ति यानी नारी शक्ति की पर्याय देवी शक्ति। यानी विश्व कल्याण के साथ लैंगिक समानता का उद्घोष। लोग भूल जाते हैं कि आजाद भारत में भारतीय प्रतीकों व प्रतिमानों का परचम अब आकाश व चंद्रमा तक लहरा रहा है। आखिर इस दिन के लिये हमें सात दशक का इंतजार क्यों करना पड़ा? क्यों हम अपने आराध्य, आस्था के प्रतीकों को गरिमा व प्रतिष्ठा नहीं दिला पाये? धर्म व संस्कृति की स्थापना का यह स्वर्णिम काल है।

निस्संदेह, इसमें दो राय नहीं इसरो की स्थापना व शिक्षा तथा प्रबंधन के उच्च संस्थान खोलने में पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का बड़ा योगदान रहा। वे तब के टीम लीडर थे। लेकिन, जब वर्तमान टीम लीडर के नेतृत्व में कोई उपलब्धि हासिल होती है तो उसे सफलता का श्रेय देने में पक्षपात क्यों? चंद्रयान-3 को लेकर देश की सबसे बड़े विपक्षी दल का जो नजरिया अपनाया वह चिंतित करने वाला है। विडंबना है कि जब देश की आजादी के साढ़े सात दशक पूरे होने के बाद हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं हमारी विपक्षी राजनीतिक नेतृत्व इतना परिपक्व नहीं हो पाया है कि राष्ट्रीय उपलब्धि से जुड़े मुद्दे पर रचनात्मक प्रतिक्रिया दे सके। विडंबना देखिये कि किसी परिस्थितिवश हुई अप्रिय स्थिति-दुर्घटना को विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार का अपराध बताने से नहीं चूकते। के रूप में पेश करने का प्रयास कर दिया। क्या विपक्षी दलों को किसी राष्ट्रीय उपलब्धि पर गौरव की अनुभूति नहीं होती? विपक्ष का मतलब केवल 24 घंटे विरोध करना मात्र तो नहीं है।

विपक्ष का काम सिर्फ सरकार की नीति की आलोचना करना रह गया है। चाहे वह काम आमजन के हित में भी क्यों न हो। राजनीति भी एक पेशे की तरह है। डॉक्टर चिकित्सा का काम करता है, जिसके माध्यम से मरीज को स्वस्थ करने का काम करता है। अगर पेशेवर अपने पेशे के विरुद्ध गतिविधि करे तो समाज में प्रतिष्ठा की दृष्टि से नहीं देखा जाएगा। यही वजह है कि आज राजनेताओं को समाज में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। दरअसल, राजनीतिज्ञ एक कथित विचारधारा के साथ राजनीति में आता है कि वह अपने कार्यों के द्वारा समाज व राष्ट्र का हित करेगा। परंतु आज राजनीतिज्ञों के नकारात्मक कार्यों से उनकी साख को धक्का लगा है।

आज विपक्ष का काम केवल सत्ता दल का विरोध करना ही रह गया है चाहे देश एवं समाज का कितना भी नुकसान क्यों ना होता हो। सर्जिकल स्ट्राइक के ऊपर प्रश्नचिन्ह उठाना नकारात्मक राजनीति का एक ज्वलंत उदाहरण है। जबकि, स्वयं पाकिस्तान मानता रहा है कि सर्जिकल स्ट्राइक से उनकी सेनाओं का बहुत नुकसान हुआ है। भारतीय राजनीति पहले इतनी निचले स्तर की नहीं थी जितनी आज हो गई है। आज राजनीतिज्ञों का व्यवहार कुर्सी व वोट केंद्रित रह गया है। एक समय था जब सत्तारूढ़ व विपक्षी राजनेता एक मेज पर बैठकर राष्ट्र के मुद्दों की बात किया करते थे।

देश के राजनेताओं में सहिष्णुता होनी जरूरी है। सबको साथ लेकर चलने की जरूरत है। वर्ष 1948 में महात्मा गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने वाले जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के भारत-चीन युद्ध में आरएसएस द्वारा सैनिकों को राहत सामग्री, हथियार व अन्य सामान पहुंचाने को सराहा। इसके मद्देनजर 26 जनवरी 1963 की परेड में 3 हजार आरएसएस के स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल हुए। वर्ष 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इस सभा में आरएसएस को राष्ट्रीय संगठन मानते हुए इसके प्रमुख माधवराव सदाशिव गोलवलकर को हेलीकॉप्टर भेजकर आरएसएस मुख्यालय नागपुर से बुलाया गया। इससे यह साबित होता है कि तब राजनीति विचारों में मतभेद के बाद भी राष्ट्रहित को सर्वोपरि माना गया।

1971 की लड़ाई में जब बाकी राजनीतिक दल इंदिरा जी का विरोध कर रहे थे तो जनसंघ के नेता ने कहा था कि प्रत्येक भारतीय का दायित्व बनता है कि संकट की घड़ी में सभी मतभेद बुलाकर प्रधानमंत्री का साथ दें व जनसंघ ने कंधे से कंधा मिलाकर सरकार का साथ दिया था। वर्ष 1971 की लड़ाई जीतने के बाद लोकसभा में बोलते हुए वाजपेयी जी ने इंदिरा जी को दुर्गा कहा था। दिसम्बर 1995 में परमाणु विस्फोट की तैयारी कर ली गई थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अमेरिकी दबाव में पीछे हट गए थे। 16 मई 1996 को वाजपेयी ने जब शपथ ली थी तो पीवी नरसिम्हा राव, एपीजे अब्दुल कमाल एवं पी.चिदंबरम को लेकर वाजपेयी से मिले थे। पीवी नरसिम्हा राव ने कहा था कि सामग्री तैयार है आप आगे बढ़ सकते हैं। इन नेताओं के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था।

अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुमत की सरकार बनाने के बाद 11 मई 1998 को पोखरण में विस्फोट किया और भारत एक परमाणु शक्ति बन गया। वर्ष 1996 में जब पाकिस्तान ने यूएन में कश्मीर के मुद्दे को उठाया कि कश्मीर में मानव अधिकारों का हनन हो रहा है तो भारत का पक्ष रखने के लिए एक सशक्त नेता चाहिए था। तब नरसिम्हा राव ने अपनी पार्टी को दरकिनार कर राष्ट्रीय हित में फैसला लेते हुए वाजपेयी को भेजा। वाजपेयी जी ने यूएन में भारत को संकट की घड़ी से निकाला। पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व कर रही बेनजीर भुट्टो ने कहा था कि भारत का लोकतंत्र एक अनूठा लोकतंत्र है, जहां पर एक विपक्ष का नेता सभी मतभेदों को भुलाकर सरकार का पक्ष रखने के लिए दिल जान से खड़ा है। हमारे विपक्षी नेताओं में राष्ट्रीय हित इंच मात्र भी नहीं है व सरकार को नीचा दिखाने के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंच पर लगे रहते है। पहले किसी नेता के लिए राष्ट्र पहले होता था। लेकिन, आज पावर पहले हो गई है।