बदलता भारत-10: कांग्रेस का जहाज 2014 में न डूबता तो ताज्जुब होता !
मेरा ऐसा मानना है कि 2019 के आम चुनाव में केंद्र में एक बार फिर से भाजपा की सरकार बनने की वजह नरेंद्र मोदी थे, लेकिन 2014 में भाजपा की सरकार बनने की एकमात्र वजह कांग्रेस थी। कांग्रेस की वो अनगिनत ऐतिहासिक गलत नीतियां थीं,जिनकी वजह से कालातंर में देश लगातार पिछड़ता रहा,भुगतता रहा,विकास की राह में फिसड्डी बना रहा,अपने अस्तित्व के लिये छटपटाता रहा,अपनी सनातन संस्कृति और पहचान के लिये तरसता रहा। परिणाम स्वरूप एक राष्ट्र के तौर पर वह कुंठित,अविकसित,अवलंबित और अपमानित होता रहा। अंतत: देशवासियों का धैर्य जवाब दे गया और जैसे ही उसे उचित,परिपक्व विकल्प मिला,उन्होंने एक झटके में कांग्रेस से अपना हाथ छुड़ा लिया। वह हाथ जो देश की पीठ थपथपाने में लगना था, जब वह लोगों के गाल और लोकतंत्र का बैंड बजाने लगा तो उन्हीं लोगों ने वह हाथ मरोड़ दिया। कांग्रेस की ये गलतियां आजादी के आंदोलन के समय से जो प्रारंभ हुई तो स्वतंत्र भारत में भी जारी रही और बढ़ती रही। उसे लगता रहा कि कांग्रेस तो इस देश की पहचान है और अपरिहार्यता भी। शायद मजबूरी भी। अभी-भी लगता है कांग्रेस की मदहोशी पूरी तरह से दूर नहीं हुई है। इसीलिये 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार आई और मुगालते पाले रखने के कारण ही 2019 में भी उसकी दुर्गत हुई।
जब भी इस देश में भारतीय जनता पार्टी की सफलता की कहानी कही जायेगी, जब भी आजादी के आंदोलन को याद किया जायेगा, जब भी केवल गांधी-नेहरू को इस देश का भाग्य विधाता मानने का विचार थोपा जायेगा, तब-तब उन जख्मों से पट्टी निकालकर बताना पड़ेगा, जो नासूर बनकर विकराल आकार ले चुके थे। उन नासूरों के समुचित उपचार में ही मौजूदा सरकार की ऊर्जा खत्म हो जाती यदि उसका नेतृत्व नरेंद्र मोदी जैसा दृढ़ निश्चयी,कर्मठ और दुस्साहसी व्यक्ति नहीं कर रहा होता।
भला हो संचार क्रांति का और इस देश में मौजूद सही मायनों में राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक सरकार का,जिसके कार्यकाल में अतीत के काले अध्याय की लंबी श्रृंखला सामने आती जा रही है। अतीत के उन कालिमा भरे दौर ने देश को इतना पीछे धकेल दिया कि उसे अपने वास्तविक स्वरूप में आने में तो न्यूनतम 10 वर्ष और लगेंगे। इतिहास की वे घटनायें, जो अब सामने आ रही हैं, यदि वे न घटती और देश की बागडोर तब के वास्तविक उत्तराधिकारियों के हाथ में चली जाती तो न बोस की रहस्यमय मौत होती, न लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद में जान से हाथ धोना पड़ता,न आरक्षण का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला जारी रहता, न चीन की 1962 में हिम्मत पड़ती हम पर हमला करने की, न चीन को हमें हजारों एकड़ जमीन देने को विवश होना पड़ता, न पाकिस्तान को आत्म समर्पित 90 हजार सैनिक लौटाने पड़ते, न कश्मीर में धारा 370 का प्रावधान करना पड़ता, न राम मंदिर के लिये आजादी के बाद भी 70 साल तक पुनर्निर्माण की राह देखना पड़ती, न धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा हो जाने के बाद पाकिस्तान में हिंदू और भारत में मुस्लिमों को रुकना पड़ता। ये वे भूले थीं,जिन पर से जैसे-जैसे धूल साफ होती जा रही है , देश की समस्याओं की जड़ें साफ नजर आने लगीं हैं।
जैसा कि मैंने कहा कि जब भी कांग्रेस के पराभव का जिक्र होगा, तब स्वतंत्रता आंदोलन के समय से इरादतन की जा रही गफलतों का कच्चा चिट्ठा् भी खोला जायेगा। मुगलों और अंग्रेजों ने भारत और भारतीयों के साथ जो भी किया, वो तो समझ में आता है, क्योंकि वे आक्रमणकारी थे,लुटेरे थे, हमें बरबाद करने ही आये थे, हमारे दुश्मन जो थे। लेकिन, आजाद भारत के हुक्मरानों ने 2014 तक जो किया,उसे क्या नाम दिया जाये? वे तो हमारे अपने थे, फिर भी वे दुश्मनों से गये-गुजरे निकले। ऐतिहासिक घटनायें बताती हैं कि जब देश को आजादी मिलने की संभावनायें प्रबल होने लगी,तभी से षड्यंत्रपूर्वक व्यूह रचना की गई। सुभाष चंद्र बोस को ही लें। वे बाकायदा कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए, लेकिन मोहनदास करमचंद गांधी को ये नागवार गुजरा, जिसका नतीजा यह हुआ कि बोस ने इस्तीफा दे दिया और अपनी राह चल दिये। काग्रेस,गांधी और नेहरू से बोस के मतभेद का मूल कारण यह था कि बोस किसी धरने-प्रदर्शन या भीख में आजादी नहीं चाहते थे। उनका मानना था कि यह हमारा अधिकार है, जिसे लड़कर लेना चाहिये। इसीलिये 1938 और 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित होने के बावजूद गांधी-नहरू से अनबन के चलते इस्तीफा देकर अपनी अलग राह चुन ली। यह कांग्रेस की बड़ी भयंकर भूल थी। जिसे तत्कालीन कांग्रेस नेता और जनता ने भी पसंद नहीं किया था।
ऐसा ही सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ हुआ। जब अंग्रेजो की और से संकेत मिल गया कि कभी-भी आजादी दी जा सकती है तो उनमें एक तरह से परस्पर सहमति यह बनी कि उस वक्त जो कांग्रेस अध्यक्ष रहेगा,उसे प्रधानमंत्री बनाया जायेगा। 29 अप्रैल 1946 को अध्यक्ष का चुनाव होना था। इससे पहले 20 अप्रैल को गांधीजी ने कांग्रेस नेताओं से कहा कि वे चाहते हैं कि नेहरू को निर्विरोध अध्यक्ष चुन लिया जाये, लेकिन तमाम नेता सहमत नहीं हुए। अंतत: 29 अप्रैल को चुनाव हुए, जिसमें देश के 14 प्रदेश अध्यक्षों को मतदान करना था। इसमे से दो अनुपस्थित रहे। शेष सभी 12 ने सरदार पटेल के पक्ष में मतदान किया। संदेश साफ था कि नेहरू को एक भी कांग्रेस नेता पसंद नहीं करता था। तब फिर एक बार गांधीजी ने अपनी निजी पसंद को थोपने का दबाव बनाया। उन्होंने मंच पर पटेल के पास एक कागज पर लिखकर भेजा कि उनकी इच्छा है कि नेहरू को अध्यक्ष बनाया जाये। पटेल ने इस कागज को एक और खिसका दिया, जिसका साफ मतलब था कि पटेल राजी नहीं हैं। गांधीजी फिर भी नहीं माने और उन्होंने फिर से उसी आशय की चिट्ठी लिखकर पटेल के पास भिजवाई। पटेल इससे बुरी तरह आहत हुए, लेकिन गांधी की जिद को वे जानते थे और वह समय अंग्रेजों को कोई गलत संदेश देने का नहीं था। लिहाजा,पटेल उठकर चले गये और नेहरू की ताजपोशी कर दी गई।
इसके बाद की दास्तान कांग्रेस के लोकतंत्र विरोधी फैसलों,नेहरू की मनमर्जी,अंग्रेजों के एजेंडे के जारी रहने,अंग्रेजपरस्ती और स्वार्थ,लालच,पक्षपात,भ्रष्टाचार,भाई-भतीजावाद के कभी न खत्म होने वाले सिलसिले की है। नेहरू ही थे,जिन्होंने माउंटबेटन को आजाद भारत का गवर्नर स्वीकार किया, जबकि पाकिस्तान ने खुद्दारी दिखाते हुए दो टूक इनकार कर दिया था। कश्मीर मुद्दे से निपट न पाने का कंलक भी देश अभी तक झेल रहा है। वे नेहरू ही थे, जिन्होंने पाक अधिकृत कश्मीर तक पहुंच जाने के बावजूद सेना को वापस बुला कर युद्ध विराम कर दिया। उन्होंने ही पटेल के गृह मंत्री रहते हुए भी उन्हें कश्मीर मसले से दूर रखकर खुद के पास कश्मीर मसले को रखा।
उन्होंने ही शेख अब्दुल्ला को जेल से निका्लकर उन्हें जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री बना दिया। वे नेहरू ही थे, जो चीन को हजारों एकड़ भूमि दे देने के बाद उसे बंजर जमीन बताकर पल्ला झाड़ते रहे। उस वक्त हमारी वायु सेना चीन से कहीं बेहतर थी, फिर भी वायु सेना प्रमुख के प्रस्ताव के बावजूद उसे युद्ध में भाग लेने की अनुमति नही दी और करारी हार झेलनी पड़ी। नेहरू ने ही पता नहीं किस गणित के तहत संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता का प्रस्ताव ठुकरा दिया। वे ही कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले गये और इसमें तीसरे पक्ष को घुसने का रास्ता खोला।
वह कांग्रेस ही थी, जिसने सुभाष चंद्र बोस को पहले अध्यक्ष पद, फिर देश छोड़ने पर मजबूर किया । पराकाष्ठा तो यह थी कि जब उनकी कथित मौत हवाई दुर्घटना में हुई तो उसकी जांच तक नहीं करवाई और दशकों तक इस प्रकरण से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक नही की गईं। इसी तरह से लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में संदिग्ध मौत की भी जांच जरूरी नही समझी गई। जिस कांग्रेस को देश की आजादी का इकलौता वारिस बता कर देश को आज तक भरमाया जाता है,उसी पार्टी को 1969 में श्रीमती इंदिरा गांघी ने तोड़ कर इंदिरा कांग्रेस के नाम से दूसरी पार्टी बना ली, फिर भी खुद को असली कहते रहते हैं। उन्हीं इंदिरा गांधी ने जहां पाकिस्तान से बांग्ला देश को अलग करने का प्रराक्रम किया, उसे आत्म समर्पण कर चुके 90 हजार पाकिस्तानी सैनकों को शिमला समझऔते में बिना किसी शर्त के छोड़ कर भयंकर भूल की। उन पाकिस्तानी सैनिकों को भारतीय जेलों में सड़ाकर मरने के लिये छोड़ देते तो पाकिस्तान कभी हमारे सरबजीत,कुलभूषण जाधव को, किसी जासूस मोहनलाल भास्कर को नारकीय यातनायें देने की गुस्ताखी नहीं करता। साथ ही 90 हजार सैनिक पाक सेना में नहीं रहते।
उसी कांग्रेस ने इंदारा गांधी की मौत पर एक पायलट राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाकर वंशवाद को बढ़ावा दिया । उसी कांग्रेस के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण में उन्हें तला्क देने वाले पति को गुजारा भत्ता देने वाला कानून ही रद्द कर लाखों मुस्लिम महिलाओं के जीवन को नारकीय बने रहने दिया। वे ही थे, जिन्होंने शांति दूत बनने के चक्कर में श्रीलंका में भारतीय मूल के तमिल विद्रोहियों से निपटने के लिये अपनी सेना भेज दी, जिसकी खुन्नस में उनकी हत्या कर दी गई। उसी कांग्रेस में वंशवाद को जारी रखते हुए कभी सोनिया गांधी तो कभी राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाया जाता रहा और रही-सही कसर प्रियंका गांधी को भी महामंत्री बनाकर कर दिया गया।
ये सारे घटनाक्र्म कांग्रेस से इस देश के, यहां की जनता के, मतदाता के तौबा कर लेने के पर्याप्त कारण माने जा सकते हैं। एक समय था, जब प्रचार के साधन इतने अधिक नहीं थे,इतनी तादाद में नहीं थे। अखबार,रेडियो,टेलीविजन की भी अपनी मर्यादा और पहुंच थी तो लोगों को बहलाया,बरगलाया जा सकता था। वे यह भूल जाते हैं कि संचार क्रांति के इस दौर में अंतरिक्ष में हो रही हलचल भी अगले ही पल पूरी दुनिया की मुट्ठी में संचरित हो जाती है। सोशल मीडिया के दौर में ताजातरीन सूचनायें तो प्रवाहित होती ही रहती हैं, साथ ही अतीत में गहरे गाड़ कर रख दी गई, सूचनायें भी तूफानी वेग से सामने आ जाती हैं। इन सारे कारणों से 2014 में कांग्रेस का भट्टा बैठ गया। 2019 के चुनाव ने तो जैसे कांग्रेस को सात तालों में बंद कर दिया। पता नहीं, अब भी कांग्रेस नेतृत्व याने गांधी परिवार को कोई सही जानकारी उनके कथित सलाहकार,हमदर्द,वरिष्ठ नेता,पारिवारक मित्र,शुभचिंतक देते हैं या नहीं ?
(क्रमश:)