

बागवानी रथ की सारथी- गुरुग्राम की श्रीमती इला शर्मा
इंदौर से महेश बंसल की खास रिपोर्ट
जिस घर में साबुत धनिया, मेथी, सौंफ, राई इत्यादि साफ करने के बाद छानन को आंगन की मिट्टी में उगने हेतु डाल दिया जाता था .. उस घर से अच्छी बागवानी की पाठशाला क्या हो सकती है । जिसकी माँ गर्ल्स पॉलिटेक्निक की संस्थापक प्राचार्या रहने के बावजूद गृहस्थी के मोर्चे पर छानन से बागवानी की सीख देती हो.. उससे बड़ा गुरू कौन हो सकता है। असंख्य विधा में पारंगत रहने के बावजूद बागवानी की विधा में एक शख्सियत के रूप में पहचान बनाने वाली सत्तर वर्षीय युवा जोश से लबरेज गुरुग्राम निवासी श्रीमती इला शर्मा की बागवानी के प्रति ज्ञान, समर्पण व मार्गदर्शन की गतिविधियां अचम्भित करती है। इनके बगीचे पर प्रकाशित आलेख की कॉफी टेबल बुक राष्ट्रपति भवन, प्रधान मंत्री कार्यालय, न्यायपालिका के सम्मानित सदस्यों, इंडिया हैबिटेट सेंटर और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर तक पहुँची है। बागवानी से संबंधित अनेक संस्थाओं में उच्च पद पर, इवेंट में जज की भूमिका में, दूरदर्शन सहित सभी प्रकृति प्रेमियों के लिए सुलभ मार्गदर्शक एवं मानसरोवर व श्रीखंड महादेव की यात्रा शिवभक्त के रूप में करने वाली इला जी आर्किटेक्चर में डिप्लोमा की अकादमिक टॉपर रही है।
इला जी कहती है – “बागवानी के प्रति मेरा प्यार जीवन में बहुत पहले ही शुरू हो गया था। इसका श्रेय उन पुराने दिनों को जाता है जब घर बड़े होते थे और उनमें उतने ही बड़े बगीचे और विस्तार होते थे, आज के शहरी जीवन से अलग। प्रकृति के साथ इस जुड़ाव को अकादमिक रूप से तब मजबूती मिली जब मैंने आर्किटेक्ट के रूप में स्नातक किया।
सन् 1994 में ऑल इंडिया किचन गार्डन एसोसिएशन (AIKGA) में शामिल हुईं । मुझे गुड़गांव इकाई का संयोजक चुना गया। इस पद पर रहते हुए मैंने कई गार्डन शो और उद्यान मेला आयोजित किए। इस पद पर रहते हुए मुझे कई स्तरों पर योजना बनाना, लेआउट डिजाइन करना, लैंडस्केपिंग करना, आयोजन करना, क्रियान्वयन करना और समन्वय करना था, ताकि उन्हें सफल आयोजन बनाया जा सके।
मुझे दिल्ली-एनसीआर में होने वाले फ्लावर शो में जज के तौर पर आमंत्रित किया जाता है, जिसमें वाईडब्ल्यूसीए नई दिल्ली का बहुचर्चित क्रिसेंथेमम शो, एआईकेजीए गार्डन जजिंग और उत्तरी भारत के सबसे बड़े शो में से एक फ्लोरीकल्चर सोसाइटी ऑफ नोएडा शामिल हैं। कोविड के समय और अब भी, मैंने बगीचों और बालकनियों की ऑनलाइन जजिंग की है। इनके अलावा, कुमार मंगलम, कपूर लैंप्स, डॉ. धारीवाल जैसे कई मशहूर निजी उद्यानों का भी जजमेंट किया है। मेरे टेरेस गार्डन ने कई पुरस्कार जीते हैं। डीडी के प्रतिष्ठित कार्यक्रम ‘छत पर बागवानी’ में कई बार शामिल हुई हूं।
बागवानी के अलावा अपने स्कूल के दिनों में अंतर-विद्यालय और कॉलेज वाद-विवाद और भाषणों में गहरी रुचि रखती थी और हमेशा पुरस्कृत होती थी। भातखण्डे विश्वविद्यालय से विशारद और प्रयाग संगीत समिति से प्रभाकर की डिग्री है। कथक की बारीकियाँ कथक के महान और प्रतिपादक श्री बिरजू महाराज से सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दो बार नई दिल्ली में NCC कैडेट के रूप में बहुत प्रतिष्ठित गणतंत्र दिवस परेड समारोह में भाग लिया। उत्तरकाशी के प्रसिद्ध नेहरू पर्वतारोहण संस्थान से अपना पर्वतारोहण पाठ्यक्रम किया, जहाँ हमने गौमुख और उससे आगे तपोवन की यात्रा की। ऑल इंडिया रेडियो में उद्घोषक के रूप में काम किया है, जहाँ मैंने ग्रामीण भारत के लिए कार्यक्रम, बच्चों के कार्यक्रम और नाटक जैसे विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन और उनमें भाग लिया है।
मेरे जीवन के अंतिम समय में भगवान शिव मुझ पर दयालु थे और उन्होंने मुझे अपने पवित्र निवास कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील पर बुलाकर अपना आशीर्वाद दिया। पवित्र कैलाश की परिक्रमा पैदल की। पूरी यात्रा एक महीने में पूरी हुई। श्रीखंड कैलाश की सबसे कठिन यात्रा भी पूरी की।”
अपनी बागवानी यात्रा के संदर्भ में बताते हुए इला जी कहती है – “बागवानी का शौक बचपन से ही हो गया था। बड़े घर होते थे जहां आलू से लेकर अनाज तक तैयार किया जाता था। वैसे में हमारी माँ ने , जो गर्ल्स पॉलिटेक्निक की संस्थापक प्राचार्या रहते हुए भी घर पर पूरा मोर्चा संभाला हुआ था। वह साबुत धनिया, मेथी, सौंफ, राय वगैहरा साफ करती थी तो छानन को जमीन में ही उगने हेतु डाल देती थी, बस यहीं से हमारी बाग बानी की शिक्षा शुरू हुई।
अब यहां गुड़गाँव में तीस साल हो गए हैं बागवानी करते हुए । बड़े शहरों में जगह की तंगी हमेशा रहती है। शिव कृपा से स्वयं का मकान होने के कारण बागवानी के लिए जगह उपलब्ध थी । घर के सामने का हिस्सा, पीछे का हिस्सा और छोटी बड़ी मिला कर 4 छतें है। दिशा को देखते हुए पौधों का चयन किया गया । घर के सामने का हिस्सा पूर्व में था, इसलिए यहां सभी प्रकार के पत्ते वाले पौधे और वार्षिक पौधे लगाए हैं । घर का पिछला भाग उत्तर पश्चिम के कारण वहां पर घूप कम आती है, इसलिए वहां फर्न, पान और कई प्रकार के पत्ते वाले पौधे शामिल किए हैं जिनको छांह दार जगह की आवश्यकता होती है। कुछ भाग में धूप भी आती है तो वहाँ नींबू के दो पेड़ व केले के पेड़ हैं। नींबू बारह मासी है और लगभग तीस वर्ष पुराना है। केला भी तीस साल पुराना है। इसके अतिरिक्त ब्लूब्रिया, पीपल, फाइकस, पिलखन आदि के बोनसाई भी हैं चार छतों की बात करें तो एक पर केवल कैक्टस और सक्यूलेंट हैं। दूसरी पर एडेनियम, हिबिस्कस, बोगेनविलिया पेसिफ्लोरा, कचनार, ड्रैगन फ्रूट, चंपा, सावनी, कनेर, नाग-चंपा, हैमेलिया, ब्लू लिप्स, स्टार फ्लावर, कैना लिली, रसेलिया आदि के गमले हैं ,फाइकस की टोपियरी 24″ के गमले में हैं। क्रीपर्स की बात करें तो – विस्टेरिया, अल्मांडा, जैक्वामोंटिया, अपराजिरा, मॉर्निंग ग्लोरी, पेरेट बीक , क्लेमाटिस, साइप्रस वाइन आदि। यह तो हुआ पेरिनियल्स ……. वार्षिक जब सीज़न आता है तब उनकी बारी आती है। तीसरी और चौथी छत की बात करें तो उस पर सब्ज़ी के अतिरिक्त मेडीसन एवं फ्रूट के पौधे है। 24” गमले में सहजन लगा है, नींबू और अनार के भी पेड़ हैं। इसके अतिरिक्त शमी, बेल, सीक्वल पत्ता, लेमन ग्रास, सदाबहार, जेड, रजनीगंधा, रेन लिली और गुलदाउदी आदि भी लगी हैं।
पौधों में पानी देने और उनकी देख भाल व रखरखाव का काम हम ही करते हैं। माली हफ़्ते मे तीन दिन एक घंटे काम करने के लिये ही आता है, सो वो अधिकतर हेल्पर का ही काम करता है जैसे कि मिट्टी बनाना (हमारी देख रेख में), गमले भरना व इधर उधर रखना व बागवानी सम्बंधित सामग्री लाना। कहने का तात्पर्य – वह सभी काम जो हम अब 70 वर्ष की उम्र में नही करना चाहते।
घर में सभी को बगीचे में आनंद आता है। पति, बेटा -बहू और हम सबका लाडला……हमारा २ वर्ष का पोता, सभी अपना योगदान किसी न किसी रूप मे देने के लिये उत्सुक रहते हैं। अपने कार्य के कारण उनके पास समय का अभाव रहता है लेकिन फिर भी अगर हमें सामान वगैहरा लेने जाना है तो वह सदैव तैयार रहते हैं बाज़ार ले जाने के लिये।
मेरे पति बगीचे को सजाने के लिए नई-नई और आकर्षक चीजें, कलाकृतियां आदि मंगवाते रहते हैं। उन्होंने पीछे के हिस्से में एक बहुत ही सुंदर संगमरमर का फव्वारा भी बनवाया है जो हमारे बगीचे की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। हमें खुशी है कि हमारा शौक यहां के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना और उन्होंने इससे प्रेरित होकर अपने घरों में भी सुंदर बगीचे बनाए हैं।
अपने रसोई के कचरे से खुद ही खाद बनाते हैं जो तीन महीने में बहुत अच्छी बनकर तैयार हो जाती है। हम इससे निकलने वाले पानी का भी इस्तेमाल करते हैं जिसे लीचेट कहते हैं। नींबू, अनार, आम आदि फलों, और गुलाब, गेंदा, गुलदाउदी आदि फूलों के छिलकों से बायो एंजाइम भी बनाते हैं। अपनी पत्तियों की खाद भी खुद बनाते हैं। जब पतझड़ में पत्तियां गिरती हैं तो हम उन्हें 50 किलो के बैग में इकट्ठा करते हैं। यह खाद भी 6 महीने में बहुत अच्छी हो जाती है। इसके अलावा हम नियमित रूप से प्याज और केले के छिलके की चाय का भी सेवन पौधों को कराते हैं। इसमें पर्याप्त मात्रा में पोटाश और फास्फोरस होता है जो पौधों के लिए बहुत फायदेमंद होता है।
हमारे बगीचे को देखने के लिए कई समूह भी आते हैं। जब उन्हें हमारे पौधे पसंद आते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। उनकी तारीफ हमें और बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है।
अंत में यही कहना चाहती हूं कि बागवानी हमारे लिए ध्यान है, जब हम अपने पौधों के साथ होते हैं, हमें अपने आस-पास की किसी भी चीज़ का अहसास नहीं होता, सिर्फ़ हम और हमारे पौधे।
दोस्तों, बगीचा एक दिन में तैयार नहीं होता, इसके लिए सालों की मेहनत लगती है, धैर्य की ज़रूरत होती है, बच्चों की तरह उनकी देखभाल करनी होती है – इसलिए धैर्य रखें और मेहनत करते रहें, कुछ ही दिनों में फल आने लगेंगे। अपने बगीचे की देखभाल करें और खरपतवारों को दूर रखें।
इसे धूप, दयालु शब्दों और दयालु कर्मों से भरें।”
इला जी की बागवानी यात्रा सभी बागवानों के लिए प्रेरणास्रोत है। बागवानी में जो रम गया, वह मन, वचन व कर्म से ध्यान रथ पर आरूढ़ हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह रथ का सारथी बन हरियाली को फ़ैलाने में अपना अमूल्य योगदान देने लगता है। ऐसा ही योगदान इला जी भी बागवानी की सारथी बन कर रही है।