क्रिसमस विशेष: सिनेमा को इसाई किरदारों से इतना परहेज क्यों!

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क्रिसमस विशेष: सिनेमा को इसाई किरदारों से इतना परहेज क्यों!

हिंदी सिनेमा के परदे पर जो किरदार दिखाई जाते हैं, वे पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसमें इसाई किरदार भी शामिल हैं, जिन्हें कुछ दशक पहले तक स्टीरियो टाइप दिखाया जाता था। यदि वह पुरूष है और पादरी होगा या दारू का अड्डा चलाने वाला या कोई शराबी किरदार होगा। महिला किरदार है, तो टाइपिस्ट, नर्स, मैट्रॉन या बॉस की सहायिका होगी या किसी फिल्म में कैबरे करते दिखाई देगी। उनके हिस्से में जो संवाद आते थे, वे भी खास किस्म के खास बोलियों से चुपड़े होते थे। फिर भी हिंदी फिल्मों के इसाई किरदारों को दमदार चरित्र कम ही मिले।

भारत के ईसाई निश्चित रूप से अखंड नहीं हैं। सभी मुंबईया उच्चारण के साथ हिंदी नहीं बोलते! ‘खुदा का घर’ ही एकमात्र ऐसी जगह नहीं है जहां आप उन्हें पा सकते हैं। आप उन्हें नर्सिंग और सचिवों की तुलना में कहीं अधिक व्यवसायों में देखेंगे। वर्षों से लोकप्रिय सिनेमा ने उन्हें टाइप-कास्ट किया है। लेकिन, परिवर्तन की लहर ने इन किरदारों को भी प्रभावित किया और धीरे-धीरे ही सही इन पात्रों में बदलाव आने लगा, जो परदे पर बकायदा दिखाई देने लगे हैं।

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जब कभी फिल्मों मे इसाई किरदारों की बात आती है तो ‘अनाड़ी’ फिल्म की मिसेज डीसा यानी ललिता पंवार की याद बरबस आ ही जाती है। हृषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म में न केवल इसाई पात्र की स्टीरियोटाइप छवि को खंडित किया, बल्कि ललिता पंवार पर लगा क्रूर सास का कलंक भी धोया। यही कारण है कि ललिता पंवार ने इस फिल्म के लिए सहायक नायिका का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता, जो एक असंभव कहानी है। ‘अनाड़ी’ में इसाई पात्रों का जो स्वरूप बदला, वह ज्यादा देर नहीं चला। उसके बाद वाली फिल्मों में वही स्टीरियोटाइप पात्र और चरित्र तब तक दिखाई देते रहे, जब तक सुपर हिट फिल्म ‘जूली’ का प्रदर्शन नहीं हुआ। फिल्म ‘जूली’ सुपरहिट तो थी, लेकिन इसमें हर संभव स्टीरियो टाइप था, जिसकी कोई कल्पना भी कर सकता है। एक एंग्लो इंडियन इसाई लड़की एक हिंदू लड़के के प्यार में पड़ जाती है और भावुक मुठभेड़ के क्षण में गर्भवती हो जाती है। इस फिल्म में नादिरा का पात्र सबसे ज्यादा दमदार था, जिसने दर्शकों से लेकर समीक्षकों का खूब प्यार बटोरा।

उसके बाद बासु चटर्जी ने इसाई किरदारों को लेकर हल्की-फुलकी फिल्म ‘बातों बातों में’ का निर्माण किया। प्यार, रिश्तों, पारिवारिक मूल्यों और पीढ़ी के अंतर के बारे में एक पारिवारिक नाटक है। यह आसानी से हिंदी सिनेमा के रत्नों में से एक है। नैन्सी (टीना मुनीम) और टोनी (अमोल पालेकर) की दोस्ती जल्द ही प्यार में बदल जाती है। हालांकि, टोनी के पास प्रतिबद्धता के मुद्दे हैं, जबकि नैन्सी अभी खराब रिश्ते से बाहर आई है। अपनी मुसीबतों को और बढ़ाने के लिए, दोनों की मां परेशान करती हैं। नैन्सी की मां एक अच्छा दामाद चाहती है, जबकि टोनी की मां अपने बेटे को लेकर पजेसिव है। बासु चटर्जी निर्देशित यह फिल्म मुंबई के ईसाइयों पर एक प्रामाणिक कदम था और मध्यवर्ग की कहानी कहती थी। लेकिन, यह फिल्म ने दर्शकों का मनोरंजन करने तक ही सीमित रही।

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इसाई पात्रों के सबसे लोकप्रिय पात्र को मसाला फिल्मों के लिए चर्चित मनमोहन देसाई ने परदे पर ‘अमर अकबर एंथोनी’ में अमिताभ बच्चन को एंथोनी गोंसाल्विस के रूप में उतारा। मनमोहन देसाई ने लम्बा समय में मुंबई की चॉल में रहते थे और एंथोनी गोंसाल्विस का चरित्र स्पष्ट रूप से एक वास्तविक जीवन के व्यक्ति पर आधारित है, जिसे वह एक बार जानते थे। लेकिन, यह अमिताभ बच्चन ही थे जिन्होंने इस चरित्र को अपने पूरे दिल और आत्मा से अपनाया और हिंदी सिनेमा का सबसे पसंदीदा ईसाई किरदार दिया। मुम्बइया हिंदी इतनी अच्छी कभी नहीं सुनाई दी। ईस्टर पार्टी भी कभी भी इतनी आनंदमयी नहीं थी।

वैसे तो शोमैन राजकपूर ने भी इसाई किरदार पर हाथ आजमाए। उनकी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में सिम्मी गरेवाल और मनोज कुमार के जो इसाई पात्र हैं, वे कुछ अलग हटकर हैं। फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में सिमी ग्रेवाल द्वारा निभाई भूमिका मिस मैरी नाम की एक पात्र थी। वह ऋषि कपूर के लिए एक समझदार शिक्षक की भूमिका निभाती हैं, जो उनकी सुंदरता पर फिदा है। एक युवा और नाजुक सुंदरता के रूप में, मिस मैरी मिशनरी संचालित स्कूल में एक ईसाई शिक्षक की एक आदर्श छवि बनाती है। उनके होने वाले पति के रूप में मनोज कुमार ने दार्शनिक भाव बरकरार रखा था।

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इसके बाद राजकपूर की अगली ही फिल्म ‘बॉबी’ में राजकपूर ने धमाके के साथ इसाई पात्र ब्रिगांजा उनकी मां और पोती बॉबी को परदे पर उतारा। लेकिन, यहां वह इसाई पात्र के चरित्र चित्रण के साथ मसाला डालकर उसे फिल्मी बनाकर ही रह गए। ‘बॉबी’ के गेटअप में उन्होंने डिम्पल को छोटे कपडे और बिकनी पहनाकर इसाई पात्रों की चिरपरिचित छबि को बदलने की कोशिश नहीं की। ‘बॉबी’ एक ईसाई मछुआरे की बेटी और एक अमीर आदमी के जवान बेटे के बीच की प्रेम कहानी थी। कुछ लोग कह सकते हैं, लेकिन ईमानदार तरीके से यह मुंबई क्षेत्र के खुश-भाग्यशाली मछुआरों के स्वाभिमान को चित्रित करता है। इसमें मिस्टर ब्रिगांजा के पात्र में प्रेमनाथ ने प्राण जरूर फूंक दिए थे।

‘बॉबी’ के बाद जब डिम्पल को रमेश सिप्पी ने दूसरी पारी में पेश किया, तो उन्हें उनका इसाई रूप ही याद रहा। ‘सागर’ की मारिया से उन्होंने ऊपरी वस्त्र तक उतरवाने में गुरेज नहीं किय। फिर भी गोवा में सेट की गई एक और कहानी ‘सागर’ फिर से डिंपल, ऋषि कपूर और कमल हासन के बीच एक प्रेम त्रिकोण थी। इसमें डिंपल और कमल ने ईसाई किरदार निभाए थे। बहुत शराब पीने, मस्ती करने और नाचने के अलावा फिल्म ने कम से कम आत्मा में गोवा की रंगीन संस्कृति को उदात्त रूप से परदे पर पेश किया।

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इसाई किरदार को इमानदार कोशिश हुई फिल्म ‘कभी हां कभी ना’ में। यह एक रोमांटिक कामेडी फिल्म थी, जिसका नायक हमेशा हारता ही रहता है। गोवा में सेट फिल्म ईसाई और हिंदू दोनों, गोवा के परिवारों का बॉलीवुड संस्करण देती है आशा और प्रेम की एक प्यारी कहानी बनकर समाप्त होती है। यदि इसाई पात्र के किसी सशक्त चरित्र की बात की जाए तो ’36 चौरंगी लेन’ में जेनिफर केंडल द्वारा निभाया गय वायलेट स्टोनहैम का पात्र बरबस याद आ जाता है। यह इस विषय पर बनी सबसे अच्छी फिल्मों में से एक अपर्णा सेन की इस फिल्म में जेनिफर केंडल कपूर ने कोलकाता में एक उम्रदराज एंग्लो इंडियन शिक्षिका की भूमिका निभाई थी। इसे एक पसंदीदा छात्र और उसके प्रेमी द्वारा धोखा दिया जाता है। अंग्रेजों के जाने के बाद एंग्लो इंडियन्स के पतन की इस तरह की सम्मोहक कहानी शायद ही कभी पेश हुई हो।

इसाई पात्रों पर आधारित फिल्मों की बात की जाए तो संजय भंसाली की फिल्मों का जिक्र जरुरी हो जाता है। उनकी फिल्म ‘ब्लैक’ की नायिका मिशेल मैकनैली एक बहरी और अंधी लड़की है, जिसे अपने अधूरे अस्तित्व से जूझना पड़ता है। लेकिन, अपने सख्त और अक्षम्य शिक्षक द्वारा एक आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर महिला में बदल जाती है, जो अपने अपंग अल्जाइमर रोग के कारण गुमनामी में डूब जाती है। बाद के सालों में ‘ब्लैक’ का क्रूक्स बनाता है। मिरेकल वर्कर पर आधारित और हेलेन केलर के जीवन से प्रेरित कहानी शिमला में चार लोगों के एक ईसाई परिवार में सामने आती है। अपने विवरण में गीतात्मक और प्रामाणिक संजय लीला भंसाली ने मुख्यधारा के सिनेमा के भीतर अपने यथार्थवादी चित्रण के साथ पात्रों में जान फूंक दी।

अपने करियर की शुरुआत में, संजय लीला भंसाली ने गोवा में एक प्रेम कहानी ‘खामोशी’ बनाई जो एक मेलोड्रामैटिक फिल्म थी। इसमें उन्होंने मनीषा कोइराला को गूंगे बहरे माता-पिता की बिंदास बेटी के रूप में खूबसूरती के साथ पेश किया था। उसके संजय भंसाली एक बार फिर ऐश्वर्या राय बच्चन को ‘गुजारिश’ में इसाई किरदार के रूप में लाए। यह किरदार इसाईयां के लिए मशहूर एक नर्स का किरदार था, जिसे भंसाली ने एक अलग ही रंग दिया, जो अच्छा होने के बावजूद दर्शकों को पसंद नहीं आया। क्योंकि, उन्हें दारू की बोतल थामे हंगामा करते माइकल के जैसे इसाई पात्रों को देखना ज्यादा रूचिकर लगता था।