आओ आज ‘हिंदी के कालिदास’ से मिलते हैं…

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आओ आज ‘हिंदी के कालिदास’ से मिलते हैं…

कौशल किशोर चतुर्वेदी

हर साल 14 सितंबर की तारीख हम हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं। आओ आज हिंदी दिवस के दिन हम ‘हिंदी के कालिदास’ से मिलते हैं, उनकी बात करते हैं और उनकी साहित्य विधा से रूबरू होते हैं। हम बात कर रहे हैं कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल की। चन्द्र कुंवर बर्त्वाल (20 अगस्त 1919 – 14 सितंबर 1947) हिन्दी के कवि थे। उन्होंने मात्र 28 साल की उम्र में हिंदी साहित्य को अनमोल कविताओं का समृद्ध खजाना दे दिया था। समीक्षक चंद्र कुंवर बर्त्वाल को हिंदी का ‘कालिदास’ मानते हैं। उनकी कविताओं में प्रकृतिप्रेम झलकता है।

कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल की डायरी में एक स्थान पर लिखा हैः-

मेरा ध्येय हिंदी की सेवा करना होगा। मेरा आजन्म प्रयास होगा कि हिंदी को कोई नयी चीज भेंट करूं जो मेरे ही घर की बनी हो, विलायत जापान से बनकर नहीं आयी हो। (डायरी के पृष्ठ पर अंकित तिथि 6 मार्च, 1938)

उन्होंने अमेरिका के प्रति, ब्रिटेन के प्रति, जिन्ना के लिये भी तीखी व्यंग्य कविताएँ भी लिखीं हैं। सांप्रदायिकता के भी विरोध में वे कबीर की तरह खरा- खरा लिखते प्रतीत होते हैं। गोविंद चातक ने इतने फूल खिले में संकलित अपने लेख में पंडित और मौलवी पर उनके एक व्यंग्य की कुछ पंक्तियों को उद्धृत किया है-

पंडित जी बोले: स्वर्ग लोक में संस्कृत बोली जाती है/ मुल्ला जी बोले अल्ला को अरबी जबान ही भाती है/ मुल्ला ने पकड़ी चोटी,पंडित जी की मोटी-मोटी;/ और उधर पंडित जी ने दाढ़ी, मुल्ला जी की नोची झाड़ी/ एक पहर तक जोर शोर से लड आखिर मर गये अभागे।

उनके लेखन में संवेदनशीलता, मानवीयता, करुणा, दया और आक्रोश भी खुलकर देखने को मिलता है। अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के विरोध में उन्होंने खुलकर लिखा था कि एक दिन ऐसा आएगा कि न्यूयॉर्क में भी कोई नहीं रह पाएगा। और अब जिस तरह के हालात बन रहे हैं वह कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल की बात के मानो सही साबित होने का समय करीब नजर आ रहा है।

चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का जन्म उत्तराखण्ड के चमोली जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में 20 अगस्त 1919 में हुआ था। बर्त्वाल जी की शिक्षा पौड़ी, देहरादून और इलाहाबाद में हुई। 1939 में इन्होंने इलाहाबाद से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा 1941 में एमए में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहीं पर ये श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी के सम्पर्क में आये।

प्रकृति के चितेरे कवि, हिमवंत पुत्र बर्त्वाल जी अपनी मात्र 28 साल की जीवन यात्रा में हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा कर अनन्त यात्रा पर प्रस्थान कर गये। 1947 में इनका आकस्मिक देहान्त हो गया।

1939 में ही इनकी कवितायें “कर्मभूमि” साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित होने लगी थीं, इनके कुछ फुटकर निबन्धों का संग्रह “नागिनी” इनके सहपाठी शम्भूप्रसाद बहुगुणा ने प्रकाशित कराया। बहुगुणा जी ने ही 1945 में “हिमवन्त का एक कवि” नाम से इनकी काव्य प्रतिभा पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की। इनके काफल पाको गीति काव्य को हिन्दी के श्रेष्ठ गीति के रूप में “प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ” में स्थान दिया गया। इनकी मृत्यु के बाद बहुगुणा जी के सम्पादकत्व में “नंदिनी” गीति कविता प्रकाशित हुई, इसके बाद इनके गीत- माधवी, प्रणयिनी, पयस्विनि, जीतू, कंकड-पत्थर आदि नाम से प्रकाशित हुये। नंदिनी गीत कविता के संबंध में आचार्य भारतीय और भावनगर के हरिशंकर मूलानी लिखते हैं कि “रस, भाव, चमत्कृति, अन्तर्द्वन्द की अभिव्यंजना, भाव शवलता, व्यवहारिकता आदि दृष्टियों से नंदिनी अत्युत्तम है। इसका हर चरण सुन्दर, शीतल, सरल, शान्त और दर्द से भरा हुआ है।

उनकी दूरदृष्टि इतनी तीखी थी कि उस समय ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली और अंतराष्ट्रीय बाजारवाद के दुष्प्रभावों को भांप लिया था। ‘मैकाले के खिलौने’ नामक कविता का अंश देखियेः-

मेड इन जापान , खिलौनों से सस्ते हैं

लार्ड मैकाले के ये नये खिलौने

इन को ले लो पैसे के सौ-सौ दो-दो सौ

राष्ट्रीयता का भाव उनकी रचनाओं में जहां भी उभरता था पूरे पैनेपन के साथ उभर कर आता था तभी तो आज के परिदृष्य उन्होंने सत्तर साल पहले ही खींचकर रख दिये थे।

उनकी छुरी नामक कविता का अंश देखिये:-

मजदूरों की सरकार ओह इटली तू जाय जहन्नम को,

लीग सी नाजारी जो छोड़ी नामर्द कहें क्या हम तुम को।

श्री बर्त्वाल की अब तक अन्वेषित लगभग आठ सौ से अधिक गीत और कवितायें यह सिद्ध करती हैं कि चन्द्रकुवर बर्त्वाल हिन्दी के मंजे हुये कवि थे।

चंद्र कुंवर बर्तवाल ने हिमालय को जिया है। वह हिमालय में ही जन्मे, यहीं पले-बढ़े व यहीं उनकी मृत्यु हुई। इसलिए उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से हिमालय दिखता है। चंद्र कुंवर लिखते हैं, ‘मेरे काव्य का नायक हिमालय है। हिमालय के नायक कालिदास थे, इसलिए में कालिदास को अपना आराध्य मानता हूं।’

कवि कालिदास की ही तरह चन्द्रकुँवर ने हिमालय की महिमा गाते हुए लिखा कि

शोभित चन्द्र कला मस्तक पर

भस्म विभूषित नग्न कलेवर।

कटि पर कृष्ण गजानिन सा घन

गिरती घोर घोष कर पद पर।

बज्र छटा सी दीप्त सुरधनी

शांत नयन गम्भीर मुखाकृति

अथ इतिहीन, वीर्य यौवन घृति

दीप्त-प्रभा रवि उद्भासित मुख

मूर्ति मान आत्मा की जागृति

ज्योति लिखित ओंकार स्वरित ध्वनि

आदि पुरूष हे! हे पुराण मुनि।

तो 14 सितंबर और रविवार के दिन ही 1947 में इस दुनिया को अलविदा कहने वाले इस दुनिया को अलविदा कहने वाले कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल साहित्य के आकाश में ‘हिंदी के कालिदास’ के रूप में हमेशा जिंदा रहेंगे… आओ हम सब भी हिंदी के इस कालिदास को अपने आसपास महसूस करते हैं।

लेखक के बारे में –

कौशल किशोर चतुर्वेदी मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पिछले ढ़ाई दशक से सक्रिय हैं। पांच पुस्तकों व्यंग्य संग्रह “मोटे पतरे सबई तो बिकाऊ हैं”, पुस्तक “द बिगेस्ट अचीवर शिवराज”, ” सबका कमल” और काव्य संग्रह “जीवन राग” के लेखक हैं। वहीं काव्य संग्रह “अष्टछाप के अर्वाचीन कवि” में एक कवि के रूप में शामिल हैं। इन्होंने स्तंभकार के बतौर अपनी विशेष पहचान बनाई है।

वर्तमान में भोपाल और इंदौर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र “एलएन स्टार” में कार्यकारी संपादक हैं। इससे पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एसीएन भारत न्यूज चैनल में स्टेट हेड, स्वराज एक्सप्रेस नेशनल न्यूज चैनल में मध्यप्रदेश‌ संवाददाता, ईटीवी मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ में संवाददाता रह चुके हैं। प्रिंट मीडिया में दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका में राजनैतिक एवं प्रशासनिक संवाददाता, भास्कर में प्रशासनिक संवाददाता, दैनिक जागरण में संवाददाता, लोकमत समाचार में इंदौर ब्यूरो चीफ दायित्वों का निर्वहन कर चुके हैं। नई दुनिया, नवभारत, चौथा संसार सहित अन्य अखबारों के लिए स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर कार्य कर चुके हैं।