
आओ आज नत्थू,बख्शीजी, अज़ीज़, कश्मीरीलाल, सरदारजी की बात कर दिन को अच्छा बनाते हैं…
कौशल किशोर चतुर्वेदी
नत्थू, बख्शीजी, अज़ीज़, मास्टर रामदास, मेहता, अजीतसिंह, देसराज, शंकर, कश्मीरीलाल, जरनैल, देवदत्त, लीज़ा, रिचर्ड, हकीमजी, सरदारजी, मौला दाद, हयातबख्श, लक्ष्मीनारायण जैसे चरित्रों को याद कर हम आज का पूरा दिन मीठी यादों में गुजार सकते हैं। वैसे आज विश्व जनसंख्या दिवस भी है। और यह सभी चरित्र उसी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें अपार सुखों की ढेरी है, तो दुःखों की कांटों भरी बड़ी भारी बेरी भी है। दुःख भरी भीड़ में भी अकेलेपन का अहसास ठूंस ठूंस कर कराते हैं। और सुख में अकेले पड़े इंसान को भी भीड़ से घिरने का अहसास होता है। हम बात कर रहे हैं कालजयी लेखक भीष्म साहनी और उनकी रचना तमस की। और विश्व जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले यह सभी चरित्र तमस को जीवंत बनाते हैं। उजाले से अंधेरे और अंधेरे से उजाले में गोता लगवाते हैं।
तमस भीष्म साहनी का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है। इसका प्रकाशन 1973 में हुआ था। वे इस उपन्यास से साहित्य जगत में बहुत लोकप्रिय हुए थे। तमस को 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। इस पर 1986 में गोविंद निहलानी ने दूरदर्शन धारावाहिक तथा एक फ़िल्म भी बनाई थी। 90 के दशक का वह दूरदर्शन धारावाहिक आज भी उन सभी पुरानी आंखों में टिमटिम कर यादों का अखंड उजाला करने में सक्षम हैं।
‘तमस’ की कथा परिधि में अप्रैल 1947 के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है। ‘तमस’ कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। यों संपूर्ण कथावस्तु दो खंडों में विभाजित है। पहले खंड में कुल तेरह प्रकरण हैं। दूसरा खंड गांव पर केंद्रित है। ‘तमस’ उपन्यास का रचनात्मक संगठन कलात्मक संधान की दृष्टि से प्रशंसनीय है। इसमें प्रयुक्त संवाद और नाटकीय तत्व प्रभावकारी हैं। भाषा हिन्दी, उर्दू, पंजाबी एवं अंग्रेजी के मिश्रित रूप वाली है। भाषायी अनुशासन कथ्य के प्रभाव को गहराता है। साथ ही कथ्य के अनुरूप वर्णनात्मक, मनोविशेषणात्मक एवं विशेषणात्मक शैली का प्रयोग सर्जक के शिल्प कौशल को उजागर करता है।
आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियाँ लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच इस देश में नाचा गया था, उसका अंतरग चित्रण भीष्म साहनी ने इस उपन्यास में किया है। काल-विस्तार की दृष्टि से यह केवल पाँच दिनों की कहानी होने के बावजूद इसे लेखक ने इस खूबी के साथ चुना है कि सांप्रदायिकता का हर पहलू तार-तार होकर मानस पटल को खट्टा मीठा कर देता है। इसको इस कदर चरित्रों और अद्भुत दृश्यों की चासनी में समेटा गया है कि पाठक सारा उपन्यास एक साँस में पढ़ जाने के लिए विवश हो जाता है।भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एक युग पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है।
आजादी से पहले विदेशी शासकों ने यहाँ की जमीन पर अपने पाँव मजबूत करने के लिए इस समस्या को हथकंडा बनाया था और आजादी के बाद हमारे देश के राजनीतिक दल इसे अस्त्र-शस्त्र बनाकर विकरालता का पोषण करते रहे हैं। और इस सारी प्रक्रिया में जो तबाही हुई है उसका शिकार बनते रहे हैं वे निर्दोष और गरीब लोग जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान बल्कि सिर्फ इन्सान हैं और हैं भारतीय नागरिक। भीष्म साहनी ने आजादी से पहले हुए साम्प्रदायिक दंगों को आधार बनाकर इस समस्या का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर सामने रखा है जो अपनी विकृतियों का परिणाम जनसाधारण को भोगने के लिए विवश करती हैं।

आज भीष्म साहनी और तमस की बात करने का खास मतलब भी है। इसीलिए हम आज तमस के साथ भीष्म साहनी को याद कर रहे हैं। भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त, सन् 1915 में अविभाजित भारत के रावलपिण्डी में हुआ था। उनके पिता का नाम हरबंस लाल साहनी तथा माता लक्ष्मी देवी थीं। उनके पिता अपने समय के प्रसिद्ध समाजसेवी थे। हिन्दी फ़िल्मों के ख्यातिप्राप्त अभिनेता बलराज साहनी, भीष्म साहनी के बड़े भाई थे। पिता के समाजसेवी व्यक्तित्व का इन पर काफ़ी प्रभाव था। भीष्म साहनी का विवाह शीला जी के साथ हुआ था।
एक कथाकार के रूप में भीष्म साहनी पर यशपाल और प्रेमचंद की गहरी छाप है। उनकी कहानियों में अन्तर्विरोधों व जीवन के द्वन्द्वों, विसंगतियों से जकड़े मध्य वर्ग के साथ ही निम्न वर्ग की जिजीविषा और संघर्षशीलता को उद्घाटित किया गया है। जनवादी कथा आन्दोलन के दौरान भीष्म साहनी ने सामान्य जन की आशा, आकांक्षा, दु:ख, पीड़ा, अभाव, संघर्ष तथा विडम्बनाओं को अपने उपन्यासों से ओझल नहीं होने दिया। और इन्हीं निराशाओं के बीच की आशाएं मन को ढांढस भी बंधाती हैं।यदि स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की बात की जाए तो भीष्म साहनी भारतीय गृहस्थ जीवन में स्त्री-पुरुष के जीवन को रथ के दो पहियों के रूप में स्वीकार करते हैं। विकास और सुखी जीवन के लिए दोनों के बीच आदर्श संतुलन और सामंजस्य का बना रहना अनिवार्य है। उनकी रचनाओं में सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने वाले आदर्श दम्पत्तियों को बड़ी गरिमा के साथ रेखांकित किया गया है। तो भीष्म साहनी की बात आज इसलिए क्योंकि प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले लेखक भीष्म साहनी का निधन 11 जुलाई, 2003 यानी विश्व जनसंख्या दिवस पर दिल्ली में हुआ।
गोपाल राय के मतानुसार “तमस उस अन्धकार का द्योतक है जो आदमी की इंसानियत और संवेदना को ढँक लेता है और उसे हैवान बना देता है।” और सही तरीके से देखा जाए तो यह तमाम अंधेरे और उजाले विश्व जनसंख्या में भारत की वास्तविक तस्वीर पेश करते हैं। तो आओ आज आओ आज नत्थू, बख्शीजी, अज़ीज़, कश्मीरीलाल, सरदारजी की बात करते हैं… और स्मृतियों के सागर में गोता लगाते हैं।





