
धूमकेतु मोहन: एक चमक जो हमारे आसमान से गुजर गई
सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी मनोज श्रीवास्तव ने अपने साथी, मित्र और बैचमेट मोहन के निधन पर यह गहन संवेदनाओं से भरा संस्मरण लिखा है। यह लेख केवल एक व्यक्ति की मृत्यु पर शोक नहीं है, बल्कि उस जीवंत आत्मा की उजली स्मृति का वर्णन है, जिसने अपने कर्म, संगीत, प्रेम और समर्पण से प्रशासनिक सेवा के साथ जीवन को भी सौंदर्य से भर दिया। मनोज श्रीवास्तव का यह लेख आत्मा को छू लेने वाला श्रद्धांजलि-पत्र है – एक ऐसे दोस्त के लिए जो सबके जीवन में उजाला था, और अब एक अमर धूमकेतु बनकर चला गया।

“क्या यह संयोग है या दुर्योग?” अभी मैं योकोहामा के जिस रेस्त्रां में हूँ, उसका नाम ‘मोहन’ है और यहीं मुझे खबर मिली कि मोहन चला गया। मेरा बैचमेट, मेरा कॉडरमेट… मोहन मध्यप्रदेश में मेरे बैच की ऑर्बिट के आकाश का सबसे चमकदार धूमकेतु था। हाँ, अब उसे धूमकेतु ही कहना होगा क्योंकि वह हमें क्रॉस करके गुजर गया है। हम उस कॉमेट की टेल को धीरे-धीरे मद्धम होते देखते रहे, दिन-ब-दिन, जब तक रात ने उसे निगल नहीं लिया। अब हम खाली अंधेरे को ताकते रह गए हैं, यह सोचते हुए कि ब्रह्मांड अपनी उत्कृष्ट कृतियों को बिना बैकअप के कैसे और क्यों डिलीट कर देता है। ऐसा नहीं था कि हम इस प्रकट नियति से अपरिचित थे या यह यकायक हुआ। पर यह एक क्रीपिंग सत्य था – जो नित्य सामने था, और फिर भी हम विश्वास नहीं कर पाते थे कि जीवन इतना निर्दय हो सकता है। मोहन को अपने कैंसर के बारे में बहुत देर से पता चला, और तब तक वह बहुत एडवांस्ड स्टेज पर पहुँच गया था।

जाने से पहले, न जाने किस आशंका के तहत मेरी पत्नी ने अरुणा से मिलने की कोशिश की थी, पर अरुणा की स्वयं की मानसिक दशा ऐसी न थी और मोहन जिस अवस्था में था, वहाँ शब्दों का कोई अर्थ नहीं रह गया था। मोहन और अरुणा – एक ही जाली से लिपटी दो बेलें, एक ही रंग में हरित और पुष्पित होती हुईं। एक ही चाँद को परावर्तित करने वाली जुड़वाँ झीलें। उनकी लव मैरिज थी, मसूरी में परिवीक्षा के दिनों से। हम सब उन्हें अपने बैच के “लव बर्ड्स” कहते थे। कैंसर की इस बहुत देर से हुई खोज के बाद मोहन और अरुणा का संघर्ष अद्भुत था — संयुक्त, करुण और अडिग। हम सब केवल दर्शक थे, स्टैंड से चीयर करते हुए, पर सच्चाई यह थी कि हम असहाय थे। अरुणा ने हथेलियाँ जोड़कर मरती लौ में प्राण फूँकने की जितनी कोशिश की, हम सब उसके साक्षी हैं। आज अरुणा खंडहरों पर खड़ी है, लालटेन उठाए, उन जहाज़ों की अगुवाई में जो अब कभी नहीं आएँगे।

हमारे बैच की जब भी कोई पार्टी होती, मोहन उसकी जान होता। आईएएस एसोसिएशन की मीटिंग में हर ग्रुप लीडर चाहता था कि मोहन उसके ग्रुप में हो। कैरम, बैडमिंटन या कोई भी गेम — वह हर जगह सबसे आगे, और अरुणा के साथ जोड़ी बनाकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी भाग लेता। वह इतना जिंदादिल, इतनी ऊर्जा से भरा इंसान था कि लगता है अपने जीवन के अंतिम महीनों में जब वह अपने अस्तित्व की छाया मात्र रह गया था, वह खुद नहीं चाहता था कि कोई उसे उस रूप में देखे।
वह बिलियर्ड्स का खिलाड़ी ही नहीं था, बल्कि अब लगता है — वह हम सबके बीच सपनों का मास्टर क्यू था, जो असंभव शॉट्स को आँख मारकर गीत गाते हुए पॉकेट करता था। पर हमें मालूम नहीं पड़ा, कब से कैंसर चॉक की धूल-सा उसके फेल्ट पर रेंगता रहा, हर साफ़ ब्रेक को धुंधला करता हुआ। जब तक पता चलता — मेज़ फट गई, गेंदें बिखर गईं, और वह खेल अधूरा छोड़कर चला गया।

मोहन हमारे बैच का लीड संगीतकार और गायक था। पता नहीं कैसे कैंसर ने उसके तार तोड़ दिए, उसके कॉर्ड्स में disharmony भर दी। जब वह देवास कलेक्टर था, उसने मुझसे कहा था — “मेरे लिए एक गीत लिखो, मैं संगीतबद्ध भी करूँगा और गाऊँगा भी।” और उसने वह गाया भी। देवास में उसके जल संरक्षण के कार्य मन से किए गए थे। सेवानिवृत्ति के बाद उसने इसी विषय पर एक के बाद एक सीडी जारी कीं। अरुणा, जो स्वयं एक सफल आईपीएस अधिकारी हैं, अक्सर उन गीतों के शब्द लिखती थीं और मोहन उन्हें संगीतबद्ध, स्वरबद्ध और विज़ुअलाइज़ करता था। उसे ज्योतिष और संस्कृत का भी गहरा ज्ञान था। उससे बातचीत एक आनंद होती थी — जैसा मेरे एक और बैचमेट राजेश चतुर्वेदी से होती थी।

सेवानिवृत्ति के बाद मोहन ने अपने बेटे तन्मय और पत्नी अरुणा के साथ एक “राव अकादमी” स्थापित की — जिसके ज़रिए वह मध्यप्रदेश के युवाओं को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में मदद करता था। वह सेवानिवृत्ति के बाद भी एक पल को खाली नहीं बैठा। पर अब — वह इतनी जल्दी हमें अपनी अनुपस्थिति के खालीपन में छोड़ गया है।
मनोज श्रीवास्तव का यह लेख जीवन, प्रेम, संघर्ष और रचनात्मकता की उस ज्योति का स्मारक है, जो “मोहन” नाम से चमकती थी। वह गया जरूर, पर अपने संगीत, कर्म और यादों से हमारे भीतर अब भी रोशनी करता रहेगा।





