टिप्पणी: घुसपैठियों ने जब हक छीने तो भाजपा नेताओं की खामोशी टूटी!
कांग्रेस से भाजपा में आए नेताओं को कुर्सी से नवाजने के बाद भाजपा में सब कुछ सामान्य नहीं है। सिंधिया प्रसंग को तो भाजपा में इसलिए स्वीकार लिया गया था, कि वो कांग्रेस की सरकार गिरा कर अपनी पार्टी की सरकार बनाने का मामला था। लेकिन, रामनिवास रावत, कमलेश शाह और निर्मला सप्रे को जिस तरह शर्तें मानकर भाजपा में लिया गया, वो पार्टी के कई सीनियर विधायकों और नेताओं को रास नहीं आ रहा। कुछ नेताओं की नाराजगी खुलकर सामने आ रही। वे इसे सही नहीं मान रहे और ये सवाल खड़ा कर रहे हैं कि आखिर इन तीन विधायकों को भाजपा में लेने के पीछे क्या मज़बूरी थी! क्यों इन्हें इनकी शर्तों पर पार्टी में लिया गया। बात सही इसलिए भी है, कि न तो सरकार पर कोई खतरा था और न इनके भाजपा में आने से प्रतिष्ठा बढ़ने जैसी कोई बात समझ में आती है।
भाजपा नेताओं की नाराजी खुलकर भी सामने आई और दबकर भी। लेकिन, पार्टी का बड़ा तबका नेतृत्व की इस प्रवृत्ति से खुश नहीं है। इससे उन्हें अपने हक़ पर खतरा मंडराता नजर आने लगा, जो स्वाभाविक भी है। सिंधिया के साथ आए 22 लोगों में चार अभी भी मंत्रिमंडल का हिस्सा है। पिछले मंत्रिमंडल में इनकी संख्या 7 थी। तोड़फोड़ से पार्टी को भले तात्कालिक फ़ायदा होता हो, पर इससे पार्टी के अंदर विद्रोह जैसे हालात बनते हैं। इससे पार्टी संगठन और बड़े नेता भी अनजान नहीं है। उन्हें पता है कि पार्टी में कैसा विरोध पनप रहा है। किंतु, इस नाराजगी को दूर करने के लिए क्या पार्टी ने कोई रास्ता खोजा? अभी इस सवाल का जवाब सामने आना बाकी है। लेकिन, यह बात जरूर सामने आई कि इन नाराज विधायकों को मंत्रिमंडल और निगम-मंडलों में नई जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है! लेकिन, ये कब और कैसे होगा, ये यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब आना बाकी है।
मध्यप्रदेश भाजपा में तोड़फोड़ की राजनीति से पार्टी के नेता ऊब गए हैं। यही कारण है कि अब पार्टी के अंदर नाराजगी विद्रोह की भाषा में बदलने लगी। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए रामनिवास रावत को मंत्री बनाने से पार्टी के वरिष्ठ नेता खुलकर सामने आए। क्योंकि, मंत्रिमंडल विस्तार का सारा तामझाम अकेले रावत के लिए किया गया। इस पर पूर्व मंत्री गोपाल भार्गव और अजय विश्नोई ने तो खुलकर अपनी नाराजगी व्यक्त की। इसलिए कि कांग्रेस के दूसरे विद्रोही और अमरवाड़ा से जीते कमलेश शाह भी मंत्री बनने की कतार में है। भाजपा में नाराजगी जताने वाले ये वे नेता हैं, जो सालों से राजनीति कर रहे हैं। वे मुखर भी हैं और खुलकर बोलने का मौका नहीं छोड़ते। लेकिन, ऐसे कई नेता जो चुप हैं पर अंदर ही अंदर उनका गुस्सा खदबदा रहा है। पूर्व मंत्री जयंत मलैया और ओमप्रकाश सकलेचा ने तो साफ़ कहा कि वे पार्टी में अपनी बात रखेंगे। आशय है कि वे भी इससे खुश नहीं हैं। सबका एक ही सवाल है कि आखिर कांग्रेस के इन तीन नेताओं को समझौते के तहत पार्टी में शामिल कराने के पीछे पार्टी की क्या मज़बूरी थी!
इससे पहले 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जो नेता भाजपा में शामिल हुए थे, तब उन्हें मंत्री और राज्यमंत्री बनाया गया। जो उपचुनाव हार गए उन्हें समझौते के तहत निगम-मंडल की कमान सौंपी गई थी। तब भी पार्टी के नेताओं ने नाराजगी दिखाई थी। लेकिन, तब के हालात अलग थे। वो माहौल कमलनाथ की सरकार के समय का था और सारी जुगत कांग्रेस की सरकार गिराने के लिए की गई थी। इसलिए भाजपा के नेताओं ने कलेजे पर पत्थर रखकर सहन कर लिया। लेकिन, रामनिवास रावत, कमलेश शाह और निर्मला सप्रे को लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा में लाने से क्या हासिल हुआ! रावत को बिना उप चुनाव जीते मंत्री बना दिया गया। जबकि, कमलेश शाह तो चुनाव जीत गए और उन्हें भी मंत्री बनाया जाना है। निर्मला सप्रे से भाजपा का क्या करार हुआ ये अभी सामने नहीं आया!
अजय विश्नोई ने सही कहा कि ‘वो’ (यानी कांग्रेस से भाजपा में आने वाले) शर्तों के साथ ही भाजपा में शामिल होते हैं, हम तो समर्पण भाव से काम करने वाले नेता हैं। त्याग अपनों से करवाया जाता है, दूसरा तो शर्तों के साथ आया। पूर्व मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि ये पार्टी का फैसला है। वे खुलकर बोलते हैं, तो उनका नुकसान हो जाता है। यही वजह है कि पार्टी के दूसरे नाराज नेता भी खुलकर बोलने से हिचकिचा रहे हैं। इन नेताओं का कहना है कि सरकार बनाने या बचाने की मजबूरी तो नहीं थी, तब क्यों रामनिवास रावत को मंत्री बनाया गया! अजय विश्नोई जैसे सीनियर विधायक प्रतिक्रिया तो दे रहे हैं, पर वे भी पार्टी के फैसले की आड़ लेकर तंज भी कस रहे हैं। विश्नोई का यह भी कहना है कि पार्टी ने रावत को मंत्री बनाकर इनाम दिया है। शायद पार्टी ने उनकी उपयोगिता को समझा होगा।
कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया लगातार 9 बार से चुनाव जीते विधायक गोपाल भार्गव की भी सुनाई दी। उनका बयान सामने आया कि भाजपा में मंत्री बनाने का निर्णय शीर्ष नेतृत्व तय करता है। अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि मैं 15000 दिन से विधायक हूं, पता नहीं रावत को किस मजबूरी में मंत्री बनाया। गोपाल भार्गव कई बार मंत्री रहे, पर इस बार उनको मौका नहीं मिला। उनकी भाषा से अंदाजा लगता है कि वे संभलकर बोलने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। कहना तो वे बहुत कुछ चाहते होंगे, पर पार्टी लाइन भी नहीं छोड़ना चाहते। दो दशक तक मंत्री रहे जयंत मलैया भी पार्टी से बंधे हैं। भाजपा विधायक ओमप्रकाश सकलेचा का बयान सामने आया कि किसे मंत्री बनाना है और किसे नहीं, ये मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है।
ऐसे में पार्टी भले ही सबकुछ ठीक कहे, पर वास्तव में ऐसा है नहीं! पैराशूट नेताओं को कुर्सी दिए जाने से भाजपा के वे नेता तो नाराज हैं ही जिनका पार्टी के इस फैसले से नुकसान हुआ है। प्रदेश की नई सरकार में पुराने नेताओं को हाशिए पर छोड़ देने के पीछे समझा जा रहा है कि पार्टी पुरानी पीढ़ी को विदा कर नई पीढ़ी को आगे लाने की परंपरा निभा रही है। लेकिन, रामनिवास रावत की उम्र के नेताओं को भाजपा में लाकर मंत्री बनाने को लेकर पनप रही नाराजगी सब चुप क्यों हैं।