Cong Fails to Learn Lessons: हरियाणा चुनाव- क्या है सबक कांग्रेस के लिए?
रंजन श्रीवास्तव की खास रिपोर्ट
हरियाणा विधान सभा चुनाव में इतिहास रचकर भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। पहला, आने वाले विधान सभा चुनावों के पहले अपनी स्थिति बहुत मजबूत कर ली है जो लोक सभा में अपेक्षित परिणाम नहीं आने से कमजोर दिख रही थी I दूसरा, कांग्रेस के किसान, पहलवान और नौजवान तथा जाति जनगणना के नरेटिव के गुब्बारे की हवा निकाल दी तथा तीसरा, पार्टी तथा सरकार के अंदर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की स्थिति मजबूत कर दी है।
जम्मू-कश्मीर तथा हरियाणा के चुनाव लोक सभा चुनाव के बाद देश में प्रथम चुनाव थे। लोक सभा में पार्टी 400 का नारा देने के बाद 240 सीट पर सिमट गई थी तथा यह संदेश गया कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अब थकान दिखने लगी है I यह पहले ही पता था कि जम्मू- कश्मीर में चुनाव परिणाम भाजपा के अनुरूप शायद ही आएं पर हरियाणा में अगर भाजपा के लिए अपेक्षित परिणाम नहीं आता तो मोदी के नेतृत्व पर गंभीर सवाल खड़े हो जाते।
लोक सभा चुनाव के परिणामों के पश्चात संघ मोदी पर हमलावर दिख रही था तथा मोदी के लिए जो चुनौती सबसे पहले दिख रही थी वह यह थी कि क्या जेपी नड्डा की जगह अगला भाजपा अध्यक्ष उनके मंशा के अनुरूप होगा या ऐसा कोई व्यक्ति आएगा जो पार्टी के ऊपर मोदी-शाह के प्रभुत्व को समाप्त करेगा। दूसरी चुनौती यह थी कि क्या प्रधान मंत्री मोदी अपने ही बनाए अलिखित नियम के अनुसार 17 सितंबर, 2025 को जब वो 75 वर्ष के हो जाएंगे, प्रधान मंत्री किसी दूसरे भाजपा नेता के लिए छोड़ेंगे या वो प्रधान मंत्री बने रहेंगे। अब अगली चुनौती महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली विधान सभाओं के चुनाव है पर हरियाणा के बाद भाजपा जब इन चुनावों का मुकाबला करेगी तो आत्मविश्वास से भरी होगी।
पर, एक महत्वपूर्ण प्रश्न ये भी है कि लोक सभा में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के लिए हरियाणा चुनाव से क्या सबक मिला और क्या कांग्रेस आने वाले चुनावों में भाजपा को टक्कर दे पाएगी? खासकर हरियाणा चुनाव में कांग्रेस अति आत्मविश्वास में थी I यहां तक कि पार्टी ने इंडिया (गठबंधन) के बैनर तले चुनाव लड़ने की बजाय एकला चलो नीति पर कार्य किया। पर कांग्रेस और भाजपा के चुनाव लड़ने के तरीके में जो खास अंतर दिखा वह यह था कि जहां भाजपा ने मैक्रो और माइक्रो मैनेजमेंट दोनों के सहारे चुनाव लड़ा, कांग्रेस कम से कम माइक्रो मैनेजमेंट में बुरी तरह असफल रही। कांग्रेस नेता ईवीएम को लेकर भाजपा पर हमलावर हैं। उनका आरोप यह है कि मतगणना के समय कई ईवीएम में बैटरी 99% चार्ज्ड थी जो कि संभव नहीं है। इन आरोपों में जो भी सत्यता हो पर सत्य यह भी है कि पार्टी कई राज्यों में हार के बाद भी एक ही तरह की गलती बार बार दोहरा रही है और पिछले 10 वर्षों में संगठन को मजबूत नहीं कर पाने का खामियाजा पार्टी को चुनावों में बार बार भुगतना पड़ रहा है।
हरियाणा के बड़े नेताओं में खुलेआम मनमुटाव दिखा। उसका प्रभाव पार्टी के ऊपर जमीनी स्तर पर तभी नहीं पड़ता जब पार्टी का कैडर मजबूत होता। राहुल गांधी 77 वर्षीय भूपिंदर सिंह हुड्डा और 62 वर्षीय कुमारी शेलजा को एक मंच पर साथ लाकर दोनों का हाथ मिलवाने में तो सफल रहे पर दोनों के दिल मिले हों ऐसा लगा नहीं I वैसे भी दोनों को साथ लाने में बहुत देर हो चुकी थी। रणदीप सिंह सुरजेवाला भी मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पाले हुए थे पर उनकी और हुड्डा के बीच दूरी लगातार बनी रही।
भाजपा ने सत्ता विरोधी लहर को देखते हुए मनोहरलाल खट्टर को मुख्यमंत्री पद से ही नहीं हटाया बल्कि उनको चुनाव प्रचार की होर्डिंग और बैनर से भी गायब कर दिया। इसके अतिरिक्त भाजपा ने जाट समुदाय को कोई अतिरिक्त तरजीह नहीं दी जबकि कांग्रेस ने अपना पूरा चुनाव अभियान हुड्डा के हाथों में दे दिया जो कि जाट लीडर हैं I राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने मध्य प्रदेश की ही तरह हरियाणा में कम समय दिया। उनकी सभाओं में अच्छी भीड़ उमड़ी पर वह संगठन कहां था जो उस लहर को वोट में बदलता? राहुल गांधी ने लोक सभा की ही तरह अपने हमले में अडानी और अंबानी को केंद्र बिंदु में रखा पर ऐसा प्रतीत होता है कि जनता के ऊपर एक ही तरह के मुद्दे बार बार उठाने से उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। विधान सभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे ही कारगर होते हैं। जहां तक आने वाले तीन राज्यों में चुनाव का प्रश्न है कांग्रेस चाहे भी तो एकला चलो की नीति पर नहीं चल सकती क्योंकि यहां पर उसके गठबंधन पार्टनर उससे ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं। पर अगर कांग्रेस इन चुनावों में गठबंधन को मजबूत कर पाती है और सफलता पाती है तो यह उसके लिए संजीवनी का काम करेगा।