कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव: गांधी परिवार की समझदारी, दिग्विजय की जल्दबाजी
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इंदिरा) का अध्यक्ष जो भी बने,अगले पांच साल तक गांधी परिवार को दल की किसी चुनावी असफलता का दंश नहीं झेलना पड़ेगा। इस साल गुजरात,हिमाचल विधानसभा के चुनाव और सन 2023 में 9 विधानसभाओं के चुनाव व 2024 में लोकसभा के चुनाव में यदि परिणाम अनुकूल नहीं रहे तो नेतृत्व कर रहे व्यक्ति की जवाबदेही होगी और कुछ भी सफलता मिली तो गांधी परिवार का आशीर्वाद तो है ही। गांधी परिवार के दोनों हाथ में लड्डू रहेगा। राहुल को अपशकुनी होने के आरोप से मुक्ति मिलेगी। कांग्रेस के भीतर जब-तब नेतृत्व को लेकर जो सुगबुगाहट होती रहती है,उस पर अंकुश लगेगा,बागी कांग्रेसियों का समूह जी-23 कुछ बोलने लायक नहीं रहेगा और जनता के बीच भी यह संदेश तो जायेगा ही कि गांधी परिवार कांग्रेस संगठन पर कुंडली मारकर नहीं बैठा है। इन सबके इतर हकीकत जो रहेगी, वह दिग्विजय सिंह अध्यक्ष चुनाव की प्रक्रिया के बीच बयान कर चुके हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसका दूसरा मतलब यह निकाला जा सकता है कि चुनाव होकर भले ही कोई गैर गांधी अध्यक्ष बने,दल पर प्रभुत्व तो गांधी परिवार का ही रहेगा। बहरहाल।
कांग्रेस के आंतरिक चुनाव की प्रक्रिया के बीच कुछ सवाल जो बार-बार उठते हैं, उनका एकमुश्त जवाब यही है। जिसे आंतरिक लोकतंत्र बताया जाता है, वह कमोबेश किसी राजनीतिक दल में होता नहीं है। प्रक्रिया का कितना ही दिखावा कर लिया जाये, होता वही है, जो चंद लोग चाहते हैं। कांग्रेस समेत समाजवादी पार्टी,बहुजन समाज पार्टी,आप,जदयू,तृणमुल कांग्रेस,अन्ना द्रमुक,शिवसेना,राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी,तेलंगाना राष्ट्र समिति वगैरह की लगभग समान कहानी है। भारतीय जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी इस मायने में अलग हैं कि वे किसी परिवार की जागीर की तरह नहीं चल रही। इस समूचे घटनाक्रम में दिग्विजय सिंह का प्रवेश और निर्गमन काफी असहज,आहत करने वाला और अनिश्चय भरा है। ऊपरी तौर पर देखें तो यह लगता है कि या तो उन्होंने गांधी परिवार का अपने प्रति अति भरोसे का गलत आकलन किया या गांधी परिवार को उनके किसी सलाहकार ने ऐन वक्त यह जंचा दिया कि दिग्विजय सिंह की विवादित छवि से कांग्रेस को अभी की तुलना में ज्यादा नुकसान हो सकता है। जो भी रहा हो, यह तो तय है कि इससे दिग्विजय सिंह कहीं आहत हुए नजर आ रहे हैं।
इस समूचे परिदृश्य में अलग-अलग स्तर पर जो कठपुतलियां अपने करतब दिखा रही थी, उनके समग्र स्वरूप को देखें तो कहानी कुछ और ही निकलती है। अब ऐसा लगता है कि गांधी परिवार के लिये अशोक गेहलोत कभी प्राथमिकता थे ही नहीं । वे मल्लिकाजुर्न खड़गे के लिये ही मन बना चुके थे, लेकिन गेंद इधर-उधर उछालने का उपक्रम चलाया जा रहा था कि लगे कि मैदान में हलचल है। इसमें खुद अशोक गेहलोत ने बड़ी दो गड़बड़ कीं। जब वे राहुल गांधी से मिलकर संवाददाताओं के बीच आये तो कहा कि वे तो राहुल को मनाने आये थे कि वे ही अध्यक्ष बनें, लेकिन वे नहीं बन रहे तो मैं अध्यक्ष का चुनाव लड़ने को तैयार हूं। याने उन्होंने अपनी तरफ से खुद को गांधी परिवार व कांग्रेस का अधिकृत प्रत्याशी घोषित कर दिया। जबकि उन्हें कहना था कि यदि गांधी परिवार व दल के वरिष्ठ नेताओं का आग्रह रहा तो वे चुनाव लड़ सकते हैं। यूं देखें तो तकनीकी तौर पर गांधी परिवार ने किसी को समर्थन दिया ही नहीं है। जहां आंखों के इशारे काफी हों, वहां जबान क्यों चलाई जाये?
दूसरी गफलत यह हुई कि राजस्थान पहुंचने पर उनके समर्थक विधायकों ने सामूहिक इस्तीफे दे डाले। जबकि तब तक आलाकमान भी उन्हें अध्यक्ष लडाना चाहता होगा, तभी पर्यवेक्षकों को रायशुमारी के लिये भेजा था। लेकिन जब विधायक बागी हुए और गेहलोत खामोश ही रहे तो आलाकमान ने हाथ खींच लिये, भले ही उन्हें कारण बताओ सूचना पत्र न दिया हो। तभी उनके मन में अपेक्षाकृत ज्यादा विश्वसनीय और वरिष्ठ के तौर पर जेहन में खड़गे का नाम उभरा। अब याद करें कि 27 सितंबर को सोनिया गांधी के निकट सहयोगी पवन बंसल ने नामांकन पत्र लगभग चुपचाल ले लिया था। उसी नामांकन पत्र पर खड़गे ने नामांकन दाखिल किया है, जिसकी जानकारी पहले किसी को नहीं थी। फिर देखें कि ए.के.एंटोनी को केरल से मुद्दाम दिल्ली बुलाया गया। नामांकन पत्र पर सबसे पहला हस्ताक्षर उनका ही है। याने खड़गे के लिये मन बनाया जा चुका था। फिर खड़़गे के नामांकन में सभी प्रस्तावक राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और दिग्विजय सिंह के नामांकन में सभी मध्यप्रदेश के हैं। ऐसा क्यों ?
एक और पहलू देखें कि दिग्विजय सिंह ने 29 सितंबर को खड़गे से मुलाकात की, तब भी खड़गे ने नही कहा कि वे चुनाव लड़ेंगे,अन्यथा दिग्गी तभी इनकार कर देते, जैसा कि दिग्विजय सिंह ने 30 सितंबर को नामांकन न भरने का फैसला सुनाते हुए संवाददाताओं से कहा भी। लेकिन दिग्गी राहुल की भारत जोड़ो यात्रा बीच में छोड़कर दिल्ली आये तो बिना राहुल को बताये तो नहीं आये होंगे? तब क्या राहुल ने उन्हें सहमति दी या सोनियाजी से मिलने,पूछने का नहीं कहा ? याने कुछ तो गड़बड़ दिग्विजय सिंह के साथ भी हुई। उनकी कांग्रेस और गांधी परिवार के प्रति निष्ठा असंदिग्ध रही है। तब उन्होंने नामांकन के लिये दिल्ली आने का नहीं पूछा या उन्हें रोका क्यों नहीं गया? क्या उनका कद भी दिल्ली दरबार में कम हो गया है?
इसमें तो कोई शंका नहीं कि खड़गे एकतरफा जीत हासिल करेंगे, यदि चुनाव हुए तो। हो सकता है, शशि थरूर भी बुरी हार के अंदेशे में कदम वापस खींच ले। नित-नये घटनाक्रम से देश के समाचार माध्यमों,चौराहों,चौपालों पर कांग्रेस को जबरदस्त चर्चा में तो ला खड़ा किया है। उसके सकारात्मक,नकारात्मक परिणाम तो बाद में ही सामने आयेंगे। यदि 80 वर्षीय खड़गे अध्यक्ष बने तो कितनी ताजगी और जोश के साथ सक्रिय रह पायेंगे और पांच साल तक पद पर बरकरार रहेंगे या नहीं, इसका इंतजार ही किया जा सकता है। इस बीच अनेक चुनावों के झंझावतों को वे और उनके कथित नेतृत्व में कांग्रेस कैसे झेलती है, देश देखेगा ही।