साहित्यकार फूलचंद मानव से बातचीत:जब देह गलती है, तब ही सृजन की सच्ची साधना संभव!  – कर्मयोगी 

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साहित्यकार फूलचंद मानव से बातचीत:जब देह गलती है, तब ही सृजन की सच्ची साधना संभव!  – कर्मयोगी 

 

जीवन के आठवें दशक में तमाम शारीरिक चुनौतियों के बावजूद फूलचंद मानव सृजनरत हैं। वर्ष 1961-62 में मैं जैन संप्रदाय में आचार्य तुलसी के कुछ अनुयायियों के संपर्क में आया। बचपन में उनके लिखे भजन गाया करता था। वे लिखकर भजन देते, भजन स्मरण हो जाते। मैंने सीखा। मुझे ज्ञान नहीं था कि ये क्या है। सीखा तो संस्कार मिले थे। स्मरण शक्ति थी। कविता लिखने लगा। फिर हिंदी मिलाप, वीर प्रताप ने मुझे छापा। अणुव्रत, जैन भारती कलकत्ता में रचनाएं प्रकाशित हुई तो उनके पैसे मिलने लगे। थोड़े पैसे का लालच होने लगा। फिर सारिका व ज्ञानोदय में छपता था। नई कहानी, माध्यम, कल्पना आदि में छपा। दरअसल, इसलिए लिखता था कि संपादक मांगते थे। आज मांगता कोई नहीं।

वे बताते हैं कि मैंने मेहनत से अपनी जगह बनायी। हर अच्छी जगह छपा हूं। हमारा कौन परिचित था। मैं सारिका व धर्मयुग में लगातार छपता रहा। धर्मयुग को हाथ से लिखकर 28 पेज का मैटर भेजता था। लाल स्याही से एडिट होता था। आज मांग होती है, इस फॉन्ट में भेजो, ऑनलाइन भेजो। ये हम जैसे लोगों के बस का नहीं है। माना कि तकनीक का युग है। मैंने धर्मयुग के लिए कई आवरण कथाएं लिखी। धर्मवीर भारती जी ने मेरे से चार-चार पन्ने के सर्वेक्षण कराए। पंजाब के हिंदी भाषी इलाके अबोहर-फाजिल्का के इलाके में। मनोहर श्याम जोशी ने 1976 में तीन किस्तों में लिखवाया ‘सन्नाटा साहित्य में या शहर में।’ उन दिनों जागृति पत्रिका का संपादक था। कमलेश्वर सारिका के संपादक थे, कहानी प्रधान किताब में मेरी अनुवादित कविता छापी ‘लाहौर के नाम एक खत।’ ग़ज़लें बाद में छपनी शुरू हुई। मेरे पास सारे अंक भी हैं। कल्पना के अंक हैदराबाद में भी छपा।

आज साहित्य में भी अजीब स्थिति है, लोग सहन नहीं करते एक-दूसरे को। बस यही सोच है कि मैं ही मैं बढ़ता जाऊं। निस्संदेह, ज्ञान बांटने की चीज हैं। ज्ञानोदय कहां हैं, रमेश बख्शी संपादक होते थे। वर्ष 1965-66 की बात है। उसके बाद सारिका, धर्मयुग आये व साहित्यकारों का रास्ता खुला गया। दिनमान के बाद रविवार आया। पत्र-पत्रिका की लोकप्रियता संपादक पर निर्भर करती है। कमलेश्वर बड़ा पॉपुलर नाम था। धर्मवीर भारती इतना बड़ा नाम था कि आज उस तरह का नाम नहीं है। काम के आधार पर ही तो नाम होता है। दरअसल, वो जो कहते थे, उसे जीते भी थे। अपने यहां तो जो यथार्थ है उसके ढांपने की कोशिश की जा रही। जो प्रतिभा है उसे अवसर नहीं दिए जा रहे।सृजन-संस्कृति को पछाड़कर हर कोई पैसे के पीछे पड़ा है या फिर नफरतों का सफर जारी है।

दुष्यंत कुमार जैसा गजलकार हुआ कोई आज तक? मगर आज उनका नाम लेवा नहीं। इसी चंडीगढ़ में इंद्रनाथ मदान रहे। हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसी शख्सियत रही जो देश के प्रतिनिधि थे। हजारी प्रसाद जी का पूरे देश में बोलबाला था। आज उनका कोई नाम नहीं लेता। उस समय गोष्ठियों में सम्मान होता था। आज छोटे-छोटे घरौंदे बनाने का काम हो रहा है। इसी शहर में रमेश कुंतल मेघ रहे। मेघ जी व प्रो वीरेंद्र मेहंदीरत्ता ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी। अपनी मेहनत और प्रतिभा से जगह बनायी। रमेश कुंतल मेघ पंजाब के नहीं थे, लेकिन यहां सारी उम्र काम किया। उनके शिष्यों के शिष्य बोल बाला करा रहे हैं। आज कुमार विकल का कोई नाम नहीं लेता। बहुत बड़े हस्ताक्षर थे। वैसी कविता आज आ ही नहीं रही। धूमिल की टक्कर के थे कुमार विकल। नरेश सक्सेना जैसे कवि आज भी उपेक्षित हैं।

साहित्य में खेमाबंदी के बाद साहित्य की दुनिया खेमों में बंट गई है। छोटे-छोटे गढ़ और गिरोह बन गए जो समाज को तोड़ते हैं, जोड़ते नहीं। स्वार्थ, लालच-लोभ सबसे आगे है। कोई कुछ छोड़कर जाएगा, ये नहीं समझ पा रहे ! उनके काम के आधार पर ही याद किया जाएगा। क्रिएटिविटी गायब हो रही है नई पीढ़ी फास्टफूड की तरह रातों-रात चर्चित होना चाहती है। चाहती है, बस पुरस्कार मिल जाए। मेरा ही बोलबाला रहे। सीनियरिटी की कोई कद्र है ही नहीं। सीनियरिटी कोई ऊपर से लिखवाकर नहीं लाया। रचनाकार काम से जाना जाता है दरअसल, धीरे-धीरे क्रिएटिविटी गायब हो रही है। नकलीपन आ रहा है। कविता की भाषा में ताजगी नहीं है। संपादन हो या लेखन, रचनात्मकता जरूरी है। एक ही बात को रिपीट करते रहते हैं। तीन सौ कविताएं ले लें, नकल और हमशक्ल लगती हैं। कविता की समझ बहुत कम संपादकों को है।

विडंबना है कि आज पत्रिका, किताब खरीदना बंद है। यहां तक कि पढ़ना भी बंद। लोग जो कह रहे पढ़कर दोहरा रहे हैं, उसी पर इतरा रहे हैं। किसी के घर जाएं लाइब्रेरी नहीं है घर में। किताबें कूड़े में चली जाती हैं। मेरे व्यक्तिगत पुस्तकालय में 15 हजार किताबें हैं। दस टन किताबें निकाल चुका हूं उम्र को देखते हुए। मेरे बाद कौन देखता। मेरे बच्चों को मेरी किताब का नाम भी नहीं पता। कहानी, कविता, अनुवाद व शोध की पुस्तकें हैं। मैंने वर्ष 1967 में पहली एमए पंजाबी भाषा में व 1973 में दूसरी एमए हिंदी में की। पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला का टॉपर रहा हूं। अध्यापन की शुरुआत गृह जनपद नाभा में ढाई साल एडहॉक प्राइमरी स्कूल टीचर के रूप में की। सोचा न था कि कभी चंडीगढ़ आ सकूंगा। वर्ष 1963 में इंडस्ट्री विभाग में क्लर्क लग गया। लेकिन, हर साल हर सेशन में दो परीक्षाएं दी । कई बार फीस न भर पाया। स्कूल से शिक्षा दसवीं तक पूरी की।

कॉलेज की रेगुलर पढ़ाई का मुझे अवसर नहीं मिला। वर्ष 1952 में पिता तुलसीराम जी का देहांत हुआ। दुकान करते थे नाभा में। मां प्रसन्ना देवी ने पिता की भूमिका भी निभायी। गरीबी में मां के संघर्ष को याद करते हुए रो पड़ता हूं। पढ़ाई के लिए फीस नहीं होती थी। कालांतर 1970 में पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के टेक्स्ट बुक बोर्ड में सहायक संपादक का दायित्व निभाया। यहां मैंने 27 किताबें एडिट की। यह लेक्चरर ग्रेड का पद था।। मातृभाषा टेक्स्ट को प्रोत्साहन की योजना थी। बाद में पंजाब सरकार में लोक संपर्क अधिकारी का मौका मिला। फिर प्रकाशन विभाग की ‘जागृति’ पत्रिका का संपादक बना।

फिर मुझे पंजाब सर्विस कमीशन पटियाला से कॉलेज लेक्चरर की नियुक्ति मिली। तब मुझे विष्णु खरे ने भोपाल में आयोजित केंद्रीय साहित्य अकादमी के सम्मेलन में पंजाबी के अनुवादक के रूप में आमंत्रित किया था। वर्ष 1977 के आसपास समकालीन भारत में छपा सानी जी के संपादन में। फिर टीचिंग में आ गया। पंजाबी यूनिवर्सिटी, राजेंद्र गवर्नमेंट कॉलेज बठिंडा में अध्यापन के बाद बीस साल मोहाली स्थित सरकारी कालेज फेज-6 में हिंदी अध्यापन किया। मैंने 42 साल नौकरी की, कई जगह इस्तीफे देकर नई-नई नौकरी की। एक जगह होता तो और ऊपर पद पाता।

साहित्य के सृजन का दायित्वबोध प्रेरित करता है। तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ से सौहार्द सम्मान दस हजार रुपये का मिला। मुलायम सिंह ने सम्मानित किया था। वर्ष 2003 में उस समय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने केंद्रीय हिंदी निदेशालय का पचास हजार का पुरस्कार दिया। वर्ष 2006 में भाषा विभाग पंजाब का एक लाख का शिरोमणि साहित्य पुरस्कार मिला। फिर 2014 में केंद्रीय हिंदी साहित्य अकादमी से पचास हजार का अनुवाद पुरस्कार मिला। वे बताते हैं कि संतानों की सृजन से विरक्ति है। बच्चों को कोई इंटरेस्ट भी नहीं है। तीन किताबों के नाम नहीं ले सकते। इस बात से खुश हैं कि पापा प्रसिद्ध हैं। पापा रेडियो पर आए, फोटो छप गई। बेटे योगेश मानव का आस्ट्रेलिया में व्यवसाय है। पोतों को भान नहीं है। उनको पैसे की समझ है, हमें नहीं। एक बेटी ममता डॉक्टर है और दूसरी प्रवीण टीचर है। ये सपना पिता तुलसीराम व मां प्रसन्नी देवी के आशीर्वाद का फल है सेल्फ मेड हूं। आज भी संघर्ष जारी है।

हाल में एनबीटी, भारतीय ज्ञानपीठ व केंद्रीय साहित्य अकादमी की 14 किताबें आई हैं। कविता का अनुवाद किया है। टाइटल पर नाम फूलचंद मानव कौन देता है। ज्ञानपीठ से अच्छी रॉयल्टी मिलती रही है। मेरा पहला कविता संग्रह ‘एक ही जगह।’ पराग प्रकाशन से आया। दस प्रतिशत रायल्टी दी थी कविता पर। दूसरा कविता संग्रह- ‘एक गीत मौसम।’ तीसरी कृति ‘कठोर कमजोर सपने’ के लिये अटल बिहारी वाजपेयी ने सम्मानित किया था। चौथा कविता संग्रह ‘आईने इधर भी हैं’ छपा। कहानी संग्रह ‘अंजीर’ पंजाबी में और गुजराती में छपा है। मेरी रचना का मूल स्वर सांस्कृतिक व्यंग्य रहा है। आजकल वर्ष 1977 में बठिंडा से शुरू किये गए साहित्य संगम के तहत साहित्य संवर्धन का काम जारी है। बहरहाल, लेखन से संतुष्टि है। दरअसल, सृजन के लिये साबुन की टिकिया की तरह घिसना पड़ता है। हम घिस गए। आंखों से कम दिखता है, कानों से कम सुनायी देता। लिखते वक्त हाथ कांपते हैं।