बदलती दुनिया में विलुप्त होती ‘कुली’ प्रजाति!

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कुली शब्द सामने आते ही मुझे लाल कपड़ों में हमारा बोझ उठाने वाले किरदार के साथ साथ हिन्दी फ़िल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन का स्मरण आ जाता है , जिनके साथ ही जुड़ी है फ़िल्म कुली के निर्माण की कहानी , जिसकी शूटिंग के दौरान सन् 1982 में अमिताभ को गंभीर चोट आ गई थी और उन्हें महीनों अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था । लाखों चाहने वालों की दुवाओं और तरह तरह के पूजा पाठों और मन्नतों के बाद अमिताभ जब ठीक होकर वापस लौटे तो उसका जश्न भी कई दिनों तक चला । कुली फ़िल्म तो ख़ैर दर्शकों के प्यार के नतीजतन बॉक्स ऑफिस पर सर माथे पर ही रही पर इस बहाने कुली का किरदार भी अमर हो गया ।

कुली के इस किरदार की याद सबसे ज़्यादा मुझे अभी हाल ही आयी जब एक प्रवास में पुणे जाने का मौक़ा आया । हुआ यूँ कि कोविड काल में कई महीनों से मिली वर्क फ्रॉम होम यानी घर से ही नौकरी करने की सुविधा समाप्त होने के बाद जब बेटे को अपनी नौकरी करने पूना जाना अनिवार्य हो गया तो उसकी माँ को चिंता हुई कि उसकी गृहस्थी पूना जाकर कैसे जमेगी ? लिहाज़ा हम दोनों ही उसके साथ पूना रवाना हुए । स्थायी रूप से किसी शहर में रहने के लिए जो ढेर सारा सामान होता है , उसे साथ लिये जब हम पुणे रेलवे स्टेशन पर उतरे तो मुझे भान हुआ कि उतरते ही स्टेशन पर सहज उपलब्ध हो जाने वाला कुली अब आसानी से नज़र नहीं आ रहा है । जैसे तैसे सामान उतार कर कुछ देर तो प्रतीक्षा की कि कोई भारवाहक भाई मिल जाय , पर जब कोई नज़र नहीं आया तो मैं रेलवे स्टेशन के दूसरे सिरे तक कुली को ढूँढते हुए चला गया । पूरे प्लेटफ़ार्म को पार कर जब मैं एकदम किनारे पहुँचा तो एक के बजाय दो कुली भाई मिल गये । मैंने उनसे कहा कि आप दोनों ही चलो सामान ज़्यादा है , तो उनमें से एक ने कहा कि उनके पास ट्रॉली है और एक ही पर्याप्त है । प्लेटफ़ार्म पर अपने डिब्बे के सामने जाने के दौरान मैंने उससे पूछा कि क्या कारण है अब स्टेशन पर कुली बड़ी मुश्किल से मिल पाए ? उसने छूटते ही कहा पहली बात तो ये कि अपने बच्चों को हम इस काम में डालना नहीं चाहते , और दूसरी बात ये कि सभी सूटकेसों और बैगों में जो चक्के लग गये उसने हमारे रोज़गार पर बड़ा असर डाला है , सारे लोग अपना सामान ख़ुद ही लुड़का कर के जाते हैं , इसलिए अब तो ट्रॉली में ले जाने लायक़ सामान के लिए ही हम उपलब्ध होते हैं । मुझे उसके तर्क माकूल लगे , साथ ही यह भी ध्यान आया कि नये जमाने की आपाधापी में कई छोटे छोटे कामधंधे वाले हमारे बीच से ग़ायब ही हो गये हैं । चप्पल-जूते सुधारने वाले , छाता सुधारने वाले , छुरी चाकू पर धार लगाने वाले , किताबों पर जिल्द चढ़ाने वाले , सायकल के टायर के पंचर सुधारने वाले , छोटे छोटे कारीगर न जाने कहाँ हैं । अब चीजों के टूटने फूटने पर उसे सीधे बदलने का रिवाज हो गया है ।

मुझे याद है हमारे घर में एक रेडियो हुआ करता था , किसी छोटे से टी. व्ही. के नाप का सा । घर के हर सदस्य के मनोरंजन की जवाबदारी उस अकेले रेडियो की ही थी । अम्मा के भजन उसमें आते , हम भाई बहनों के लिए रेडियो सीलोन और विविध भारती से प्रसारित फ़िल्मी गानों का आकर्षण रहता और क्रेज़ रहता बिनाका और बाद में सिबाका गीत माला के प्रसारण का भी । अलबत्ता जैसे ही हम बाबूजी की पदचाप सुनते फ़िल्मी गानों को बंद कर घर के अंदर भाग जाते । बाबूजी के आने के बाद रेडियो में बी. बी. सी. लंदन से आने वाली खबरों का एकाधिकार हो जाता था । न जाने कितनी बार वो रेडियो बिगड़ा पर हर बार किसी नुक्कड़ की दुकान से बाबूजी उसे सुधरवा कर ले आते , पर हर शय की एक उम्र तय है , तो बहुत सालों बाद जब मेरी नौकरी लग गई , और मेरे पास टी.व्ही. आ गया , एक दिन वो रेडियो जो बिगड़ा तो सुधरा ही नहीं । बाबूजी जब भी डोंगरगढ़ आते , मैं उनसे टी.व्ही. देखने का इसरार करता , जिसमें तब खबरों के नाम पर दूरदर्शन की खबरें ही हुआ करती थीं , पर वे टी.व्ही. बेमन से ही देखते थे । समय गुज़ारने के लिए उन्हें दूरदर्शन के बजाय गुरुदत्त और चतुरसेन के नावेल पढ़ना ज़्यादा मुफ़ीद था । एक दिन किसी सरकारी काम से मेरा रायपुर जाना हुआ , तो सोनी कंपनी का एक छोटा ट्रांजिस्टर मैं ले आया । देखने में छोटे से इस ट्रांजिस्टर का रिसेप्शन ग़ज़ब का था । बाबूजी को जब मैंने उसे दिया , और उसे चलाने की तकनीक नुमाइश की तो उनके चेहरे पर ख़ुशी का एक अलग ही रंग था , मैंने महसूस किया कि रेडियो की कमी बहुत हद तक उस ट्रांजिस्टर ने दूर कर दी थी ।