मध्यप्रदेश में नगरीय निकाय चुनावों में मतदान में कमी भाजपा के लिए गहरी चिंता का सबब है। इसलिए नहीं कि इससे उसकी हार-जीत के प्रभावित होने के संकेत मिल रहे हैं! बल्कि, जिस कार्यकर्ता के दम पर भाजपा सत्ता में बरसों काबिज़ रहने का दम्भ भरती है, वह कार्यकर्ता ही अब निष्क्रिय और गैर ज़िम्मेदार हो गया।
लम्बे समय सत्तासीन रहने के चलते कांग्रेस के कार्यकर्ता में जो अलाली आई वह अल्प समय में ही भाजपा में आ चुकी है। यह कह सकते है कि भाजपा कार्यकर्ताओं का कांग्रेसीकरण हो चुका है। सेंव-परमल खाकर साइकिल पर पार्टी का झंडा थामने वाला भाजपा (पूर्व में जनसंघ) कार्यकर्ता अब सुविधाभोगी हो गया! एयरकंडीशन ऑफिस में बैठना, महंगी लक्ज़री गाड़ियों में घूमना उसकी फ़ितरत हो गई है।
उसे चेहरों की राजनीति ने और भी गैरज़िम्मेदार बना दिया है। सिंगल-इंजन, डबल इंजन के जुमलों में अब वह मानकर चल रहा है कि उसके बिना भी भाजपा की ट्रेन सत्ता के गंतव्य तक पहुंचेगी ही। लोग मोदी-शिवराज के नाम पर वोट देंगे। बाकी रही सही कसर हिंदुत्व के नाम पर पूरी हो जाएगी, तब मतदाता की ख़ुशामद की क्या ज़रुरत! भाजपा को यदि लम्बे समय सत्ता पर काबिज़ रहना है, तो उसे सिंगल इंजन, डबल इंजन के बजाय सेल्फ़ स्टार्ट इंजन की ज़्यादा जरुरत है।
भाजपा ने नगरीय निकायों के चुनाव के लिए जो रणनीति बनाई थी उसमें एक-एक बूथ तक मतदाता को लाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। यह व्यवहारिक रूप से संभव होता, तो मतदान 90% होता। लेकिन, भाजपा की सारी रणनीति कागजों या लैपटॉप तक ही सिमट कर रह गई। उसका मैदानी तौर पर क्रियान्वयन ही नहीं हो पाया।
इसके पूर्व मतदाता तक जो मतदान की पर्चियां घर -घर पहुँचाने की जिम्मेदारी का निर्वहन होता था, वह भी अब प्रशासनिक अमले के भरोसे रहने से कई घरों तक महापौर या पार्षद प्रत्याशी तो ठीक कार्यकर्ता तक नहीं पहुंच सके! महज़ वाट्सएप या रोड़ शो में उपस्थिति दिखाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली गई।
कांग्रेस के लिए यह सवाल इसलिए नहीं उठता कि वहां कार्यकर्ता जैसी कोई व्यवस्था ही आकार नहीं ले पाई। जो प्रत्याशी होता है उसे ही सारा प्रचार का जिम्मा उठाना पड़ता है। लगभग यह किसी के घर की शादी जैसी ही स्थिति होती है। मतदान केंद्रों तक पर किराये के आदमी बैठाने पड़ते है। बिना पैसे के कांग्रेस में कोई कार्य ही आगे नहीं बढ़ता। यह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाला हर व्यक्ति बखूबी जानता है। वैसे भी कांग्रेस पुरुषार्थ के बजाय भाग्य के सहारे ही चुनाव जीतने के सपने देखने लगी है, यह बीते चुनाव का अनुभव बताता है।