देव साहब ने सिनेमा में नायक को दी नई परिभाषा

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ये बात उन दिनों की है जब भारत का बंटवारा नहीं हुआ था। 10 साल का बालक जिसका नाम धरम
था, गुरदासपुर की गलियों में दोस्तों के साथ खेला करता था। सिनेमा माध्यम का विकास हुआ नहीं था
लेकिन उसके तिलिस्म से लोग प्रभावित रहते थे। लाहौर के सिनेमा घर में जाकर शहरी लोग तो मनोरंजन
कर लेते थे लेकिन एक-एक पाई घर की जरूरी चीजों के लिए बचाकर जिंदगी चलाने वाले लोग सिनेमा को
एक स्वप्न ही मानते थे। उस दौर में यदि कोई गांव-खेड़े से शहर पहुँचकर सिनेमा देखने चला भी जाए तो
अलग पहचान में आ जाता था। ऐसा ही कभी धरम ने भी किया। इसी तरह कुछ चिल्लर जमा कर लाहौर
तक पहुँचे। सिनेमा देखने का शौक पूरा करने के लिए शहर में आए इस बालक को सभी दर्शक विस्मय से
देख रहे थे। लेकिन धरम को इससे कोई फर्क न पड़ा। उसकी आँखों में चमक थी, मन में एक भरोसा था
और एक तरह से खुद पर यकीन था कि वो जो कर रहा है, उसमें कुछ भी गलत नहीं है।
ऐसा कह सकते हैं कि इस ज़ज्बे ने ही धरम को आगे चलकर देवआनंद बना दिया। हम सभी जानते
है कि अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में जन्में धरमदेव पिशोरीमल आनन्द ने अभिनय, फिल्म निर्माण
और निर्देशन तीन क्षेत्रों में हाथ आजमाया। लेकिन वे सबसे ज्यादा अभिनय में ही कामयाबी पा सके। फिल्म
हम दोनों जिसमें देव आनन्द दोहरी भूमिका में थे, अपनी यादगार फिल्मों में शामिल करते थे। इस फिल्म में
साधना और नंदा दो अभिनेत्रियां थीं। वर्ष 1962 के 50 बरस बाद वर्ष 2011 में उनके लिए हम दोनों की
रंगीन फिल्म का निर्माण एक अनोखा अनुभव रहा। दरअसल देव आनन्द हम दोनों में भावनात्मक रूप से
जुड़े थे। यह श्वेत-श्याम फिल्म जब बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में ले जाई गई थी तब फिल्म की दोनों
अभिनेत्रियां साधना और नंदा उनके साथ समारोह में शामिल हुई थीं। देव आनन्द ने वर्ष 2007 में प्रकाशित
अपनी आत्म कथा रोमांसिंग विद लाइफ में इसका जिक्र भी किया है। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की यादों को
उन्होंने अपनी पुस्तक में काफी स्थान दिया है।

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वर्ष 1946 से 2005 तक 60 साल तक अभिनय की पारी खेलने वाले देव आनन्द की विशेषता यह
थी कि वे अनेक फिल्मों में नई और अपनी आयु से काफी कम आयु की अभिनेत्रियों के साथ आए। कमसिन
अभिनेत्रियां भी स्वाभाविक रूप से देव आनंद को पसंद करती थीं। मानो देव साहब के जादुई व्यकित्व पर
मोहित हो जाती थीं। शुरूआती दौर में सुरैया, शीला रमानी, वहीदा रहमान, साधना, वैजयंती माला, नंदा,
जीनत अमान और मुमताज उनकी अभिनेत्रियां रहीं। इसके बाद टीना मुनीम के साथ देस परदेस फिल्म काफी
चर्चित रही। देव आनन्द की बहुत लोकप्रिय फिल्मों में काला पानी, टेक्सी ड्राईवर, गाइड, ज्वेल थीफ, मुनीम
जी, सी.आई.डी., पेइंग गेस्ट, हरे राम हरे कृष्णा, जॉनी मेरा नाम आदि शामिल हैं। इंग्लिश लिटरेचर में लाहौर
से ग्रेजुएट देव आनन्द को भारतीय सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान के लिए पद्मभूषण और फालके अवार्ड से
सम्मानित किया गया। अंग्रेजी साहित्य में वो खूबी है जो किसी पाठक को पढ़ते रहने के लिए विवश करता
है। यदि आप एक बार शेक्सपियर उठा लें, तो खत्म करके ही छोड़ेंगे। देव साहब भी सिरहाने कोई न कोई
किताब रखा करते थे।

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भारत में आज़ादी के बाद सिनेमा के दीवानों के किस्से हजारों हैं। अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के घर के
बाहर कई दिनों तक धरना जमाए बैठ जाना, उनकी फिल्मों के गीत गाना, गुनगुनाना और यहाँ तक कि
चाहने वालों ने यह भी किया कि मुलाकात न होने पर आमरण अनशन तक किया। अभिनेताओं का दिल

पसीज जाता था और वे चाहने वालों को दर्शन दे देते थे। अभिनेत्रियां इस मामले में थोड़ी रिजिड मानी गईं।
वे टस से मस न होतीं। बताते हैं कि कुछ दीवानों ने तो दम तक तोड़ दिया था।
उसी दौर में देश विभाजन से विस्थापित देव साहब का दीवाना भी एक विस्थापित ही हुआ। बड़ी
अनोखी दास्तान है। मेरे शहर भोपाल का किस्सा है। ज्यादा तफसील से तो नहीं लेकिन छोटे में बताना
चाहूँगा। यह बात उन दिनों की है जब लोग फिल्म देखने एक मील लम्बी लाईन में भी लग जाया करते थे।
उस जमाने में हर भारतीय युवक देव आनन्द की स्टाइल का मुरीद हो गया था। भोपाल के पत्रकारिता से जुड़े
एक युवक ने देव आनंद के प्रति अपनी दीवानगी का इजहार किया। वे वर्षों तक मुम्बई जाकर देव साहब के
घर जन्म वर्षगांठ की बधाई देते थे। एक साल उन्होंने देव साहब का जन्मदिन भोपाल में मनाने में का इरादा
किया। देव साहब भी इस आमंत्रण को ठुकरा न सके। अब सवाल यह उठा कि क्या वे ट्रेन से 15 घण्टे का
सफर तय कर भोपाल आएंगे, या फिर मध्यप्रदेश की सरकार उनके आने-जाने का खर्चा उठाएगी। दीवाना तो
घर से इतना समर्थ न था कि अपनी दम पर देव साहब को बुलवा सके। फिर मध्य मार्ग चुना गया। मुम्बई
से इंदौर तक देव साहब अपनी तरफ से और इंदौर से भोपाल तक सरकार के जहाज से भोपाल पहुँचे। जी हाँ,
मध्यप्रदेश के भोपाल नगर में साल 1997 में देव आनन्द अपने प्रशंसक राजेश उधवानी गाइड के आमंत्रण
पर विशेष रूप से आए थे। तब लाल परेड ग्राउण्ड पर राजधानी वासियों ने उनका हृदय से स्वागत किया था।
आलम यह था कि मंच पर देव साहब का स्वागत करती भीड़ ने उन्हें भोपाल बुलवाने वाले राजेश जी को ही
पीछे धकेल दिया था। इस बीच राजेश जी की बच्ची यह दृश्य देख आंसू बहाने लगी। फिर क्या हुआ कि देव
साहब ने पूरा मामला भांप लिया। वे भीड़ से खींचकर अपने दीवानें को सामने ले आए। बड़ा भावनात्मक
संबोधन देने के बाद देव साहब ने कहा कि वे भोपाल को कभी भूल न पाएंगे। ग्राउण्ड पर जमा जन-समुदाय
देव साहब को अपने बीच पाकर अभिभूत था। इस पूरे प्रसंग में महत्वपूर्ण यह है कि देव साहब ने मुम्बई के
मुकाबले एक छोटे शहर भोपाल में अपने मध्यवर्गीय प्रशंसक के अनुरोध को माना और एक दिन का समय
निकाला। कहना न होगा कि यह भावना बहुत मायने रखती है यदि आज के समय को देखें और बॉलीवुड के
आधुनिक सेलिब्स की बात की जाए। अब तो दो धारावाहिक और चार फिल्म में काम करने वाला आर्ट‍िस्ट
भी बहुत इतराने लगा है। शीर्ष पर रहकर सादगी मिसाल देने का काम किया था देव साहब ने।
बताते हैं कि देश के बंटवारे के बाद देव साहब बहुत मायूस हो गए थे। एक वतन के दो हिस्से हो
चुके थे। देव साहब के बहाने आप यदि गौर करें तो पाएंगे कि सिंधी, पंजाबी, बांगला और उर्दू भाषी ऐसे
तमाम फिल्मकार मुम्बई आकर बहुत कामयाब हुए, अपनी भावाभिव्यक्ति के कारण। वजह, मुल्क के
विभाजन ने जो दर्द दिल में पैदा किया, वो चेहरे पर भी आया और उन्हें सबसे अलग बना गया। दिलीप
कुमार, राजकपूर भी इसी श्रेणी के कलाकार हो गए। बलराज साहनी ने फिल्मों में जिन विशेष भाव-भंगिमाओं
के साथ अभिनय की पारी खेली, क्या आपको जमीन के टुकड़ों-टुकडों में बंट जाने की वेदना से रूबरू नहीं
करवाती ॽ देव साहब ने लुटे-पिटे परिवारों के साथ एक नए मुल्क और नई जमीन में प्रवेश किया तो दो जून
की रोटी की समस्या सामने थी। परिवार बदहाल था। शरणार्थी शिविरों में लोग-बाग समय बिता रहे थे। काम
धंधे की तलाश जोरों से चल रही थी। तभी किसी ने उस पंद्रह साल के किशोर धरम को मुम्बई में मिलेट्री
सेंसर ऑफिस में छोटी सी नौकरी मिली। डेढ़ सौ रूपए महीने की पगार थी। स्टूडियो-दर-स्टूडियो भटकते
मुकाम मिला। प्रभात टाकीज की फिल्म हम एक है में काम करने का मौका मिल गया। बहुत मेहनत के
साथ बहुत जिल्लत भी हिस्से में आई थी लेकिन धरम देव आनंद निराश-हताश न हुए। उनके दो भाई चेतन
आनंद और विजय आनंद भी सिनेमा संसार के प्रवेश द्वार पर खड़े थे। दो-तीन बरस में प्रतिभा सभी को
नज़र आने लगी। बात फिल्म कंपनी बनाने तक पहुँच गई। नवकेतन के नाम से बनी इस नई कंपनी मेंफिल्म निर्देशक के रूप में देव साहब ने अपने मित्र गुरूदत का चयन किया। दो साल बाद 1951 में बाजी का
निर्माण हुआ, जो कामयाब भी हुई। करीब बीस फिल्में खाते में थीं, जिनके अभिनय की दुहाई दी जा सकती
थी। राई, आंधियां, जाल, तमाश, जलजला, स्टेज, निराला, हिन्दुस्तान हमारा, खेल, शायर, हम भी इंसान है,
कश्ती, अरमान, हम सफर और पतिता जैसी फिल्में आती रहीं, थोड़ी बहुत चलती रहीं। धमाका हुआ 1955 में
आई टैक्सी ड्रायवर से। देव साहब ने बाद में अभिनेत्री कल्पना कार्तिक से शादी भी रचाई। नौजवानों के
आदर्श बनते जा रहे देव साहब लोकप्रियता की ऊँचाईयों को स्पर्श करने लगे। कामयाब फिल्मों की बात करें
तो मुनीम जी, सीआईडी, पेइंग गेस्ट, कालापानी, फंटूश, मिलाप, बारिश और अमर दीप को गिना जा सकता
है। देव साहब के चेहरे पर सफलता की चमक स्पष्ट दिखाई देने लगी थी।

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जिंदगी में साथी, हमराही और हमसफर बनते-बिगड़ते रहते हैं। देव साहब जिस मिजाज के इंसान थे
उनसे हर कोई यूं जुड़ जाता था मानो उनके लिए ही वे बने हों। देव साहब ने सुरैया के साथ आधा-दर्जन
फिल्में कीं। दक्षिण भारत से आने वाले जाने-माने लेखक आर.के.नारायण की कहानी पर बनी गाइड फिल्म ने
देव जी को आसमान की ऊँचाईयों पर बिठा दिया। अपार लोकप्रियता हासिल करने वाली इस फिल्म की
अदाकारा वहीदा रहमान आज भी उन यादों को जीती हैं। देव साहब ने गाइड में जो भूमिका की वो हिन्दी
सिनेमा का यादगार दस्तावेज है। आप याद कीजिए वो दृश्य जब नायिका रोजी खुदकुशी करने की ओर बढ़ती
है और नायक राजू उसे समझाइश देता है कि जिंदगी के जो ख्वाब आपने पाले हैं, उसे पूरा करने के लिए
जिंदा रहना होगा। बाद में नायिका को शेल्टर देने, उससे अलगाव और फिर जुड़ाव के बीच कहानी को
दिलचस्प बनाने में देव आनंद की लगन को सबने खूब समझा था। ऐसा कहा जाता हैक एक उत्कृष्ट
कथानक के, उत्कृष्ट अदाकार के साथ उत्कृष्ट फिल्मांकन का एक खास उदाहरण है – फिल्म गाइड
प्रेम पुजारी, जानी मेरा नाम, हरे राम हरे कृष्णा, ज्वेल थीफ, मेरे सपने तक अलग तरह का सिनेमा
बन रहा था। अब देव साहब ने ट्रेंड बदलने का विचार किया। इस विचार को अमल में लाकर टीना मुनीम की
खोज की और 1978 में देस-प्रदेस बना डाली। ताज्जुब की बात है, यह फिल्म चल निकली। न जाने क्यूं,
किसी सनक का शिकार होकर देव साहब ने एक पॉलिटिकल पार्टी – नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया बना डाली थी,
जो न चलना थी, न चली। लेकिन देव साहब को कोई रंजो गम न था। खोने को कुछ था नहीं। सिनेमा-संसार
में तो जगह आरक्षित-सुरक्षित थी ही। भले ही जीवन के आखिरी सालों तक कुछ चलताऊ फिल्मों में काम
किया। दर्शक तो देव साहब के नाम से खिंचे चले आते थे।

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इस खिंचे चले आने के पीछे भी कुछ बातें हैं जो देव साहब को बाकी अभिनेताओं से अलग करती हैं।
सदाबहार और रोमांटिक अभिनेता कहे जाने वाले देव साहब ने अपनी वॉडी लैंग्वेज से अलग पहचान तो बना
ही ली थी, चौकड़ी वाली कैप और भांति-भांति की जैकेट्स ने उनके लुक को खास बना दिया था।
लम्बी सांस के साथ सतत संवाद, ब्लेक के प्रति आकर्षण, मानवीय दृष्टिकोण, तगड़ी याददाश्त, फूल
देकर जाने-अनजाने लोगों का आत्मीय स्वागत करना और साथी कलाकारों के साथ परिजन की तरह बर्ताव के
गुण देव साहब को अलहदा इंसान का दर्जा देने के लिए काफी हैं। इन पंक्तियों के लेखक को देव साहब के
साथ तीन फिल्मों में अभिनय कर चुकी मशहूर अदाकारा साधना ने बताया था कि असली-नकली और हम
दोनों के फिल्मांकन के दौर को वे कभी नहीं भूल सकतीं। एक इंसान न होकर मानो वे ईश्वर का रूप थे,
जिनकी आराधना की जाना चाहिए। साधना ने प्रफुल्लित होते हुए यह बताया था कि "मैं हकीकत में उन
सालों में देव साहब की पूजा ही किया करती थी।'' साधना जी ने यह भी बताया जब हम दोनों रंगीन का
निर्माण हुआ तो वे उसके प्रीमियर में देव साहब द्वारा वे विशेष रूप से आमंत्रित की गईं। लेकिन गईं
इसलिए नहीं, क्यूंकि अपनी ही जिद थी, पब्लिक आईस में आना नहीं है। फोन पर देव साहब से यह बात

बताकर जब माफी मांगी थी तो उन्होंने कहा था कि "आप आ जातीं तो खून बढ़ जाता, कोई बात नहीं,
चलिए माफ किया।'' इस तरह देव साहब अपना स्वार्थ न देखकर दूसरे की भावना का सम्मान करते थे।
साधना जी ने इन पंक्तियों के लेखक को यह भी बताया कि देव साहब को एक अफसोस उनके साथ बनने
वाली फिल्म साजन की गलियां (अनरिलीज्ड) के पूरा न होने का भी था। इस फिल्म में देव-साधना पर एक
खूबसूरत गीत फिल्माया गया था, जिसके बोल थे – हमने जिनके ख्वाब सजाए, आज वो मेरे सामने है…।
इस नगमे को मोहम्मद रफ़ी ने आवाज दी थी। परदे पर फिल्म जरूर न आ सकी, पर गीत तो रेडियो पर
खूब बजा था। गीत का फिल्मांकन भी बे-जोड़ था। शंकर जयकिशन का बेहद असरदार संगीत था। खासकर
गीत के अंत में नायिका के दोनों पैरों की पायल के टकराने से निकले स्वर का जादू श्रोताओं को एक अलग
दुनिया में ले जाता है। जीप चलाते देव साहब अपने विशेष अंदाज में गाते हैं, नायिका साधना जीप के बोनट
पर देव साहब के व्यक्तित्व को निहारती मंत्र-मुग्ध होकर अदाओं के साथ मुस्कराती हैं। सोचता हूँ, साधना
जी ने जिस तरह इस गीत को बातचीत में बयां किया था, उस तरह कितने ही गीतों पर कितनी ही
नायिकाओं ने रील लाइफ के बाद रियल लाइफ में भी जिया ही होगा।
ऐसा बताते हैं कि देव आनन्द को अपनी मौत का आभास हो गया था। इसके जान वे अंतिम समय
बिताने इंग्लैंड चले गए थे, जहां 88 बरस की आयु में उन्होंने तीन दिसंबर 2011 को आखिरी सांस ली थी।
आज जब बॉलीवुड में अनेक नए अभिनेता एंट्री ले रहे हैं और साल में दस-पन्द्रह फिल्में तक हथिया लेना
चाहते हैं तब देव आनन्द जैसे अभिनेता याद आते हैं जो फिल्म निर्माता से पूरी पटकथा और अपनी भूमिका
जानने के बाद फिल्म में काम करने का फैसला लेते हैं। भारतीय सिनेमा में स्वत्रंतता के बाद सबसे ज्यादा
कामयाब दस अभिनेताओं में देव आनन्द शुमार थे। उन्होंने आधी शताब्दी तक बड़े पर्दे पर सम्मानजनक
स्थान बनाया। आज भी जब उन पर फिल्माए यादगार गीत या उनकी अभिनीत फिल्में टी.व्ही. चैनल्स पर
आती हैं कम से कम चालीस वर्ष से अधिक आयु वाले दर्शकों के हाथ में रिमोट स्थिर हो जाता है और वे
आधी-अधूरी ही सही देव आनन्द की फिल्म जरूर देखना चाहते हैं। शायद कोई जीवन दर्शन देव साहब की
फिल्मों में नज़र आता है। यही देव आनन्द की असल कामयाबी है।
(लेखक  रंगमंच, कला और सिनेमा पर शौकिया लेखन करते हैं।)