देवोत्थानी एकादशी 

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देवोत्थानी एकादशी 

उषा सक्सेना

कार्तिक माह शुक्ल ‌पक्ष‌ की देवोत्थानी का दूसरा नाम ग्यारस है ।इसे देव प्रबोधिनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है । चारमाह चातुर्मास पाताल के राजा बलि के बंधन में रहने के बाद लक्ष्मी जी दैत्यराज बलि को अपना भाई बनाने के बाद ही उन्हें उस बंधन से मुक्त करा पाई थीं । विष्णु जी को उनका साम्राज्य सौंप कर शिव जी भार मुक्त हो गये ।

आज से सभी शुभ कार्य संसार में जगत के पालन हार के आजाने से प्रारम्भ हो गये ।यह एक अबूझ मुहूर्त होता है । सर्वप्रथम विष्णु जी का ही विवाह तुलसी के साथ होता है । जिसके लिये गन्ने का मंडप बना कर चौक पूरकर बड़ी धूमधाम से तुलसी मैया का विवाह उनके साथ करते हुये शंखनाद किया जाता है ।जिसके बाद कहा जाता है *उठो देव बैठो देव ,कुंवारिन के विवाह करो ,ब्याहन के चलाय करो ।*

पहले कम उम्र में विवाह कर दिये जाने के बाद जब लड़की बड़ी होजाती थी तभी उसका शुभ मुहूर्त में ससुराल जाती थी ।चलाय का अर्थ है दूसरी बिदा

से था । इसतरह लक्ष्मी जी के साथ ही वृंदा केशाप से शालिग्राम हुये विष्णु का विवाह वृंदा के तुलसी रूप में उगने पर उनके साथ हुआ । विष्णु का अर्थ है विश्व के कण-कण में जो व्याप्त है ।तुलसी पावन पवित्र औषधीय गुणों से युक्त पौधा जिसके विना भगवान भोग ग्रहण नही करते।उनके भोग में तुलसी अनिवार्य ‌है ।यहतुलसी का महत्व है ।

इस एकादशी का व्रत व्यक्ति के जीवन में किये सभी पापों का विनाश ‌करने वाला है । लक्ष्मी जी का इसव्रत को करने वाले को आशीर्वाद प्राप्त होता है ‌

इस व्रत में दानकिसबसे अधिक महत्व है । कार्तिक स्नाऊ करने वाली महिलाओं के द्वारा आज के दिन विशेष रूप से गाय के दूध से ठाकुर जी को स्नान करवाने के पश्चात उन्हें नये वस्त्रपहना कर एकदूल्हे के रूप में सजाकर बाकायदा तुलसी मैया को चुनरी उढ़ा कर उन्हें श्रृंगू की सामग्री समर्पित ‌करते हुये‌

रात्रि को दीपावली की तरह दीपक जलाकर उनका विवाह गांठ जोड़ कर किया जाता है । इसके बाद उनकीविदाई के। लिये शुद्ध घी की डलिया जिसमें लडडू ,गुझिया ,लोलकुचैया ,माठे

खाकरा आदि सभी बना कर कार्तिक पूर्णिमा को उनकी बिदाई की जाती है ।बामें वह सब सामान प्रसाद के रूप में सभी को वितरित कर दिया जाता है ।

इस तरह तुलसी विवाह की परम्परा है ।

ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय।