धीरेन्दु मजूमदार की मां…और मां से भी बड़ा देश…

462

धीरेन्दु मजूमदार की मां…और मां से भी बड़ा देश…

मां और बेटे के बीच संवाद होता है। यह संवाद आजादी के पहले अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष के समय का है। बांग्लादेश स्थित चट्टगांव के रायबहादुर साहब का बेटा आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों का साथ देता है और खुद क्रांतिकारी है। और इससे बेखबर रायसाहब अंग्रेजी हुकूमत के संग है और चाहते हैं कि बड़ा बेटा धीरेन्दु आईसीएस की परीक्षा पास कर घर की दौलत और रुतबा में चार चांद लगाए। पर बेटा ने अपनी राह चुन ली और उसकी मां शांति मजूमदार जिसने कभी हवेली से बाहर कदम नहीं रखा, उसे भी तब पता चलता है जब बेटा प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्य सेन ‘मास्टर दा’ को घर में गलत पहचान बताकर मां की सहमति से शरण दे देता है। पर मास्टर दा घर से जाते समय मां को सब कुछ सच-सच बता देता है। और मां जब बेटे से कहती है कि मां दे‌श नहीं है, मां का दिल है, दर्द भी होता है। तब बेटा मां को बताता है कि देश की करोड़ों मांओं से बड़ी भारत मां है। जिसकी आजादी का काम सबसे बड़ा है। और तब मां को अपने बेटे पर गर्व होता है और वह हर कदम पर बेटे का साथ देती है रायसाहब को बताए बिना। रायसाहब को जब पुलिस कमिश्नर बेटे धीरेन्दु के मुलजिम होने की बात बताते हैं तो वह उस दिन से ही बेटे को मरा हुआ मान लेते हैं। एक दिन बेटा धीरेन्दु अपनी मां को बताता है कि वह देश की आजादी के लिए कभी भी शहीद हो सकता है। और मां से शहादत पर आंसू न बहाने और वंदे मातरम् का उद्घोष करने की बात भी कहता है।
IMG 20230129 200240
मां की बेटे के प्रति ममता का अनुपम उदाहरण है नाटक ‘धीरेन्दु मजूमदार की मां। मां शांति मजूमदार रायबहादुर के कहने पर भी घर आने वाले कमिश्नर को घर के दरवाजे तक स्वागत करने नहीं जाती, सिर्फ इसलिए कि घर की महिलाएं अंदर ही मेहफूज हैं। वहीं जब एक दिन पुलिस कमिश्नर हवेली पहुंचकर रायसाहब को धीरेन्दु की मौत की खबर देते हैं और शव की शिनाख्तगी के लिए रायसाहब यानि धीरेन्दु के पिता से अनुरोध करते हैं तो राय साहब जाने से यह कहकर इंकार कर देते हैं कि धीरेन्दु उनके लिए पहले ही मर चुका है। कमिश्नर जाने को होते हैं तो मां शांति मजूमदार उन्हें रोकती हैं और खुद बेटे‌ के शव की शिनाख्तगी करने जाती है और बेटे की इच्छा के अनुरूप वंदेमातरम का उद्घोष भी करती है। और उसके बाद मां खुद क्रांतिकारी बन जाती हैं और हवेली क्रांतिकारियों का मुख्य केंद्र बन जाती है। शांति मजूमदार के दूसरे सभी बेटे भी आजादी के लिए शहादत दे देते हैं। मां गांधी के साथ आजादी की लड़ाई में सहभागी बनती हैं और नोआखाली में जब गांधी जी जाते हैं तब भी उनके साथ जाती हैं।‌ मास्टर दा को भी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए 1934 में फांसी दे दी जाती है। पर मां का दर्द यह भी रहता है कि देश आजाद होता है, पर बंगाल के दो टुकड़े हो जाते हैं और पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बनकर उन्हें फिर दूसरी आजादी की लड़ाई लड़नी पड़ती है। आखिरकार शेख मुजीबुर्रहमान के संघर्ष और भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सहयोग से बांग्लादेश को आजादी मिल जाती है। पर इस दौर में बहुत सारे बांग्लादेशी भारत में शरणार्थी बनने को मजबूर हो जाते हैं। और अंत में खुद शरणार्थी बनने को मजबूर मां सवाल करती है कि दो-दो देशों की आजादी के बाद भी उसकी पहचान क्या है? बस एक शरणार्थी की।
इंदौर की इप्टा इकाई ने मलयालम की प्रसिद्ध लेखिका ललिताम्बिका अंतर्जनम की 1970 के दशक में लिखी गई इस कहानी पर केंद्रित एक नाटक लिखा है। इसका मंचन रविवार 29 जनवरी 2023 को रंग श्री लिटिल बैले ट्रुप के रागबंध प्रेक्षागृह में किया गया। नाट्य रूपांतरण व निर्देशन जया मेहता व विनीत तिवारी ने किया है। करीब 70 मिनट‌ के नाटक में फ्लोरा बोस का अभिनय हर दृष्टिकोण से प्रभावी है। फ्लोरा बोस ने जनसाधारण के बलिदान और आजादी के साथ मिले बंटवारे के दर्द को अति प्रभावी तरीके से अभिव्यक्ति दी है। क्योंकि बंटवारे के दंश भी आम आदमी को सहने पड़े। आजादी के अमृत महोत्सव में अपने सारे बच्चों की आजादी की लड़ाई में शहादत देने वाली धीरेन्दु मजूमदार की मां को नाटक मंचन के जरिए याद करना इप्टा का सराहनीय कार्य है। इप्टा की इंदौर इकाई, जया मेहता और विनीत तिवारी ने धीरेन्दु मजूमदार की मां के कंधे का सहारा लेकर नाटक का अंत देश में वर्तमान में पहचान के संकट‌ की चुनौती का सामना कर रहे बांग्लादेशी शरणार्थी, मुसलमान और शाहीन बाग की दादी और फातिमा, क्षेत्र में विकास के नाम पर अपनी पहचान खोने को मजबूर आदिवासियों के विषयों से जोड़कर किया है। और कहीं न कहीं इप्टा के वर्तमान उद्देश्य की पूर्ति का माध्यम नाटक को बनाया गया है। पर इससे धीरेन्दु मजूमदार की मां की कहानी का नाट्य रूपांतरण कहानी को उसकी मूल पहचान से भटकाने की कोशिश सी जरूर लगती है…। वैसे धीरेन्दु मजूमदार की मां की कहानी अपने आप में पूर्ण है और धीरेन्दु का कथन ‘मां से भी बड़ा देश है…’, आम आदमी का नाटक से सीधा संबंध बनाने में सफल है। नाटक में एकल अभिनय में मां के साथ-साथ चट्टगांव, नोआखाली, धीरेन्दु मजूमदार, मास्टर दा, गांधी जी, पद्मा नदी, संघर्ष और भारत और बांग्लादेश की आजादी, इंदिरा की भूमिका और अंत में शरणार्थी बनी मां के सवाल सब कुछ जीवंतता प्रदान करते हैं। और नाटक दर्शकों के दिल में स्थायी और प्रभावी जगह बना लेता है।