जिस अंदाज में इन दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान नौकरशाहों को नकेल डालकर चल रहे हैं,उनका यह रूप चौंकाने वाला है। इससे लग रहा है कि वे अपने ऊपर लगे उन आरोपों से किनारा करते नजर आ रहे हैं कि वे भाजपा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते हैं और नौकरशाहों पर मेहरबान व अवलंबित हैं। इसका यह संदेश भी उभरता है कि 2023 में विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में कराये जाने के लिये ऊपर से हरी झंडी दिखा दी गई है। हो सकता है, उन्हें बनाये रखने की शर्तों में एक यह भी हो कि वे यदि कार्यकर्ताओं की नाराजी दूर करने में कामया्ब हुए तो मुख्यमंत्री बनाये रखने पर विचार किया जा सकता है। जो भी हो, शिवराज इन दिनों मत चूके चौहान वाला रूप धारण कर चुके हैं। हाल ही में एक पुलिस अधीक्षक का निलंबन,एक कलेक्टर का तबादला और तीन खाद्य अधिकारियों के निलंबन ने उन्हें हंटर वाला नेता बना दिया।
बीते दो महीने शिवराज सिंह चौहान के लिये काफी बेचैनी के रहे। अभी-भी तसल्ली हो गई होगी,ऐसा पक्का तो नहीं, किंतु काफी हद तक आश्वस्ति नजर आने लगी है। कुल मिलाकर यह कि वे अपनी ओर से कसर तो नहीं छोड़ रहे। हालिया घटनाक्रम को देखें तो उनके तीखे तेवर का खौफ नौकरशाही पर तारी होता जा रहा है। सौम्य,सहनशील,उदार छवि प्रचारित राजनेता के तौर पर शिवराज को सख्ती बरतते देखना दिलचस्प तो है ही,इस नये स्वरूप के अलग-अलग मायने भी खोजे जाने लगे हैं।मार्च 2020 में हुए सत्ता हस्तांतरण के बाद फिर से मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह चौहान धीमे चलो, सुरक्षित पहुंचों की नीति अपनाये हुए थे। लोगों के बीच मामा की छवि को चमकाते हुए भी वे नौकरशाही के प्रति नरमी ही बनाये रहे। अपने मैदानी कार्यकर्ता से लेकर तो मंत्री स्तर तक के नेताओं की भी नौकरशाही के प्रति नाराजी को हमेशा शिवराज नजर अंदाज करते नजर आये। इससे कार्यकर्ता उनसे दूर भी हुआ और अपने क्षेत्र में थोड़ा कमजोर भी।
जब ये तमाम बातें ऊपर तक पहुंचने लगी तो माना जाने लगा कि आलाकमान उन्हें अगले चुनाव की कमान से वंचित करने का मन बना रहा है। उनके बदले सिंधिया के आगमन की सुहबुगाहट ने शिवराज सिंह चौहान को जहां असहज किया, वहीं सावधान भी किया। तब अपने प्रति उबरे गुस्से,असहमति के विश्लेषण में ही उन्हें सबसे बड़ी खामी संभवत: यह नजर आई हो कि नौकरशाही के प्रति ज्यादा झुकाव ने उन्हें कार्यकर्ताओं से दूर कर दिया है। इसके बाद ही उनके तेवर में गरमाहट घुली और एक के बाद एक कड़े फैसले लिये जाने लगे और कोई निलंबित तो कोई तबादले का शिकार हुआ।
शिवराज सिंह चौहान का यह बदला-बदला रूप यदि स्थाई भाव है तो उन्हें और भाजपा को भी इसका लाभ आने वाले समय में मिल सकता है। लेकिन, यदि यह दिखावटी है और इसमें निरंतरता की कमी रही तो चार दिन की चांदनी बेअसर हो जायगी। ऐसा भी नहीं है कि मुख्यमंत्री की इस कार्रवाई का एकतरफा स्वागत हो रहा है। इसमें नौकरशाही के नाराज हो जाने का पर्याप्त खतरा भी है ही। यदि यह तार्किक और नियम-कायदों के भीतर रहा तो नौकरशाही ज्यादा आवाज नहीं कर सकेगी, किंतु यह दिखावटी,तात्कालिक और राजनीतिक तुष्टिकरण के तहत हुआ तो इसका उलटा असर भी हो सकता है। साफ है कि इससे कर्मचारी-अधिकारी वर्ग के बीच असंतोष,नाराजी पनप सकती है। इसका जो असर 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के निपटने पर पड़ा था,उससे शिवराज भी शायद बच नहीं पायें। स्पष्ट है कि इस समय शिवराज सिंह दोधारी तलवार पर चल रहे हैं। राजनीति भी नट-नटनी के खेल से कम नहीं, जिसका खासा अभ्यास तो शिवराज को भी हो ही चुका है, लेकिन उसमें खतरा रस्सी से नीचे टपक पड़ने का भी रहता ही है। आप एक से दूसरे सिरे तक जाने में कामयाब हुए तो तालियां भी बजेंगी और टपक पड़े तो खिल्ली भी उड़ाई जायेगी ही।
दो राय नहीं कि शिवराज सिंह चौहान अनेक मोर्चों पर टक्कर ले रहे हैं। एक ओर कार्यकर्ता हैं, उन्हें साधना है। दूसरी ओर नौकरशाही है, जिससे काम भी लेना है और नकेल भी कसे रखनी है। तीसरी ओर सिंधिया खेमा है, जिसके मंत्री-विधायक मांगों-अपेक्षाओं का पिटारा खोले रहते हैं तो आलाकमान भी है, जो अगला चुनाव जीतने के लिये कोई रियायात देने को तैयार नहीं। इन सबसे हटकर भाजपा के कुछ वरिष्ठ साथी भी हैं ही, जो दम साधे खुद मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने को आतुर ते हैं ही, इसके लिये वे शिवराज की कुर्सी अस्थिर करने से भी पीछ नहीं हटने वाले। भाजपा के भीतर और विपक्ष में भी इंतजार इस बात का है कि इस दीवाली को कौन,किस तरह से मनायेगा। विपक्ष के हाथ कोई नया पटाखा लगेगा या पुराने पटाखे को फुस्सी बम करार देकर वे अपनी फुलझड़ी को सुतली बम समझ कर जलायेंगे?
मध्य प्रदेश का राजनीतिक और प्रशासनिक माहौल तो बता रहा है कि शिवराज सिंह चौहान की उम्मीदें काफी परवान चढ़ चुकी है। वे अवसर को अनुकूल बनाने में जी-जान से जुटे हैं। इतना तो सुनिश्चित है कि यदि वर्ष अंत तक वे पद पर बने रहे तो बचे महज ग्यारह महीने (नवंबर 2023 में विधानसभा चुनाव होंगे) के लिये हटाना बेहद जोखिम भरा हो जायेगा, जिसके लिये भाजपा आलाकमान कदापि तैयार नहीं होगा।