न कांग्रेस दूध की धुली और न ही भाजपा….

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पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण के मसले पर न कांग्रेस दूध की धुली है, न ही भाजपा। दोनों कटघरे में है और खुद को सुरक्षित रखने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं। पहले बात कांग्रेस की। मान लेते हैं कि कांग्रेस आरक्षण को लेकर कोर्ट नहीं गई थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी को आरक्षण के बिना पंचायत चुनाव कराने का निर्णय दिया तो कांग्रेस के वकील चुप क्यों रहे?

अब मानहानि के नोटिस देने का क्या औचित्य? भाजपा भी इसी रास्ते पर रही। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उसने चुप्पी साध कर रखी। भाजपा सरकार के वकील सुप्रीम कोर्ट में थे। फैसले पर पहले तो उन्हें तत्काल आपत्ति दर्ज कराना थी। वकील नहीं बोले कोई बात नहीं, अगले दिन तो पुनर्विचार याचिका दायर की जा सकती थी। कांग्रेस के हंगामे का इंतजार क्यों किया गया?

प्रदेश सरकार चाहती तो सुप्रीम कोर्ट का निर्देश आने के बाद ओबीसी सीटों को छोड़कर पंचायत चुनाव कराने का निर्णय ही राज्य निर्वाचन आयोग न लेता। लेकिन न जाने क्यों भाजपा हाथ पर हाथ रखे बैठी रही। अब भाजपा-कांग्रेस खुद को सबसे बड़ा ओबीसी हितैषी दिखाने का नाटक कर रहे हैं। दोनों दलों के नेताओं को समझना चाहिए कि जनता सब जानती है, उसे मूर्ख समझने की गलती नहीं करना चाहिए।

विधानसभा सत्र का चलना ‘चमत्कार’ जैसा….
– श्रेय विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम को दीजिए, विपक्ष के नेता कमलनाथ या मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को, लेकिन विधानसभा के शीतकालीन सत्र का पूरे समय चलना किसी चमत्कार से कम नहीं। सत्र के दो-तीन दिन से ज्यादा चलने की उम्मीद कोई राजनीतिक पंडित नहीं कर रहा था। मुद्दा भी ज्वलंत था। ओबीसी आरक्षण को लेकर तलवारें खिंची थीं। फिर भी चमत्कार हो गया।

सदन चला और जमकर चला। निश्चित तौर पर इसका सबसे ज्यादा श्रेय विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम को ही जाता है। दूसरा श्रेय नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ को मिलना चाहिए। उन्होंने न केवल सरकार को घेरा बल्कि सदन को चलने भी दिया। ओबीसी आरक्षण संबंधी स्थगन पर चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि जब मैं बोलूं तो सुनने के लिए बैठिएगा जरूर, कमलनाथ ने कहा बैठेंगे और सुनेंगे भी।

ऐसा ही हुआ, लेकिन कमलनाथ ने सरकार को कटघरे में खड़ा करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। उन्होंने हर दिन याद दिलाया कि आपने ओबीसी आरक्षण के बिना पंचायत चुनाव न कराने की बात सदन के अंदर कही थी, उसका क्या हुआ। सदन चलने का श्रेय सरकार को न देना भी नाइंसाफी होगी, क्योंकि सरकार न चाहती तो सदन नहीं चल सकता था।

चाहे जब जाग जाता है ‘गोपाल’ का जमीर….
– राजनीति में ऐसे नेता कम हैं जो अपने जमीर की भी सुनते हैं, लेकिन भाजपा के कद्दावर नेता, सरकार के पीडब्ल्यू मंत्री गोपाल भार्गव इनसे अलग हैं। पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण पर जंग के बीच भार्गव का जमीर जाग गया, वे पार्टी लाइन से अलग हटकर सच बोल गए। कह दिया कि कांग्रेस ओबीसी आरक्षण को खत्म कराने कोर्ट नहीं गई थी, मसला रोटेशन और परिसीमन का था।

बस क्या था, भार्गव अपनों से घिर गए। कांगे्रस ने उनके बयान को आधार बनाकर भाजपा सरकार पर हमला बोल दिया। भार्गव से जवाब तलब भी हुआ लेकिन कहते हैं ‘सांच को आंच नहीं’। उनका बाल बांका नहीं हुआ। इसी प्रकार भार्गव ने भाजपा संगठन को सलाह दी कि पंचायत चुनाव गैरदलीय आधार पर हो रहे हैं फिर भी पार्टी की ओर से एक परिवार से एक से ज्यादा सदस्य मैदान में नही होना चाहिए।

इससे वे पार्टी में कई नेताओं के निशाने पर आ गए। इससे पहले उन्होंने स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट को लेकर तीखी टिप्पणी कर दी थी। उन्होंने कहा था कि मंत्री होने के नाते मेरी कुछ मर्यादाएं हैं। अगले ही दिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सागर जाकर स्मार्ट सिटी से जुड़े अफसरों को लताड़ लगा दी। अर्थात जमीर की सुनकर भी राजनीति संभव है, चापलूसी ही जरूरी नहीं।

शिवराज के ‘संकटमोचक’ बन कर उभरे भूपेंद्र….
– मामला कांग्रेस विधायकों को तोड़ने का हो, सरकार बनाने का या आदिवासियों और ओबीसी को लेकर लड़ाई का, प्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के संकट मोचक की तरह डटे दिखाई पड़ते हैं। पंचायत चुनाव में ओबीसी के आरक्षण को ही लें, भूपेंद्र अन्य पिछड़ा वर्ग के सबसे बड़े पैरोकार की भूमिका में उभरे।

मुख्यमंत्री चौहान, प्रदेश सरकार और भाजपा के साथ कई नेता खड़े थे, सभी ने कांग्रेस को घेरा लेकिन भूपेंद्र सबसे अलग इसलिए थे क्योंकि वे जान और पद की परवाह न करते नजर आए। विधानसभा में उन्होंने कांग्रेस द्वारा दायर की गई याचिकाओं के बारे में बिंदुवार जानकारी देते हुए कहा कि यदि उनका कहा गलत पाया गया तो वे इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं। यह भी कहा कि वे ओबीसी के हितों के लिए जान तक की परवाह नहीं करेंगे।

साफ है, पिछड़ों के हित संरक्षण में वे उमा भारती और प्रहलाद पटेल को पीछे छोड़ते दिखाई पड़े। भूपेंद्र को मुख्यमंत्री चौहान का खास माना जाता है। इस भूमिका में वे खरा उतरने की कोशिश कर रहे हैं। आदिवासियों के मामले में भी वे सबसे आगे थे और कांग्रेस विधायकों को तोड़कर भाजपा की सरकार बनवाने में भी। इसीलिए उन्हें शिवराज का संकटमोचक कहा जाने लगा है।