
परिचर्चा: अपने बच्चों को उनके बचपन में मोबाईल पकड़ाने के बजाय उनके साथ खेले ,कहानियां सुनाये !
एक समय था जब हम बच्चों को कहानियां सुनाते थे ।उनके साथ खेलते थे ।आज जब हम बच्चों के साथ खेलने के समय में उन्हें कोई इलेक्ट्रानिक उपकरण भले ही वह बच्चों के लिए बनाया गया हो,पकड़ा देते हैं लेकिन क्या वह आपके बच्चे ओर आपके बीच वह रिश्ता जो साथ खेलने से बनता था वो बना सकता है।आज हमें इस विषय पर विचार भेजिए ।बच्चों को इन उपकरणों की आदत न डालें।उनके साथ खेलें या उन्हें नैतिक शिक्षा की कोई कथा सुनाए यह हमें भी नैतिक ज्ञान का स्मरण कराएगी।बच्चे से ज्यादा यह हमारे लिए जरूरी हो सकती है।कहानियाँ सुनाने से बच्चों को अलग-अलग जगहों, देशों और परंपराओं के बारे में जानने का मौका मिलता है। इससे उन्हें यह अनुभव करने का मौका मिलता है कि दूसरे लोग कैसे रहते हैं और उन्हें दूसरी संस्कृतियों का सम्मान करना सिखाता है। कहानी सुनाने से सहानुभूति भी विकसित हो सकती है, यानी दूसरों की भावनाओं को समझना।
1 .बच्चे नये-नये शब्दों को जानते हैं ,उनका प्रयोग करना सीखते हैं -शीला मिश्रा
बच्चों का मन कोमल होता है ,जो सुनते हैं,वह उनके हृदय में उतर जाता है और जो देखते हैं ,वह आँखों पर सदा के लिए कैद हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि बच्चों को ऐसी कहानी सुनाई जाये , जिसमें कोई सीख निहित हो, सदाचार का संदेश हो , नैतिक शिक्षा हो ताकि बच्चे मनोरंजन के साथ कुछ सीखें भी। कहानी को रोचक बनाने के लिए उसमें आश्चर्यजनक उतार-चढ़ाव व घुमाव शामिल किये जाते हैं , जिससे बच्चों में कहानी में आगे क्या होगा ,यह उत्सुकता बनी रहे। कहानियों के माध्यम से ही बच्चों की कल्पना शक्ति का विकास होता है। जब कभी कहानी सुनाने के बाद उनसे भी कहानी सुनाने को कहें तो वे अपनी कल्पना शक्ति का समुचित उपयोग कर एक कहानी सुना ही देते हैं भले ही वह छोटी सी हो ,बिखरी-बिखरी सी हो परन्तु वे प्रयास अवश्य करते हैं।

इससे उनमें कहन कला का भी विकास होता है। सबसे महत्वपूर्ण बात , बच्चे नये-नये शब्दों को जानते हैं ,उनका प्रयोग करना सीखते हैं क्योंकि रोजमर्रा की बातचीत में हम हिन्दी के बहुत से शब्दों का प्रयोग नहीं करते हैं किन्तु कहानी में ऐसे ही न जाने कितने शब्द अपने पूरे अर्थ के साथ शामिल हो जाते हैं। कहानी के माध्यम से बच्चे अपनी प्रकृति , संस्कृति व पर्यावरण को समझ पाते हैं ,जान पाते हैं विशेषकर वर्तमान समय में ,जब न तो गौरैय्या दिखतीं हैं न गिलहरी ,न तो कौआ दिखते हैं और न ही हाथी। अगर उन्हें ऐसे खिलौने दिये जायें जो उनके आसपास नहीं दिखते हैं और उससे संबंधित कहानी सुनाई जाये तो वे कुछ सीखेंगे और अगर उन्हें भी इन खिलौनों से संबंधित ही कोई कहानी सुनाने को कहें तो वे अवश्य ही कोशिश करेंगे। हाँ, मोबाईल से उनकी दूरी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि माता -पिता उनके साथ खेलें व समय बितायें।

आजकल तो बच्चे रिश्तों को भी पूर्णता से नहीं देख पा रहें हैं। कहीं मामा हैं तो मौसी नहीं है , कहीं बुआ है तो चाचा नहीं हैं। इन कहानियों के माध्यम से ही बहुत सारे रिश्तों की जानकारी बच्चों को दी जाती है । इसलिए कहानी एक ऐसा माध्यम है,जो बच्चों को बहुत सहजता व रोचकता से अपनी जड़ों से जोड़कर रखता है।
शीला मिश्रा
2 .इन सबका बहुत बड़ा कारण संयुक्त परिवारों का ख़त्म होना है–नीलम सिंह सूर्यवंशी
आज के समय में नई-नई बनी मांओं को देखकर ऐसा लगता है जैसे बच्चे पालना बहुत कठिन हो गया है। बच्चों के जन्म के साथ ही एक आया आ जाती है। थोड़ा भी बच्चा रोया तो आया उठा लेती है और मोबाइल में कोई गाना बजा देती है। बच्चा तुरंत चुप हो जाता है।
बच्चा स्कूल जाने लगा तो बच्चे का नहीं, मांओं के बीच एक अजीब तरह का कंपटीशन देखने को मिलता है — जैसे, उसका बच्चा फर्स्ट कैसे आया, मेरा बच्चा क्यों नहीं?बचा-कूचा बचपन मोबाइल, लैपटॉप, वीडियो गेम और टीवी ने ले लिया है।
इन सब चीजों से मांओं को भी अजीब सी सुविधा मिली हुई है। कुछ भी हो, झट से मोबाइल पकड़ाया — बच्चा भी चुप और मां भी खुश।ऐसे में प्यार वाला बंधन माता-पिता और बच्चों के बीच नहीं होता है, बल्कि बच्चों और मोबाइल के बीच है।

इन सबका बहुत बड़ा कारण संयुक्त परिवारों का ख़त्म होना है। दूसरा, वर्तमान समय में ठीक से जीवन यापन करने के लिए माता-पिता दोनों का कामकाजी होना। ऐसे में बच्चों का मोह माता-पिता के बजाय आया के साथ होगा या टीवी–मोबाइल के साथ।समय के अभाव में प्यार और अपनेपन वाला रिश्ता कहीं खो सा गया है।
मुझे आज भी याद है, करीब 30–32 साल पहले की घटना है। मेरी चाचीजी ने उनके 12–13 साल के बेटे को धनिया, मिर्ची, टमाटर लेने चौराहे पर कुछ पैसे देकर भेजा था। बेटा बीच में ही किसी वीडियो गेम की दुकान पर गेम खेलने बैठ गया। उस समय घंटे के हिसाब से गेम खेलने दिया जाता था।
जब बहुत देर हो गई और बेटा वापस नहीं आया, तो चाचीजी खुद देखने गईं। बेटा वीडियो गेम की दुकान पर गेम खेलते हुए मिला। चाचीजी बेटे को वहीं से मारते हुए घर लेकर आईं।पर अब ना वो मार है, ना वो लाड़-दुलार है, ना वो प्यार है।मेरे अपने बचपन में, जब गाँव में दादी रात को खटिया पर लेटती थीं, तब सब बच्चे दादी के आस-पास बैठ जाते थे। दादी पाँव दबवाते-दबवाते राजा-रानी, बादल–पानी और लकड़हारे की कहानी सुनाती थीं। और सुनाते-सुनाते ना जाने कब वो सो जाती थीं।
माँ भी मुझे कपड़े वाली गुड़िया हाथ से बनाकर देती थीं। उसके कपड़े भी सिलकर रखती थीं। उसके साथ मैं रोज़ खेलती थी।पर अब वो सब कहीं खो गया।अब गुड़िया के नाम पर प्लास्टिक वाली बार्बी डॉल है, जिसमें ना वो प्यार का एहसास है, ना कोई याद है।
नीलम सिंह सूर्यवंशी
३ .बच्चे भावनाओं को महसूस ही नहीं करते -रजनी भंडारी
आज के विषय पर अपने विचार एक घटना का जिक्र करते हुये करुगी। लखनऊ एयरपोर्ट पर इंदौर की फ्लाइट में बोर्ड करने के लिए इंतज़ार कर रही थी एक महिला जिसकी उम्र ३५ के आसपास होगी साथ में उसकी बेटी थी दो साल की उसके हाथ में मोबाइल था और वह वीडियो गेम खेल रही थी आँखे गड़ाए हुये तभी उस महिला को याद आया की मैं अपने पति को कॉल कर दू की हम ठीक है तो बेटी से बार बार मांगने पर भी मोबाइल बेटी ने नहीं दिया बड़ी मुश्किल से महिला ने छीना तो उसकी बेटी एयरपोर्ट के फर्श पर लेट कर दोनों पैर पटक कर जोर जोर से रोने लगी तब भी मैंने सोचा और आज भी यही सोच रही हूँ कि गलती किसकी है और दोष किसको दू निश्चित ही मैं माँ को ही दूगी जो उसने अपनी बेटी को मोबाइल दिखाया और उसकी आदत डाल दी माता पिता कभी ऑफिस का काम करने के लिए बिजी होते है तो छोटे बच्चो को पीछा छुड़ाने के लिए मोबाइल दे देते है और अंजाम क्या होगा नहीं सोचते बच्चे की आँखे कमजोर होती है और उसकी बाल बुद्धि भी लत की शिकार हो जाती है और जो प्यार जो बंधन माँ के साथ होना था वह मोबाइल से हो जाता है बच्चे भावनाओं को महसूस ही नहीं करते क्योंकि माँ के स्पर्श का माँ की डाट का माँ की आवाज का भावुक पलों को उन्होंने जिया ही नहीं कहानी सुनाना तो टाइम ख़राब करना होगा क्यो की माँ भी तो अपना सोशल मीडिया नहीं छोड़ना चाहती
आधुनिकता की दौड़ और दिखावे की ज़िन्दगी जीने के चक्कर में स्त्री जो माँ है वो अपनी जिंदगी के सबसे अनमोल और सुखद पलों को गवाती जा रही है ये तो ख़ुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही तो है. जागिये इस से पहले की अंधकार अपने पैर जमा ले
डॉ रजनी भंडारी
4 .माता पिता नॉकरी में व्यस्त और छोटेछोटे बच्चे कम्प्यूटर,मोबाइल में-प्रभा जैन
रिश्तों क़े धागे एक दूजे के साथ मिल बैठ कर गपशप से मजबूत होते हैं,,,कहना ,सुनना, खेलना,कूदना,डांगा डोली,ट्रेन बनना,, आदि से जीवंत रिश्ते बनते हैं।और फिर आपको याद भी होगा,,, गर्मी की छुट्टीयां होते ही कितना आनंद आता था,नानी के घर जानेका।मामा, मौसी, नाना नानी घरभर के सभी से खेलना,खाना पीना,रात्रि को छत पर किस्से कहानियां सुनने का आनंद तो कुछ और ही होता था,,जीवंत रूप से हंसना,खिलखिलाना,गपशप,जोक्स,अंताक्षरी,रस्सी खिंचाई में जो आनंद हम लेते थे ,वो आनंद आज के बच्चे कहाँ ले पाते हैं।बस बैठे बैठे ,चुपचाप अपने गजेट्स में व्यस्त य्या ऑनलाइन कोई गेम्स,चैटिंग आदि।व्यायाम तो गोल ही हो गया।बैठे बैठे बिन देखे मैगी,नूडल्स,सैंडविच मुंह मे डालते हुए कभी नाक में भी,बेचारे बच्चे इस क्लास से उस क्लास,,ऑल राउंडर बनने के चक्कर मे।माता पिता नॉकरी में व्यस्त और छोटेछोटे बच्चे कम्प्यूटर,मोबाइल में।क्योंकि उन्हें यह बिन बोलने वाला खिलौना जो मिल गया।
बहुत छोटे बच्चे मां,दादी, नानी से खाना खाते खिलाते शिक्षा प्रद किस्से ,कहानी,गीत,लोरी सुनते और मस्त हो जाते,, कभी प्यार से गले लग जाते ,कभी डर से लिपट जाते और खुशियां पाते,किन्तु आज के बच्चों के पास न पालक हैं,न घर का जीवंत माहौल।तो फिर क्या करे मजबूरन उन अबोले चरित्रों के साथ अपना बचपन गुजारना ही होता है।बचपन मे बच्चे बाहर खुली हवा में खेलते,गिरते,पड़ते,एक दूसरे से लड़ते हुए बड़ों के पास अपनी समस्या लेकर भी नजदीक आते,समस्या दूर होने पर बड़ों से गलबैय्यां भी करते ।किन्तु आज के बच्चों के पास ऐसा नसीब कहाँ?जो घर के अन्य सदस्यों के साथ प्रगाढ़ रिश्ता बना सके,अपने दिल की बात कह सके,कोई ज्ञानवर्धन प्रश्नों के उत्तर पा सके!परिवार में इन,मीन,तीन लोग ही होते हैं।कहानी किस्से सुनाने वाले दादी नानी परिवार से दूर रहते हैं तभी तो क्या करे वो बेचारे बच्चे!बैठे बैठे क्या करे?करते रहते दोस्ती उस निर्जीव,बेजान उपकरणों के साथ।जो प्रगाढ़ सम्बन्धों से दूरी बनवा देते हैं।आंखों की रोशनी में कमी,बालपन में मोटापा,आदि सभी समस्याएं एक एक कर घेरती हैं।सचमुच इन बेचारे बच्चों को एडवांस उपकरणों की आदत न डालें।उन्हें चंचल,भोलेपन में ही प्राकृत रूप से बढ़ने दें।पँछीयों की तरह चहकते हुए,नवीन उड़ान भरते हुए,घर के हर सदस्य से दोस्त बने रहने का मौका दें।जिससे वो जीवन के हर पड़ाव पर खुलकर मन की बात करेंगे और प्रफुल्लित मन से खिले खिले दिखेंगे।
प्रभा जैन इंदौर




