ज्योति पर्व पर विशेष: हे पटेल! तुम्हारे एक पुत्र के इक्कीस हों और तेरी एक गाय के पचास बछरे हों!

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    ज्योति पर्व पर विशेष: माटी से दीपक बन जाने का पर्व

निमाड़ में यह लक्ष्मी ही नहीं, गोधन और अन्नधन की पूजा का पर्व  

       डॉ. सुमन चौरे

हर्ष, आनन्द, उल्लास- सभी कुछ हमारी अवचेतना में अवस्थित रहते हैं। अवसर पाते ही, निमित्त मात्र से ही, वे प्रकट हो जाते हैं, चैतन्य हो जाते हैं, कभी नववर्ष आगमन पर, तो कभी ऋतु परिवर्तन पर, तो कभी नवान्नागमन पर। कभी वे चेतना गीत बनकर मुखर हो उठते हैं, तो कभी व्रत पर्व त्योहार बनकर आनन्दित हो उठते हैं। ऐसा ही अनेक अवसरों का समूह पर्व है दीपावली या दीवाली।

दीपावली के साथ अनेक मान्यताएँ, अनेक कथाएँ, अनेक अवधारणाएँ, अनेक वि·ाास या यूँ कहें अनेक व्यवसाय भी जुड़े हुए हैं। गर रामागमन से दीपावली जुड़ी हुई है, तो नरकासुर के वध से भी दीपावली जुड़ी हुई है। दीपावली पर्व अनेक पौराणिक आख्यानों से जुड़ी हुई है, तो वह गीली खदानों के सूखते ही कुम्हार की आजीविका से भी जुड़ जाती है। दीपावली दीपक के निर्माण, माटी से दीपक बन जाने का पर्व, दीपक की अवधारणा बाती के बिना निरर्थक है। किसान के कपास, फली, अन्न का पर्व है दीपावली। बाती का भी, नेह के बिना, ज्योति-रूप अकल्पनीय है। किसान के श्रम की जोत का पर्व है दीपावली। नद-नदियाँ मर्यादा में बँधने लगे, देस परदेस जाने के मार्ग खुलने लगे, बादलों ने अपने डेरे आसमान से उठा लिए, वणिक व्यापार की ओर चल पड़े। लक्ष्मीपति का लक्ष्मीपूजा का पर्व है दीपावली, स्वर्णाभ, पीताभ, तिजोरियों के पूजन का पर्व। खनखनाती लक्ष्मी के हिसाब-किताब के बही-खातों के बदलने का पर्व।

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धन-लक्ष्मी, अन्न-धन और गोधन का पर्व है दीवाली। दीवाली कार्तिक मास की अंधेरी रात अमावस पर लक्ष्मी पूजन का वणिक पर्व है; किन्तु यही पर्व मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में लक्ष्मी के साथ गोधन और अन्नपूर्णा की आराधना का पर्व है। यहाँ “लक्ष्मी पूजा’ गौण हो जाती है।

निमाड़ क्षेत्र में कार्तिक, कृष्ण पक्ष की बारस को, “वज बारस’ या “बच्छा बारस’ कहते हैं। सामान्यत: “पंच पखुरी”, पंचदिवसीय दीपावली पर्व, इसी बारस से शुरू होता है। इस दिन गाय और बछड़े की पूजा की जाती है। पूजन में सर्वप्रथम गाय के चरणों (खुरों) की पूजा की जाती है, फिर गाय के मस्तक की। बच्छा-बारस की एक कथा प्रचलित है। कथा में बतलाया गया है, कि गाय ने अपने स्वामी की संतान को कैसे जीवन दान दिया। वैसे महाभारत काल की एक कथा भी बच्छा बारस के दिन कही जाती है। धर्मराज युधिष्ठिर ने बच्छा बारस को गाय की पूजन कर आनन्दोत्सव मनाया था। कथाएँ पर्व त्योहारों के साथ समय के अनुसार जुड़ती घटती चली जाती हैं। किन्तु निमाड़ में जिस आस्था भाव से गौ-बछुड़े का पूजन किया जाता है, व भाव है गौ के प्रति उपकृत होने का भाव। बछुड़ा  किसान का जीवन आधार है। इसकी कृपा से ही वह घर में अन्न भण्डारण करता है। इस पूजा का आशय स्पष्ट नज़र आता है। महिलाएँ गाय और बछड़े के शरीर पर गीली हल्दी के  हाथे देती हैं। ठण्डी हल्दी के हाथे इसके प्रतीक हैं, कि “हे गौ माता’ हम तुझे शीतल हाथे देते हैं, तेरी ही कृपा से हमारे घर अन्न-धान्य और गोरस की वृद्धि हुई है, तूने हमारे जीवन में शीतलता प्रदान की है।

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गौ के प्रति उपकृत भाव का प्राकट्य ही है गौ-पूजन। दीवाली किसान के अन्नपूर्णा पर्व का परिचायक है। बच्छा-बारस के दूसरे दिन धन तेरस को निमाड़ में घर के गोधन व अन्न धन के भण्डार पूजे जाते हैं।

लक्ष्मीपूजन के दिन भी लक्ष्मीजी के पूजन के पूर्व घर में नव घड़ों में नवधान्य भरा जाता है। इन्हें लक्ष्मीजी के सम्मुख रखा जाता है। श्रीलक्ष्मी पूजन के पूर्व अन्नघट पूजे जाते हैं।

निमाड़ में दीपावली-पर्व-समूह का मुख्य पर्व होता है “गोधन पड़वा” या “गावेर्धन पड़वा’। यह समूचे निमाड़ में दीवाली का प्रमुख पूजन पर्व है। इस दिन भोर से ही पशुओं का शृँगार किया जाता है। बैलों को नई रंग-बिरंगी नाथ, मछुँडी, माला, घुंघरूमाल आदि पहनाए जाते हैं। गायों का भी शृँगार किया जाता है। उनके शरीर पर सुन्दर-सुन्दर रंग बिरंगी कलाकृतियों के छापे छापे जाते हैं। उनके सींगों को रंगकर सिर पर मोरपंख लगाया जाता है।

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उषाकाल में ही महिलाएँ इन पशुओं के लिए मिष्ठान्न-पुरणपोळई बनाती हैं। बच्चों को बकेड़ी में मिले अनाज की रोटियाँ भी बनाकर, गाय की पूजाकर, गाय को खिलाई जाती हैं। गोवर्धन पड़वा के दिन घर के बड़े प्रवेश द्वार पर गोबर से गोवर्धन बनाये जाते हैं। कुछ लोग गोबर का पहाड़ बनाकर उसको मानव आकृति प्रदान करने के लिए उसमें नाक, कान आँख बनाते हैं। इसे गोवर्धन पर्वत कहते हैं। कई लोग गोबर के तीन बड़े-बड़े पुतले बनाते हैं। वे कृष्ण, बलराम और सुभद्रा के होते हैं। एक पुतला आड़ा बनाया जाता है। यह द्वारपाल होता है। परिवार सहित इन गोवर्धन देव की पूजा की जाती है। पशुधन पूजन के बाद पटाके, गजगुंडी आदि छोड़े जाते हैं। जिस द्वार से पशु बाहर निकलते हैं, उस स्थान पर मूसल आड़ा रखा जाता है, और आग जलाकर उस पर से जानवरों को निकाला जाता है। वहीं जानवरों के सम्मुख गजगुंडी चलाई जाती है। यह सब पशुओं की परीक्षा स्वरूप किया जाता है। वर्षा के बाद यह पहला दिन होता है, जब सब पशु गौ-चारण के लिए चारागाह, जंगल में जायँगे। पशुओं का आग पर से कूदना, गोवर्धन को कुचलना और पटाखों की आवाज़ सुनना, यह सबकुछ जंगल में आने वाली आपदाओं-विपदाओं का परिचायक भी है। जब पशुओं के सामने पटाखे चलते हैं, तो कई तो दुम ऊँची कर कान खड़े कर निकल भाग जाते हैं; किन्तु कई जानवर ऐसे डरते हैं कि वापस गोठान में लौट जाते हैं।

यह दिन सुहाग-पड़वा के रूप में भी मनाया जाता है। सौभाग्यवती स्त्रियाँ भोर में तारों भरी रात में स्नान कर शृँगार करती हैं। इसके पश्चात् सबको सुहाग सामग्री बाँटती हैं, और अपने तथा सब के अखण्ड सौभाग्य की कामना करती हैं।

पड़वा को ही अन्नकूट मनाया जाता है। अन्नकूट की कल्पना में भगवान् कृष्ण के सम्मुख रखे छप्पन पकवान का परिदृश्य उपस्थित होता है, किन्तु निमाड़ का अन्नकूट इन सबसे भिन्न होता । इसमें बनाए जाने वाले पकवान हैं मात्र चाँवल मूँग-दाल की खिचड़ी और कद्दू की सब्जी। हाँ, खिचड़ी पर गुड़ और घी ज़रूर परोसा जाता है। यह नई फ़सल का नया भोजन है। हरे मूँग और चावल नवान्न हैं। इसकी खिचड़ी बनाकर भगवान् को भोग लगाकर पंगति में सबको खिलाया जाता है। साथ में अपनी श्रद्धानुसार मिष्ठान्न- संजोरी-गूजे परोसे जाते हैं।

साँझ को अंधेरा पसरते-पसरते गीतों के चमत्कारिक स्वर गूँजने लगते हैं। दीपावली के कोई गीत नहीं होते; किन्तु गोवर्धन पड़वा पर ग्वालों द्वारा गाए जाने वाले गीत निमाड़ के ग्वाला-गीत होते हैं। इन्हें  “हीड़’ या “हीर” कहते हैं। ये बहुत प्रसिद्ध हैं। ग्वाले गाँव के उन सभी घरों में जाकर हीड़ गाते हैं, जिनके पशु वे गोचारण में ले जाते हैं। हीड़ गोवर्धन पड़वा को ही गायी जाती हैं। इन गीतों में बड़े उत्तम कोटि के भाव होते हैं। ग्वालों का मनोरथ होता है कि वे जिनके पशु चराने ले जाते हैं, उनके और अधिक से अधिक पशु हों। बड़ा ही उदार चिन्तन है। सोच है कि पशु अधिक होंगे तो समाज में दूध घी की कमी नहीं होगी। गोबर खाद से धरती भरपूर अन्न उपजायगी। ग्वालों को चरवाही की एवज में अधिक अन्न मिलेगा। अप्रत्यक्ष रूप से इस कामना पूर्ति से ग्वाले स्वयं भी अन्न धन से सम्पन्न होंगे। वह इन गीतों में पशु धन की कृपा व महिमा का बखान करता है। इन गीतों की शैली पर ग्वालों के बोलचाल का प्रभाव नज़र आता है। जैसे वे जंगल में पशुओं को “हुई रेऽऽऽऽ’ और अन्त मेंड “ऽऽऽऽऽऽऽऽऽ’ लम्बा स्वर लगाकर बुलाते हैं। एक हाथ से डफली पर थाप देते हैं। बड़े ही अर्थपूर्ण हैं ये हीड़ गीत।

हुई रे ऽऽऽ—— पटेल थारा जाया इक्कीस हुसे,

गाय का जाया पचासऽ

दऽ पटलेणऽ भातो मण्ऽ भरी,

थारी जोत झक्कास ऽऽऽऽऽऽऽऽऽ

भावार्थ : हे पटेल! तुम्हारे एक पुत्र के इक्कीस हों और तेरी एक गाय के पचास बछरे हों। हे पटेलन! मैं तेरे सब जानवर चराऊँगा, तू इतना भाता (अनाज की भेंट) दे कि तेरी कीर्ति उज्ज्वल हो। ऐसे ही दो-दो पँक्ति की हीड़ गार्इं  जाती हैं। इसमें मुखिया की यशकीर्ति की अभिलाषा का भाव होता है।

हुई रेऽऽऽऽ… बधावणऽ वाळई बईण निसरी,

पेरी दखिणा रो चीरऽ

पायलऽ रेऽ बधावजे गाय का बाळऽ,

पाछऽ, थारो हीर…. ऽऽऽ

भावार्थ : ग्वाला अरज करता है कि हे दक्षिण की रेश्मी साड़ी पहनी बहन, तू पहले गाय के पूत को बधाना (पूजना) फिर अपने भाई को तिलक करना।

इस प्रकार बहुत सी हीड़ें गा-गाकर खूब अनाज पाते हैं ग्वाले। ये हीड़ सतसैया के दोहे जैसे ही बड़े सारगर्भित होती हैं। कृषि का पूरा बल पशु धन पर ही आधारित है। खेती किसानी का मुख्य अवलम्ब है पशुधन।

दीपावली पर्व समूह के अंतिम दिन भाई दूज मनाई जाती है। इस पूजन विधान में गोबर से “भाईबीज’ बनाई जाती है। जमीन पर गोबर से सुन्दर घर कोट बनाया जाता है। इसमें गोबर से सात भाई बहन के पुतले बनाये जाते हैं। वे एक ही थाली में भोजन करते दिखाए जाते हैं। अन्न कूटने वाली महिला, उखल-मूसल, घट्टी (चक्की) चलाती महिलाओं, भोजन बनाती महिलाओं, गाय भैंस को दाना पानी देती महिलाओं के पुतले इस घर में बनाए जाते हैं। इस प्रकार बड़े कृषक परिवार की सुख-समृद्धि की अनुपम झाँकी होती है यह भाईबीज। “सबमें एकजुटता’, यह कृषि व्यवसाय का मूल मंत्र है। भाई-बहन मिलकर इनकी पूजा करते हैं। बहन भाई को भोजन कराती है। ऐसी मान्यता है कि भाईदूज को भाई बहन के घर भोजन करता है, तो वह संसार में भय मुक्त हो जाता  है, यहाँ तक कि यम की फाँसी भी नहीं लगेगी। कितना सुन्दर सूत्र है भाई-बहन में मेल-मिलाप और पारिवारिक सौहार्द का।Bhai Dooj Festival Drawing - Pencil Sketch for Beginners ||How to draw Bhau Beej Festival - YouTube

भाई-बीज में संयुक्त परिवार एवं सुखी सम्पन्न कृषक गृहस्थी का चित्रांकन होता है। कृषक के कृषि कर्म में इतने ही हाथों की आवश्यकता होती है। अत: गोवत्स की पूजा से प्रारंभ यह पर्व गोधन की पूजा पर ही समाप्त होता है। निमाड़ में दीपावली पर्व गोधन और अन्नपूर्णा का पर्व है।

डॉ. सुमन चौरे,भोपाल – 462039

मो : 09424440377

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