

In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 25th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं इंदौर की लेखिका श्रीमती महिमा शुक्ला को। उनके पिता डॉ स्वर्गीय विश्वम्भरनाथ उपाध्याय की गिनती देश के वरिष्ठ साहित्यकारों में होती थी। उन्होंने 60 से अधिक पुस्तकें लिखी। वे राजस्थान विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के विभाग अध्यक्ष और बाद में कानपुर विश्वविद्यालय के उप कुलपति रहे। आज उनकी पुण्यतिथि पर उनकी बेटी भावुक होकर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर रही है:
तुम ख़ुशियों का दरिया जिसके
अंदर समाईं हैं नदियाँ के
बहते पानी से उज्जवल
झरने की हो धारा
संतति को संस्कृति देकर
तुम संरक्षण हो हमारा
स्पर्श तुम्हारा काँधे पे
युग युग तक रहे सहारा
तुम शिक्षक हो
गुरू ज्ञानी हो
ईश्वर की छवि धारी हो
तुमसे परिवार बढ़ा करता
अर्थ व्यवस्था कारी हो
जीवन के पहियों में
तुम एक धुरी बने संचारी हो–कुसुम सोगानी
25th.In Memory of My Father: विश्व भर के 500 प्रभावी कृतिकारों में शामिल थे मेरे पिता डॉ. स्व विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
कोई इंसान पूर्णतः परफेक्ट कब होता है? संभव भी नहीं, पर हर संतान के लिए उसका पिता सबसे परफेक्ट होता है. ये रिश्ता जन्म और जिम्मेदारी से आगे बढ़ कर भावनात्मक लगाव का बन जाता है. मातृत्व और पितृत्व एक साथ जन्मते हैं। दोनों के भाव संतान के लिये समान होते हैं, पर भूमिका कमोबेश अलग भी मेरे जीवन में भी पिता के साहित्यिक व्यक्तित्व का प्रभाव रहा है .
मैनें अपने पिता को उ. प्र. के सुदूर गाँव से संघर्ष करते हुए एक अच्छा और ऊँचा मुक़ाम पाते देखा. 1925 में जन्म के बाद आर्थिक,अभाव ग्रामीण परिवेश, अल्पायु में पिता की मृत्यु, किशोर आयु में विवाह अकेली माँ की चिंतायें उन्हें पढ़ने-पढ़ाने से नहीं रोक सकीं । दूर आगरा में जा कर पढना उस समय में एक चुनौती था पर उस समय के गुणी साहित्यकारों और शिक्षकों की संगत ने उन्हें वे हिंदी के अकादमिक और साहित्यिक संसार में स्थापित किया। हिंदी, संस्कृत और अंग्रेज़ी साहित्य के अध्येता वे राजस्थान विश्वविद्यालय के आचार्य और कानपुर वि . वि. के उपकुलपति रहे। वे उपन्यास, कविता और आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर रहे. प्रगतिशील विचारों के मेरे पिता उस समय के सभी गणमान्य साहित्यकारों से जुड़े रहे.अतः मेरा भी उन सभी से परिचय रहा।
प्रगतिशील विचारक के रूप में वे विशेष उर्वरक और अविच्छिन्न दृष्टिकोण लेकर चलते रहे.उनके ‘यों बोला नाथ विश्वम्भर’ शीर्षक कविता संग्रह पर एक गोष्ठी में स्व. प्रकाश श्रीवास्तव ने उन पर अद्भुत वक्तव्य दिया और इस संग्रह की कविताओं में सार्त्र का सारा दर्शन खोज निकाला था.
वे जीवन ,प्रकृति ,साहित्य, धर्म -दर्शन के प्रति सदैव विद्यार्थी ही बने रहे .जिज्ञासा का भाव बालक की तरह उन्हें हमेशा कुछ नया लिखने को कहता रहा। आगरा, नैनीताल,जयपुर और कानपुर उनकी शिक्षा, अध्यापन तथा कार्यक्षेत्र का केंद्र रहे। जहाँ उस समय के सभी बड़े – छोटे लेखकों के साथ हिंदी साहित्य को समृद्ध किया था .सूर ,तुलसी,निराला,पंत से लेकर काव्यशास्त्र, द्वन्दात्मक भौतिवाद, ,सौंदर्य बोध, जैसे विषयों पर परंपरा से हटकर शोध कर्ता और रचनाकार रहे.साहित्य साहित्य शास्त्र, इतिहास, और समाज की पुनर्व्याख्या उनके आलोचना शस्त्र का केंद्र रहा।लेखक संघ के आयोजन संयोजन मे कर्ता धर्ता की भूमिका में रहे। आम आदमी की आवाज़ को साहित्य में स्वर देने का उनका ज़ुनून सीमा से बढ़ कर रहा। व्यवसायिक पत्रकारिता साहित्य को वे एक तरह से दोयम दर्ज़े का मानते थे। मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रभावित उनका लेखन अक्सर आलोचना का विषय रहा। अपने सिद्धांतों से समझौता उन्हें गंवारा नहीं रहा। एक और उनकी PH. D काव्यशास्त्र पर और दूसरी द्वन्दात्मक भौतिक वाद पर D. LIT रही।
उनकेउपन्यास और कविताओं में आम, वर्ग संघर्ष की छाया बानी रही। पक्षधर, रीछ, विक्षुब्ध, आधुनिक सिंहासन बत्तीसी (4 खंड ),प्रतिरोध और बाद के उपन्यास इसके प्रमाण हैं।
लघु कविता ,दीर्घ कविता,शायरी,नाटक,शोधपत्र, उपन्यास और अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें सहित 60 से अधिक मौलिक पुस्तकें लिखीं। लेखन के अतिरिक्त वे प्रशासकीय पद पर प्राचार्य,विभागाध्यक्ष,निदेशक – आचार्य, राजस्थान विश्वविद्यालय से कानपुर विश्वविद्यालय के उप कुलपति तक शिक्षा प्रशासन का सफलतापूर्वक संचालन किया।
सम्पादक के रूप आगरा की प्रतिष्ठित साहित्य सन्देश और समालोचना, और हम, माधु माधवी जैसी लघु पत्रिकाओं का स्वयं प्रकाशन किया। अन्य विभिन पत्रिकाओं का संपादन कर हर विधा में अपनी छाप छोड़ी .लम्बी सूची है उनके द्वारा लिखित,प्रकाशित, सम्पादित पुस्तकों की, सैकड़ों शोध परक लेखों की और सम्मानों की। उनपर भी कई पुस्तकें, शोध प्रबंध, और सम्पादित पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं। नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करने में उनका कोई मुकाबला न था । जहाँ रहे वहाँ नयी पीढ़ी ही तैयार की।

नार्थ कैरोलिना अमेरिका के बायोग्राफीकल इंस्टिट्यूट ने उन्हें विश्व भर के पांच सौ प्रभावी कृतिकारों में एक माना है। मीरा, भारत भारती, बिरला फाउंडेशन सोवियत लैंड नेहरू आदि परुस्कार उन्हें प्रदान किये गए। पर यह सब उनके लेखऔर योगदान के सामने कम ही हैं।
रूढ़ियों और परम्परागत से हटकर अपने विशाल उनके चिंतन-मनन से हम सब परिवार जन भी लाभान्वित हुए आज हम और गर्व से कह सकते हैं कि हम सब उनके दृष्टिकोण से उदार और विस्तार का भाव परिवार, समाज और लेखन में लेकर चलते हैं .
बचपन से ही उन्होंने हिंदी और संस्कृत के कठिन पाठ, वाद -विवाद के विषय समझाये। . अपनी गलतियों और असावधानी पर उनकी कड़ी समझाईश आज भी याद हैं। जीवन की परेशानियों में उनकी सलाह और साथ हमेशा मिला. सही और गलत की परख करना सीखा। जब वे नैनीताल में अपने कन्धों पर बिठा के ऊँचे पहाड़ पर स्थित घर ले जाते समय मनघड़न्त कहानी सुनाते। तो उन्हीं से अच्छे और बुरे के नज़रिये की बात समझा देते थे. कभी कड़वी गोली भी खिलाते और कभी हँसी में चिंताओं को हल्का कर देते. उनका बहिर्मुखी स्वभाव और तार्किक नज़र मुझे भी एक अंश में मिली है. जहाँ उनसे स्वतंत्र सोच वहीं माँ से मुझे संघर्ष करने की प्रवृत्ति मिली। हाँ, पिता होने के नाते वे ज़रा ज्यादा ही चिंता करते थे. अक्सर महिला अपराधों के खबरें पढ़ कर वो कहते थे “लड़कियों को अपने बस्ते में पिस्तौल रखनी चाहिए “।
आज वे साथ नहीं रहे पर ये रिश्ता अमर है.उस पर भरोसा और याद क़ायम हैं। 23 अक्टूबर 2008 को वे दुनिया को अलविदा कह गए .लेकिन अभी उनका काम बहुत बचा था.साहित्य जगत में उनके चाहनेवालों ने माना कि डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय का जाना हिन्दी समीक्षा के लिए बहुत भारी क्षति थी । अभी भी उनका सारा लेखन बिखरा हुआ है। सभी चाहते हैं उनकी ग्रंथावली छपे तो उनके कार्य का मूल्यांकन हो। साथ ही उनके समीक्षा ग्रंथों का संकलन निकले ताकि उनके समीक्षा-चिंतन की रेंज का पता चल सके. उनके पाठक और छात्रों के अनुसार हमारे हिंदी साहित्य जगत की यह विडम्बना ही है कि लेखक के जाने के बाद उनके अधूरे काम या अप्रकाशित साहित्य की चिंता साहित्य जगत नहीं करता , अब किसी लेखक का महत्व उसके लेखन के कारण नहीं होता, यह जिम्मेदारी अब लेखक के परिवार पर आती जा रही है वे ही प्रकाशन करवाएं । यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इसमें साहित्य अकादमियों ,साहित्यिक संस्थाओं को पहल करनी चाहिए .
आज पुण्य स्मृति से मन भावुक हो उठा है.उनकी ओजस्वी वाणी आज भी गूंजती है. पिताजी के विराट व्यक्तित्व को मेरा सादर नमन
शेष फिर.
” जाना था तुमको तुम चले गये
दूर हो कर भी मन से नहीं गये
नातों की डोर ऐसे तो नहीं छूटती.
चमकते तारे से आस भी नहीं टूटती. .
महिमा शुक्ला
9589024135
996,सुदामा नगर इंदौर, (मप्र )
18.In Memory of My Father :BHU में 1941 में जब डॉ राधाकृष्णन् की मदद से पिताजी का वजीफा 3 रुपए बढ़ा!