अहंकार में डूबकर तानाशाह बन जाते हैं द्वारपाल … इन्हें सबक मिलना ही चाहिए…

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अहंकार में डूबकर तानाशाह बन जाते हैं द्वारपाल ... इन्हें सबक मिलना ही चाहिए...

हमारे मित्र और पत्रकार साथी गोविंद गुर्जर के साथ एक निजी अस्पताल के सुरक्षा गार्ड्स द्वारा की गई गुंडागर्दी का मामला दुर्भाग्यपूर्ण तो है, लेकिन कोई अजूबा नहीं है। बाउंसरों की तरह काम पर रखे जाने वाले यह सुरक्षा गार्ड्स अक्सर सबक सिखाने में और क्रूरतम व्यवहार करने में एक पल भी जाया करना जरूरी नहीं समझते हैं। यदि कहा जाए तो इनके पीछे मालिक की वही सोच काम करती है, जिसमें ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का भाव उदार चेहरों को अक्सर जकड़े रहता है। और ज्यादातर समय इन द्वारपालों के क्रूरतम व्यवहार का शिकार निरीह और मजबूर आमजन रहते हैं, जो शायद इनकी उद्दंडता सहन करने को अभिशप्त रहते हैं। इससे इनका अहंकार दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता जाता है। जिस तरह परशुराम प्रतिमा के लोकार्पण के समय भी प्रदेश के संवेदनशील मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, परमज्ञानी संत स्वामी अवधेशानंद गिरि को बता रहे थे कि कुछ दुर्जनों की पूछ तो ऐसी रहती है कि कितनी भी पोंगरी में डालो लेकिन सीधी नहीं होती है।

और उनका आशय यही था कि ऐसे दुर्जनों के खिलाफ अब सरकार सख्त कार्यवाही कर सबक सिखाने में कोई कोताही नहीं बरत रही है। तो साम, दाम, दंड और भेद से अकूत दौलत के स्वामी बनने वाले कुबेरों के सुरक्षाकर्मियों यानि द्वारपालों ने उद्दंडता की सारी सीमाएं इसी तरह पार कर दी हैं, जैसी घटना हमारे पत्रकार मित्र के साथ सामने आई है। जिसके बच्चों का इलाज उसी अस्पताल में चल रहा हो, वह तो भावावेश में अपना संयम खो सकता है, लेकिन यहां तैनात सुरक्षाकर्मियों से तो संवेदनशील व्यवहार की अपेक्षा की ही जानी चाहिए। पर होता उल्टा ही है और यह सुरक्षाकर्मी कम और बाउंसर ज्यादा ठीक उसी तरह व्यवहार करते हैं, जैसे कोई आतंकवादी बिल्डिंग में प्रवेश कर हजारों लोगों की जान खतरे में डालने पर उतारू हो…और उससे पहले यह अपनी ताकत और शौर्य दिखाकर खुद को सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त साबित करने में पलक झपकने जितनी देर भी नहीं करते।

यह हाल तब है जबकि 21 वीं सदी में पुलिस का चेहरा संवेदनशील बनाने की अपेक्षा की जा रही है, ऐसे में इन दुर्दांत निजी सुरक्षाकर्मियों और द्वारपालों पर अंकुश आखिर कब लग पाएगा ? इसकी चिंता सरकार को भी गंभीरता के साथ करना चाहिए और बड़े-बड़े संस्थानों के मालिकों, उद्योगपतियों और ऐसे द्वारपालों की सेवाएं लेने वाले हर शख्स को करना चाहिए ताकि ‘रक्षक’ की अपेक्षा से रखे गए यह अल्पवेतनभोगी खुद को वफादार और कर्तव्यनिष्ठ साबित करने की होड़ में सज्जनों की मजबूरी, इज्जत और भावनाओं के ‘भक्षक’ न बन जाएं।

द्वारपालों की कथाओं से सबक लिया जाए, तो इनकी आदर्श आचार संहिता बनाई जा सकती है…जिसमें कहीं भी किसी भी तरह की बत्तमीजी की कोई गुंजाइश ही नहीं रहेगी। एक कथा यह है कि जय और विजय दो भाई भगवान विष्णु के द्वारपाल थे। एक बार सनकसनन्दनसनातन और सनत्कुमार (ये चारों सनकादिक ऋषि कहलाते हैं और देवताओं के पूर्वज माने जाते हैं) सम्पूर्ण लोकों से विरक्त होकर चित्त की शान्ति के लिये भगवान विष्णु के दर्शन करने हेतु उनके बैकुण्ठ लोक में गये। बैकुण्ठ के द्वार पर जय और विजय तैनात थे। जय और विजय ने इन सनकादिक ऋषियों को द्वार पर ही रोक लिया और बैकुण्ठ लोक के भीतर जाने से मना करने लगे।

उनके इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों ने कहा, “अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। हम देवाधिदेव के दर्शन करना चाहते हैं। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये। भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, तुम्हारा स्वभाव भी वैसा ही होना चाहिये। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो।” ऋषियों के इस प्रकार कहने पर भी जय और विजय उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोकने लगे। जय और विजय के इस प्रकार रोकने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रुद्ध होकर कहा, “भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता। इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग पापयोनि में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो।”

महत्वपूर्ण वह है जो इसके बाद हुआ।यह जान कर कि सनकादिक ऋषिगण भेंट करने आये हैं भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिय पधारे। भगवान विष्णु ने उनसे कहा, “हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। इन अनुचरों ने तपस्वियों का तिरस्कार किया है और उसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा याचना करता हूँ। सेवकों का अपराध होने पर भी संसार स्वामी का ही अपराध मानता है। अतः मैं आप लोगों की प्रसन्नता की भिक्षा चाहता हूँ।”

भगवान के इन मधुर वचनों से सनकादिक ऋषियों का क्रोध तत्काल शान्त हो गया। भगवान की इस उदारता से वे अति अनन्दित हुये और बोले, “आप धर्म की मर्यादा रखने के लिये ही  इतना आदर देते हैं। हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वश में होकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते हैं। आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते हैं।”

तब भगवान विष्णु ने कहा, “हे मुनिगण! मै सर्वशक्तिमान होने के बाद भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नहीं करना चाहता क्योंकि इससे धर्म का उल्लंघन होता है। आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये अवश्य ही इस दण्ड के भागी हैं। ये दिति के गर्भ में जाकर दैत्य योनि को प्राप्त करेंगे और मेरे द्वारा इनका संहार होगा। ये मुझसे शत्रुभाव रखते हुये भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के बाद ये पुनः इस धाम में वापस आ जावेंगे।”

यह कथा सब कुछ साफ कर देती है कि अहंकार से भरे द्वारपालों को सेवा में रहने का अधिकार तो कदापि नहीं है, साथ ही यह दंड के भी भागीदार भी हैं। और सर्वशक्तिमान होते हुए भी तीनों लोकों के स्वामी विष्णु भी इन्हें माफ नहीं करते हैं और यह आदर्श स्थापित करते हैं कि मालिक का व्यवहार कैसा हो? वह खुद क्षमा मांगने को आतुर रहे और पीड़ित आगंतुक की भावनाओं को पूरा सम्मान दे सके। वह द्वार चाहे बैकुंठ का हो, जहां बैकुंठपति खुद लक्ष्मी संग निवास करते हों। वह द्वार चाहे अस्पताल का हो, जहां अपने बीमार उपचाररत परिजनों से मिलने की खातिर कोई अपना प्रवेश करने को मजबूर हो। या वह द्वार किसी भी भव्य इमारत का हो, जहां द्वारपाल तैनात हों।

यहां समस्या इन अल्पवेतनभोगी द्वारपालों के साथ तो है ही, पर बड़ी जिम्मेदारी उन सुरक्षा एजेंसियों की है जिनके मातहत काम करने वाले यह सुरक्षा गार्ड उनकी मंशा पर खरा उतरने के लिए हर पल अपना दुर्व्यवहार भरा आचरण व्यक्त करने के लिए उतावले रहते हैं। इन सुरक्षा एजेंसियों के लाइसेंस तत्काल निरस्त करने चाहिए और उनके दफ्तरों पर बुलडोजर चलाया जाना चाहिए, ठीक उसी तरह जिस तरह सरकार अपराधियों के खिलाफ पेश आ रही है। तो जिम्मेदार उन सुरक्षा एजेंसियों से सुरक्षाकर्मियों की सेवाएं लेने वाले वह मालिक भी हैं, जो प्रबंधन पर दबाव बनाने का काम करते हैं ताकि  इस तरह का अनचाहा दबाव आगंतुकों पर बना रहे। सवाल एक पत्रकार, एक नेता, एक अफसर या एक प्रभावशाली व्यक्ति के मामले में दोषियों के खिलाफ कार्यवाही का नहीं है। जरूरत द्वारपाल के नाम पर अहंकार और क्रूरतम व्यवहार को अंजाम देने वाली इस मानसिकता का खात्मा करने की है। ताकि अहंकार में डूबकर द्वारपाल तानाशाह न बन सकें और मालिक की सोच यदि संवेदनशील है तो द्वारपाल ऐसा दुर्व्यवहार कर उस नेक सोच के साथ व्यभिचार करने का दुस्साहस कर मालिक को बदनाम न करने पाएं। गोविंद गुर्जर के मामले में भी अस्पताल के मालिक को खुद सामने आकर दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार के लिए खेद जताना चाहिए और सभी जिम्मेदारों पर कड़ी कार्यवाही कर यह संदेश देना चाहिए कि सुरक्षाकर्मियों और द्वारपालों की लकीर क्या है, जिसे उन्हें कभी पार नहीं करना है। यदि मालिक और द्वारपाल की सोच एक जैसी है, तो ऐसी सोच पर बुलडोजर चलना ही चाहिए।इन्हें कठोर सबक मिलना ही चाहिए।