Law & Justice: समाज में गैर बराबरी के हालात बनाती चुनावी घोषणाएं

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सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक लोकहित याचिका में टिप्पणी करते हुए कहा कि यह एक गंभीर मुद्दा है। कई बार मुफ्त उपहारों की घोषणा का बजट नियमित बजट से अधिक होता है। यह याचिका भाजपा नेता और अभिभाषक अश्विनी कुमार उपाध्याय ने प्रस्तुत की है। इस याचिका में सरकारी खजाने से नगद और मुफ्त उपहारों का वादा करने वाले राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह जब्त करने और दलों की मान्यता रद्द करने की प्रार्थना की गई।

चुनावों के समय सरकारों द्वारा बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जाते हैं जिनमें सरकार समाज के गरीब तबकों को रियायती दर पर अथवा निषुल्क कई वस्तुऐं/सेवाऐं उपलब्ध कराने की घोषणा करती है। चुनाव अभियान के दौरान सरकारों की इन योजनाओं के बारे में राजनेता भी अपने भाषणों के दौरान उल्लेख करते हैं। इनमें यूँ तो सभी पार्टियां व राजनेता सम्मिलित है, लेकिन आप पार्टी तथा अरविंद केजरीवाल अग्रणी है। इसमें सवाल यह है कि क्या इस प्रकार की घोषणाएं और इस संबंध में प्रकाशित विज्ञापन भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में माने जाएंगे! इसका उत्तर खोजने के लिए हमें जनप्रतिनिधित्व कानून एवं न्यायालयों के निर्णयों के आधार पर परखना होगा।

जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (अ) (ब) मतदाताओं को रिष्वत देने को परिभाषित करती है। इन प्रावधानों के अनुसार किसी उम्मीदवार अथवा उसके ऐजेंट द्वारा मतदाताओं को कोई ऐसा उपहार देना या देने का वादा करना रिश्वत मानी जाएगी जो मतदाताओं को मत देने अथवा न देने अथवा किसी उम्मीदवार से चुनाव लड़ने या अपना नाम वापस लेने के आग्रह के लिए किया जाता है।

 चुनावों के दौरान लोकलुभावन घोषणाओं के यूं तो कई मामले गिनाए जा सकते हैं, पर एक दिलचस्प मामला आंध्र प्रदेश का है जो अंतगोत्सवा सर्वोच्च न्यायालय तक गया। इस प्रकरण में तत्कालीन मुख्यमंत्री एनटी रामाराव ने अखबारों में ऐसे विज्ञापन दिए, जिनमें यह कहा गया था कि सरकार समाज के गरीब तबकों के लोगों को मकर सक्रांति के पर्व पर उपहार के रूप में रियायती दर पर चांवल, साड़ियां और धोतियां उपलब्ध कराएगी। उस समय एनटी रामाराव तेलगु देशम पार्टी के अध्यक्ष भी थे तथा राज्य में उनकी सरकार थी। स्वाभाविक रूप से पार्टी के नेताओं ने चुनाव अभियान के दौरान इन योजनाओं को प्रचार-प्रसार भाषणों द्वारा भी किया।

चुनाव याचिकाकर्ताओं ने इसे भ्रष्ट आचरण बताया था। उनके अनुसार इसके द्वारा मतदाताओं को तेलगु देशम पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करने के लिए रिश्वत देने का प्रयास किया गया था। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष यह बताया गया कि उपहार की घोषणा 14 जनवरी (मकर संक्रांति) के अवसर पर की गई। लोकसभा की श्रीकाकुलम क्षेत्र में चुनाव 28 जनवरी को होने थे। उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन प्रश्न यह था कि विज्ञापन तथा भाषण जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (1) (अ) (ब) के अंतर्गत भ्रष्ट आचरण के अंतर्गत आता है अथवा नहीं! सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ये अपीलें आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध प्रस्तुत की गई थी।

न्यायालय के समक्ष अपीलार्थी का कहना था कि तेलगु देशम पार्टी के उक्त विज्ञापन में छः हजार रूपए तक की आय वालों को रियायती दर पर चांवल तथा साड़ी, धोतियां उपलब्ध कराने की बात कहीं गई है। इसके द्वारा इस वर्ग के मतदाताओं को एक प्रकार की रिश्वत देने की कोशिश की गई है। क्योंकि, सरकार की यह घोषणा 26 जनवरी 1985 (चुनाव से दो दिन पहले) से लागू होने वाली थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर विचार करने के बाद कहा कि उक्त विज्ञापन तथा भाषणों को आंध्र प्रदेश सरकार की उपलब्धियों के गुणगान से अधिक नहीं माना जाना चाहिए। मुख्यमंत्री तथा पार्टी अध्यक्ष एवं नेताओं के भाषणों में सामान्य चुनावी वादे ही थे। ये वादे भ्रष्ट आचरण प्रावधानों में नहीं माने जाएंगे। याचिकाकर्ता की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के दो न्याय दृष्टांतों का भी हवाला देते हुए यह तर्क भी किया गया कि मतदाताओं से वादा करने के आधार पर इन चुनाव याचिकाओं को स्वीकार किया गया था।

इन फैसलों की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि कोई उम्मीदवार कोई वादा करने के साथ ही मतदाताओं से कोई सौदा अथवा अनुबंध करता है तथा यह सप्रमाण साबित होता है तो ही उसे भ्रष्ट आचरण माना जाएगा। एक तो, इस मामले में सरकार अथवा पार्टी अध्यक्ष द्वारा जो भी कहा गया अथवा किया गया वह रियायत पूर्ण राज्य के गरीब तबके के लिए थी न कि केवल उस संसदीय क्षेत्र के लिए। दूसरा, राज्य सरकार ने यह राहत केवल गरीब तबके के लिए घोषित की थी।

यदि कोई सरकार दलित, शोषित या कमजोर वर्ग के लिए करती है, तो इसे हम सरकार का भ्रष्ट आचरण नहीं कह सकते हैं। हालांकि, उक्त सहायता तीन माह के लिए ही घोषित की गई थी। इस बारे में यही कहा जा सकता है कि सरकार इस अवधि में ऐसे कार्यक्रमों के वित्तीय प्रभावों का अध्ययन करना चाहती थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के इरादों को संदेह की नजर से देखने का कोई कारण नहीं है। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने एचवी कामथ प्रकरण का हवाला दिया। उस समय मध्य प्रदेश सरकार ने एक चुनाव के समय मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा के कार्यकाल में एक अध्यादेश जारी किया गया था। इस अध्यादेश द्वारा किसानों को राहत देते हुए ऐसे किसानों को भू-राजस्व में छूट दी गई थी।

इसमें यह कहा गया था कि जिनके खेत 7.5 एकड़ से छोटे थे या तो पांच रूपए से अधिक भू-राजस्व नहीं दे रहे थे, वे भू-राजस्व से छूट के पात्र होंगे। इस प्रकरण में भी सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इस रियायत को धारा 123 (1) (अ) (ब) के अंतर्गत उपहार, भेंट या अनुचित वादे की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस फैसले में भी स्पष्ट कहा गया था कि हालांकि चुनाव की पूर्व संध्या पर मुख्यमंत्री द्वारा उक्त घोषणा की गई। लेकिन, इसे उनका या उनके एजेंट का भ्रष्ट आचरण नहीं कहा जा सकता। इस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलों को खारिज कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अश्विनी कुमार उपाध्याय की हाल ही में प्रस्तुत इस याचिका को यदि स्वीकार किया जाता है, तो आप सहित सभी पार्टियों की मुश्किलें बढ़ सकती है। याचिका में मतदाताओं से अनुचित राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए पूर्ण प्रतिबंध की मांग की गई है। चुनावों के समय लोकलुभावन घोषणाएं होती हैं तथा नेता एवं मंत्री विभिन्न प्रकार से मतदाताओं को अपनी तथा पार्टी की ओर आकर्षित करते ही है। लेकिन, कौन सी घोषणा अथवा वादा कब एवं किस प्रकार से तथा किस आशय से किया गया है, यह महत्वपूर्ण है। इसी के आधार पर इसका निर्णय किया जाएगा कि कौनसी घोषणा अथवा वादा जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत भ्रष्ट आचरण के अंतर्गत आता है अथवा नहीं।